तीन दिनों से लगातार हिंसा की खबरों के बीच सबसे सुखद खबर यह है कि अब पूर्वोत्तर दिल्ली की सड़कें गुलजार हो चुकी हैं। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो सड़कों पर चहल-पहल काफी देखी गई, हालांकि दुकानें अभी भी बंद हैं। अब बात करते हैं दंगे की कि इससे हमें क्या हासिल हुआ? इस दंगे के दोषी कौन-कौन हैं? शाहीनबाग का क्या रोल रहा है इन दंगों में? आइए एक नजर डालते हैं…
इन दंगों से किसी को कुछ हासिल नहीं हुआ लेकिन कईयों ने ‘अपनों’ को खो दिया। इन दंगों में सबसे ज्यादा दुखद कुछ था तो वह था आईबी ऑफिसर अंकित शर्मा की मौत, उन्हें दंगाइयों ने मारकर कूड़े की ढेर पर फेंक दिया था और शव कई घंटों बाद मिली। अंकित शर्मा की हत्या का आरोप आप नेता ताहिर हुसैन लगाया जा रहा है। शुरूआती जांच में भी कई ऐसे तथ्य सामनें आएं हैं जिससे सिद्ध होता है कि ताहिर भी दंगों में शामिल थे।
हालांकि इन दंगों की मुख्य वजह क्या थी? इसका केंद्र कहां था सभी को पता है। जी हां, हम बात कर रहे हैं शाहीन बाग की जो दिल्ली में पिछले 3 महीने से एक कानून के खिलाफ प्रदर्शन के नाम पर नंगा नाच कर रहे हैं। वास्तव में किसी भी प्रदर्शनकारी की नागरिकता नहीं छिनी गई लेकिन इनकी वजह से कईयों की जान जरूर जा चुकी है।
इन प्रदर्शनों को दिल्ली की आम आदमी पार्टी ने खुलकर समर्थन किया। एक तरफ डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया खुद विरोध प्रदर्शन करने वालों के लिए खड़े रहे वहीं आप के सबसे विवादित नेता अमानतुल्ला खां भी नियमित रूप से शाहीन बाग की हाजीरी लगाते रहे। कुल मिलाकर मुस्लिम वोटों की खातिर आप ने शाहीन बाग का खूब प्रयोग किया।
इन प्रदर्शनों में एक चार माह का मासूम बच्चा भी अपनी जान गवां दिया। बच्चे की मौत ठंठ लगने की वजह से हुई थी। सबसे हैरानी की बात तो यह थी कि बच्चे की मां कह रही थी कि वह अल्लाह का था और अल्लाह ने उसे ले लिया। मृत बच्चे की मां को इसमें अपनी गलती का तनिक भी एहसास नहीं था।
प्रदर्शन से स्थानीय लोगों को जब काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा तो आप ने ”दिल्ली पुलिस तो केंद्र के हाथ में है” कार्ड का खूब इस्तेमाल किया। हालांकि केजरीवाल को ये नहीं पता था कि जब तक वे कार्यकारी मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट नहीं करेंगे तब तक सीआरपीसी की धारा 129 और 130 लागू नहीं हो सकती। इन कारणों से साफ स्पष्ट होता है कि केजरीवाल सरकार ने वोटों की खातिर शाहीन बाग को फलने-फूलने दिया जो बाद में उन्हीं के गले की घाव बन गई।
शाहीन बाग के मामले में हमारी न्यायपालिका भी काफी सुस्ती दिखाई। दिल्ली विधानसभा चुनाव खत्म होने के बाद ही कोर्ट में शाहीन बाग का मुद्दा गया। कोर्ट ने प्रदर्शनकारियों से बात करने के लिए वार्ताकारों की नियुक्ति की, जो शाहीन बाग जाकर उनसे बात कर सकें और उन्हें समझा सकें। हालांकि वार्ताकार भी पूरी तरह अप्रभावी दिखे। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने शाहीन बाग की सुनवाई 23 मार्च तक के लिए टाल दिया। जब वास्तव में शाहीन बाग पर एक्शन लेने चाहिए थे तब कोर्ट ने भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस प्रदर्शन की आड़ में इस्लामिक कट्टरपंथियों ने अपना खेल खेला। जब केंद्र सरकार को कड़े एक्शन लेने चाहिए थे तो उन्होंने भी मौन रहना उचित समझा। ये भी इंकार नहीं किया जा सकता कि शाहीन बाग में महिलाएं प्रदर्शन कर रही थीं और वो भी मुस्लिम समुदाय की, जिससे सरकार और प्रशासन को काफी बर्दाश्त करना पड़ा।
हालांकि जब शाहीन बाग से जला आग पूर्वोत्तर दिल्ली तक में फैलने लगा तो भी केंद्र सरकार ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। ये 100 फीसदी सच है कि पूर्वोत्तर दिल्ली में अचानक से हिंसा करना ट्रंप के आने की वजह से ही हुआ था ताकि शाहीन बाग और दिल्ली का प्रदर्शन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में बने। केंद्र सरकार भी दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति के स्वागत में लगी रही। ट्रंप के आने की वजह से केंद्र सरकार ने कोई सख्ती नहीं दिखाई। जिसका परिणाम 30 लोगों की मौत बनकर सामने आया।
कुल मिलाकर दिल्ली दंगें में हमारी खुफिया एजेंसी भी काफी सुस्त रही। जब ट्रंप भारत आए थे तो खुफिया एजेंसियों को पूर्वोत्तर में होने वाले दंगों की भनक तक नहीं लगी। पुलिस ने भी काफी निष्क्रियता दिखाई। कोर्ट को भी जब थोड़ी तेजी दिखानी चाहिए थी तब वार्ताकारों को नियुक्त कर इसे और लंबा खिंचने का प्रयास किया।
ऐसी लापरवाहियों से हमें क्या हासिल हुआ? 30 लोगों की मौत और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में बदनामी और कुछ नहीं। अब केंद्र सरकार, दिल्ली पुलिस और न्यायपालिका को समझ लेना चाहिए कि यह कोई विरोध प्रदर्शन नहीं है यह सिर्फ एक प्रोपेगेंडा है जो रह-रहकर दंगा बनकर सामने आ रहा है।