वुहान वायरस ने मानो आम दिनचर्या को ठप कर दिया है। आधी से ज़्यादा दुनिया lockdown में है, और आम दिनचर्या का हिस्सा माने जाने वाले कई काम ठप पड़े हैं। पर कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो चाहते है कि यह स्थिति यूं ही बने। इन्हे ईको फासिस्ट्स कहते हैं। पर इन महानुभावों के बारे में बाद में।
इस lockdown का एक अच्छा असर भी दिखा है, या यूं कहे कि मानवता को एक सीख मिली है। प्राकृतिक वातावरण में काफी गजब का सुधार आया है। औसत तापमान में गिरावट आई है, गैर तटीय शहर में रात को साफ आसमान दिखता है, जवा स्वच्छ हो चुकी है, हमारे नदियों की गुणवत्ता में सुधार आया है। सब इस लॉक डाउन की कृपा से।
पर केवल स्वच्छ पर्यावरण से काम तो नहीं चलेगा, क्योंकि अधिकतर लोग घरों में कैद होकर पक चुके हैं, और वर्क फ्रॉम होम सबको नहीं सुहाता। पर ईको फासीवादियों के लिए मानो यह किसी स्वर्ग से कम नहीं है। इस स्थिति की आद में अपन वास्तविक स्वरूप उजागर करते हुए उन्होंने वुहान वायरस को प्रकृति का प्रकोप मानना और चीन का बचाव करना प्रारंभ कर दिया है।
यूके का वामपंथी अख़बार द गार्जियन एक लेख छापता है कि क्या प्रकृति का विध्वंस ही COVID 19 के लिए जिम्मेदार है। इस लेख में आप साफ पढ़ सकते हैं कि कैसे ये ईको फासीवादी कुछ भी करके चीन और WHO को वुहान वायरस की जवाबदेही से बचाया जाए। जॉन विडल द्वारा लिखित इस लेख में यह बताया गया है कि कैसे यह मास pandemics की शुरुआत है, और आगे की दुनिया ऐसे ही होने वाली है।
इस लेख में विडल ने हर उस चीज की आलोचना की, जिससे वुहान वायरस का दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था, और इस लेख में स्पष्ट दिखता है कि कैसे चीन और WHO को बचाने के लिए ये ईको फासीवादी एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं।
यही नहीं, गार्जियन में ही छापे एक अन्य लेख में दावा किया गया है कि कैसे वायु प्रदूषण के कारण मृत्यु दर में बढ़ावा होता रहेगा, परन्तु इसके लिए कोई ठोस साक्ष्य नहीं पेश किए गए। इसके साथ ही वर्तमान संपादक और इस लेख के लेखक डेमियन कैरिंगटन कहते हैं कि लॉक डाउन को अनिश्चित काल के लिए लागू रहना चाहिए।
इसी प्रकार से भारत में भी पर्यावरण में हुए सुधार के पीछे ऐसे ही बचकाने तर्क दिए जा रहे हैं। डाउन टू अर्थ हो, या फिर द प्रिंट, हर कोई ईको फासीवादी के तौर पर सिद्ध होना चाहता है। द प्रिंट के लेख में यहां तक लिखा है कि जानवर अपने घर वापस लौट रहे है, और इस महामारी ने ये सिद्ध कर दिया है कि मानव का रहना पृथ्वी पर आवश्यक नहीं है।
शायद ये ईको फासीवादी भूल गए हैं कि इस महामारी से गरीबों को भी नुकसान हुआ है। अपने आलीशान बंगले में बैठकर ज्ञान देना बहुत आसान है, पर वास्तविकता में उसे निभाना पाना बेहद कठिन। यही लोग कुछ हफ्ते पहले दिहाड़ी मजदूरों की व्यथा पर घड़ियाली आंसू बहा रहे थे, और आज इन्हें प्रकृति ज़्यादा आवश्यक लग रही है। सही ही कहा जाता है कि हिपोक्रेसी की भी सीमा होती है।