आर्थिक मंदी पर मोदी सरकार को RBI के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने एक बार फिर नसीहत दी है। सरकार आर्थिक मंदी से निपटने के लिए कई बड़े और सुधारवादी कदम उठा चुकी है जिसका सकारात्मक असर हमें कुछ समय बाद देखने को मिल सकता है। हालांकि, रघुराम राजन को अब भी यही लगता है कि सरकार ने आर्थिक मंदी को कोई समस्या ही नहीं माना है। दरअसल, इंडिया टुडे के लिए अपने लेख में राजन ने अब लिखा है कि ‘सरकारों को कोसना छोड़कर जरूरी कदम उठाए जाने चाहिए यह विश्वास करने की परंपरा थमनी चाहिए कि समस्या अस्थायी है। एक असंगठित सरकार आईटीएस को सशक्त कर जांच और निवेश एजेंसियों को बुलडोज कर रही है’। आज रघुराम राजन बेशक वातानुकूलित न्यूज़ स्टूडियोज़ में बैठकर सरकार को अपना ज्ञान दे रहे हों, लेकिन RBI के गवर्नर रहते हुए उन्होंने इंटरेस्ट रेट को बढ़ा दिया था, जिसकी वजह से लोन मिलना महंगा हो गया था। आर्थिक मंदी के दौर में बेशक सरकार से सवाल पूछे जाने चाहिए, लेकिन क्या यह अटपटा नहीं है कि जिस व्यक्ति ने RBI के गवर्नर के तौर पर इस आर्थिक मंदी की नींव डाली थी, आज वही व्यक्ति बड़े-बड़े न्यूज़रूम्स से सरकार पर हमला कर रहा हो।
रघुराम राजन वर्ष 2013 से सितंबर 2016 तक RBI के गवर्नर रहे थे, और उनकी नीतियों ने देश के आर्थिक विकास को बड़ा धक्का पहुंचाया था। उनके द्वारा बढ़ाए गए ब्याज दरों की वजह से लोन महंगे हो गए और छोटी कंपनियों को पैसे की कमी से जूझना पड़ा था। यह एक बड़ा कारण है कि आज देश में मंदी का माहौल है। अर्थशास्त्री भी मानते हैं कि राजन के समय ब्याज के दर काफी बढ़े हुए थे, जिसका प्रभाव अब आर्थिक मंदी के रूप में देखने को मिल रहा है। इसीलिए हम कह रहे हैं कि रघुराम राजन के पास सरकार से सवाल पूछने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है।
रघुराम राजन के बाद RBI की कमान ऊर्जित पटेल ने संभाली थी, और इन दोनों के समय ही भारत में ब्याज दर दुनिया में सबसे अधिकतम ब्याज दरों में से एक थी। दुनियाभर में केंद्रीय बैंकों ने अपने-अपने देशों की अर्थव्यवस्था को सस्ती पूंजी से भरपूर रखा, लेकिन भारत में ठीक इसके उलट देखने को मिला। केंद्रीय बैंक के इस कदम ने देश की अर्थव्यवस्था की विकास की गति को कम कर दिया जिसका अंजाम हमें अब देखने को मिल रहा है। फर्क इतना है कि आज रघुराम राजन का RBI से कोई नाता नहीं है और ना ही उनपर RBI की पूर्व नीतियों को लेकर उठ रहे प्रश्नों का जवाब देने की ज़िम्मेदारी है।
हालांकि, ऐसा नहीं है तब बैंकों के पास पैसे की कमी थी। भारतीय बैंकों का डिपॉजिट रेट चीन जैसे देशों के मुक़ाबले बहुत अच्छा है। हालांकि, भारत में नए लोन जारी करने की दर इन देशों के मुक़ाबले बहुत कम है। जब तक पैसा लोन के रूप में बाज़ार तक नहीं पहुंचता है, तब तक देश में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा नहीं मिलता है। केंद्रीय बैंक के इसी रवैये के कारण भारत में आज भारत में आर्थिक मंदी का दौर देखने को मिल रहा है, जिसमें रघुराम राजन की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
बड़ी कंपनियों की बात करें, तो उनके पास पैसा जुटाने के कई जरिये होते हैं। बड़ी कंपनियाँ FDI, foreign portfolio investors, foreign institutional investors, debentures और equities के जरिये पैसा जुटाने में सक्षम होती हैं, लेकिन छोटी कंपनियों के पास बैंक से लोन के अलावा पैसा जुटाने के लिए बहुत कम विकल्प ही बचते हैं। ऐसे में ऊंची ब्याज दर के कारण इनके लिए पूंजी जुटाना महंगा हो जाता है जिसके कारण इन्हें व्यवसाय करने में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में स्पष्ट है कि रघुराम राजन साहब के पास आज सरकार से सवाल करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है क्योंकि इस आर्थिक मंदी की नींव उन्होंने RBI के गवर्नर रहने के दौरान स्वयं ही रखी थी।