ध्वनि प्रदूषण के खिलाफ लड़ाई में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने तब एक मिसाल कायम की जब कोर्ट ने यूपी के एक गांव में मस्जिदों पर लाउडस्पीकर और एम्प्लीफायर लगाने पर एसडीएम द्वारा लगाई रोक हटाने से इनकार कर दिया। कोर्ट ने कहा कि एक पक्ष को अगर लाउडस्पीकर इस्तेमाल करने की इजाज़त दे दी जाती है, तो इससे सामाजिक संतुलन बिगड़ सकता है। बता दें कि इससे पहले SDM ने धार्मिक विवाद उत्पन्न होने से बचने के लिए दोनों पक्षों को ही लाउडस्पीकर इस्तेमाल करने पर रोक लगा दी थी, जिसके खिलाफ मुस्लिम पक्ष ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का रुख किया था। लेकिन इलाहाबाद कोर्ट ने इस पक्ष को मस्जिद पर लाउडस्पीकर इस्तेमाल करने की छूट नहीं दी।
बता दें कि याचिका करने वालों की दलील थी कि वे मस्जिदों में रोजाना पांच बार दो मिनट के लिए इन उपकरणों के प्रयोग की अनुमति चाहते हैं। दावा था कि इससे प्रदूषण या शांति व्यवस्था को खतरा नहीं है। उन्होंने कहा था “यह उनके धार्मिक कार्यों का हिस्सा है, बढ़ती आबादी की वजह से लोगों को लाउडस्पीकर के जरिए नमाज के लिए बुलाना जरूरी हो जाता है”। हालांकि, कोर्ट ने इस दलील को स्वीकार नहीं किया। कोर्ट ने कहा “यह बुनियादी मूल्य है कि हाईकोर्ट को सामाजिक संतुलन बनाए रखने के लिए उचित ढंग से अपने विशेष न्यायिक क्षेत्राधिकार का उपयोग करना चाहिए। मौजूदा मामले में यह साफ है कि लाउडस्पीकर इस्तेमाल करने की इजाज़त देने की जरूरत नहीं है। इससे सामाजिक असंतुलन पैदा हो सकता है”।
गौरतलब है कि वर्ष 2018 में इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने राज्य में बिना आज्ञा के धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकर के इस्तेमाल कर पाबंदी लगा दी थी। इसके तुरंत बाद योगी सरकार ने सभी धार्मिक स्थलों और सार्वजनिक स्थलों पर लाउडस्पीकर के इस्तेमाल पर बैन लगा दिया था। इसी के खिलाफ मुस्लिम पक्ष ने कोर्ट में याचिका दायर की थी, लेकिन कोर्ट ने इनकी एक ना सुनी।
कोर्ट ने कहा “धर्म का पालन करना मूल अधिकार है, लेकिन इसे निजता के अधिकार के साथ माना जाना चाहिए। किसी को भी अपने धर्म का पालन इस प्रकार करने का अधिकार नहीं है कि वह दूसरे की निजता का उल्लंघन करने लगे। ऐसे में लोग धार्मिक कामों जैसे अखंड रामायण, कीर्तन आदि में लाउडस्पीकर से दूर रहें, इससे लोगों को तकलीफ होती है”। कोर्ट ने यह भी कहा अगर इस मामले में याचिकाकर्ताओं की मांग मान ली जाती है तो इससे क्षेत्र में तनाव भी फैल सकता है। दरअसल, जौनपुर की शाहगंज तहसील के बद्दोपुर गांव के क्षेत्र में हिंदू व मुस्लिम समुदायों की मिली जुली आबादी रहती है। एक पक्ष को लाउडस्पीकर लगाने की अनुमति दी जाती, तो इससे क्षेत्र की शांति प्रभावित होती। एसडीएम और सीओ ने गांव का दौरा किया तो पाया कि साउंड एम्प्लीफायर की वजह से क्षेत्र में तनाव है। ऐसे में एसडीएम ने किसी भी धर्म स्थल पर ये उपकरण लगाने की अनुमति नहीं दी, जिसे कोर्ट ने भी सही ठहराया।
कोर्ट ने इसी के साथ यह भी कहा कि भारत के लोग ध्वनि प्रदूषण को गंभीरता से नहीं लेते हैं। कोर्ट ने कहा “एक ओर अमेरिका, इंग्लैंड और अन्य विकसित देशों में लोग ध्वनि प्रदूषण से बचने के लिए कार का हॉर्न भी बजाने से बचते हैं, इसे खराब व्यवहार मान रहे हैं। वहीं भारत में लोग अब भी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि शोर भी प्रदूषण है। इससे सेहत को नुकसान होता है”।
हाई कोर्ट का यह आदेश बेशक लोगों की आँखें खोलने वाला है। शुरू से ही इस विषय पर लोगों को बोलने में हिचकिचाहट महसूस होती रही है, और इसका कारण है इसका धर्म से जुड़ाव। लोग लाउडस्पीकर के इस्तेमाल के खिलाफ बोलने से हिचकते हैं क्योंकि लोगों को लगता है कि यह किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत कर सकता है। लेकिन, हमें अब इन सब से ऊपर उठने की आवश्यकता है। जिन्होंने भी लाउडस्पीकर पर बैन के खिलाफ याचिका दायर की थी, या जो इस निर्णय से संतुष्ट नहीं हैं, उन्हें यह विचार करना चाहिए कि लाउडस्पीकर से समाज के अन्य लोगों पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है। बच्चे और बुजुर्ग इससे सबसे ज़्यादा पीड़ित होते हैं। ऐसे में हमें ध्वनि प्रदूषण को लेकर सजग होने की जरूरत है। इस संबंध में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जो मिसाल कायम की है, वह अति-प्रशंसीय है।