अक्सर यह देखा गया है कि बाहर से हमारे देश में अलग-अलग धर्मों से लोग आते है और जंगलों में बसे आदिवासियों को कभी लालच देकर तो कभी बहला-फुसला कर धर्म परिवर्तन करने पर मजबूर कर देते हैं। क्या आपने कभी ऐसा सुना है कि कोई ईसाई मिशनरी लोगों का धर्म परिवर्तन करने के मकसद से आए लेकिन यहां के लोगों को देख, आदिवासी जीवन और जनजीवन पर शोध कर यह पाया कि यहां के सभी आदिवासी हिन्दू ही हैं। फिर इस शोध के कारण स्वयं ही हिन्दू धर्म या सनातन धर्म में परिवर्तित हो गये। जी हां, आज हम आपको एक ऐसे ही व्यक्ति के बारे में जो एक विश्व प्रसिद्ध मानवशास्त्री भी हैं और उनका नाम है वेरियर एल्विन।
भारतीय जनजातियों पर शोध करने वाले मानवशास्त्रियों में वेरियर एल्विन (1902-64) का विशिष्ट स्थान है। वे काफी लोकप्रिय हुए और कई मामलों में विवादास्पद भी रहें।
जब वेरियर एल्विन (1902-1964) ऑक्सफोर्ड में छात्र थे, तब उन्होंने भारतीय संस्कृति में गहरी रुचि दिखाई थी। वह एक धर्मनिष्ठ ईसाई थे और एक मिशनरी के रूप में औपचारिक प्रशिक्षण प्राप्त किया था। वे 1927 में एक मिशनरी के रूप में भारत आए थे तथा पुणे में क्रिश्चियन सर्विस सोसाइटी में शामिल हुए।
वेरियर एल्विन इंग्लैंड से भारत मुख्यतः मिशनरी कार्य के लिए आए थे, मगर अपने अंतर्द्वंद्वों, गांधी जी के विचार और सानिध्य, जनजातियों की स्थिति, मिशनरियों के कार्यों के तरीकों को देखकर उनके विचार बदल गए। फिर उन्होंने जनजातियों के बीच रहकर उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए काम करने का निश्चय किया; और इसी दौरान अपने विख्यात मानवशास्त्रीय शोध कार्य किए।
अपने शोध कार्य के दौरान वह हिंदू दर्शन और रवींद्रनाथ टैगोर के लेखन से बहुत प्रभावित थे। उस समय, महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत में स्वतंत्रता आंदोलन अपने चरम पर था। उन्होंने पूरे भारत में वल्लभ भाई पटेल और जमनालाल बजाज के साथ यात्रा की और लोगों के अत्याचार को गहराई से महसूस किया। तब वह शामराव हिवाले के नाम से एक बहुत ही सक्षम स्वयंसेवक से मिले और उन्होंने मध्य भारत (आज का मध्य प्रदेश) की गोंड जनजाति का अध्ययन किया। उन्होंने जीवन में रुचि ली और उन्हें सुधारना शुरू किया।
उन्होंने स्वयं यह लिखा है कि, “जब मैं तेरह साल पहले पहली बार आदिवासीयों के संपर्क में आया था, तो मुझे यह लगता था कि ये आदिवासी हिंदू नहीं थे। परंतु आठ वर्षों के कठिन अध्ययन और शोध ने मुझे आश्वस्त किया है कि मैं गलत था।”
उन्होंने सिर्फ हिन्दू धर्म को ही नहीं अपनाया बल्कि, जनजातीय क्षेत्र में आदिवासियों के मदद के लिए कई कार्यक्रम भी चलाया। एल्विन ने ठाकुर बापा (ए के ठक्कर 1869-1951) के साथ हाथ मिलाया जिन्हें गांधी जी ने जनजातीय समुदायों के साथ काम करने के लिए चुना गया था। ईसाई मिशनरियों के खिलाफ अपने अभियान में, एल्विन ने हिंदुओं को एक केंद्रीय संगठन स्थापित करने, धन इकट्ठा करने और मिशनरी गतिविधियों के बारे में पूरे देश में जानकारी फैलाने के लिए कहा। वह चाहते थे कि आदिवासी क्षेत्रों में हिंदू मिशन शुरू किया जाए जिसमें मिशनरियों का विरोध करने के लिए एक मिशन केंद्र खोला जाए।
एल्विन ने ‘भूमिजन सेवा मंडल’ की भी स्थापना की थी। इस संगठन के माध्यम से उन्होंने 200 हस्ताक्षर एकत्र किए थे जिसमें आदिवासी समुदाय के सदस्यों ने ‘हिंदू धर्म के पालन’ की पुष्टि की और घोषणा की कि वे अपने क्षेत्रों में ईसाई मिशन स्कूलों के खिलाफ हैं। एल्विन के प्रयास न केवल 15 मिशन स्कूलों को बंद करने में सफल रहे, बल्कि इसके परिणामस्वरूप कई परिवर्तित हो चुके आदिवासी वापस हिन्दू धर्म में आ गए।
अपने शोध कार्यों के कारण वह भारतीय जनजातीय जीवनशैली और संस्कृति पर बड़े विद्वानों में से एक बन गए खासकर गोंडी लोगों के बीच काफी मशहूर हुए। उन्होंने 1945 में इसके गठन पर मानव विज्ञान सर्वेक्षण के उप निदेशक के रूप में भी कार्य किया। स्वतंत्रता के बाद उन्होंने भारतीय नागरिकता ले ली। तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्हें उत्तर-पूर्वी भारत के आदिवासी मामलों के सलाहकार के रूप में नियुक्त किया था, और बाद में वह NEFA जिसे अब अरुणाचल प्रदेश के नाम से जाना जाता है। वो वहां की सरकार के एंथ्रोपोलॉजिकल सलाहकार थे। भारत सरकार ने उन्हें 1961 में पद्म भूषण के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित किया। वेरियर एल्विन की आत्मकथा, द ट्राइबल वर्ल्ड ऑफ़ के लिए उन्हें 1965 का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था।
वेरियर एल्विन का उदाहरण और शोध कार्य यह दिखाता है कि किस प्रकार से मार्कसिस्ट इतिहासकारों और आज के कथित बुद्धिजीवी तथा राजनीतिक पार्टियां यह झूठ फैलाती हैं कि जनजातीय लोगों पर हिन्दू धर्म थोपा जाता है। सनातन धर्म भारत वर्ष के कण-कण में समाहित है और कोई अगर इससे इंकार कर रहा है तो इसका मतलब वह स्पष्ट झूठ बोल रहा है।