वुहान वायरस से बहादुरी से मोर्चा संभालने के साथ-साथ भारत अब आगामी विधानसभा चुनाव की तैयारियां भी ज़ोर शोर से कर रहा है। अब से कुछ ही महीनों में बिहार के निवासी अपने भाग्यविधाता का चुनाव करेंगे, लेकिन यहां समस्या ये नहीं है कि उम्मीदवारों में अधिक योग्य कौन है, यहाँ तो समस्या ये है कि कोई कुशासन के मामले में कितना कम है। बिहारियों के लिए मुख्यमंत्री का चुनाव वैसी ही दुविधा है जैसे कुएँ और खाई में किसी एक को चुनना। एक ओर हैं लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल, जिसने जीते जी बिहार को नर्क में परिवर्तित कर दिया, तो दूसरी ओर हैं नीतीश कुमार, जो कहने को बिहार में ‘सुशासन बाबू’ कहे जाते हैं, पर पिछले कुछ वर्षों में सुशासन छोड़ सब कुछ दिखा है।
पर जिस बिहार में आचार्य चाणक्य जैसे प्रख्यात विद्वान ने जन्म लिया था, जिस बिहार में नालंदा विश्वविद्यालय जैसा शैक्षणिक संस्थानों का बोलबाला रहता था, वो इतने शोषित और पिछड़े राज्य में कैसे परिवर्तित हो गया? इसके लिए हमें जाना होगा तीन दशक पूर्व, जब लालू प्रसाद यादव ने पहली बार बिहार की सत्ता संभाली थी।
यह वो समय था जब बिहार में अराजकता अपनी चरम सीमा पर थी, और भागलपुर के दंगों के कारण सत्ताधारी काँग्रेस पार्टी का सत्ता से बाहर जाना बिलकुल तय था। ऐसे समय में आपातकाल के दौरान जेपी आंदोलन में हिस्सा ले चुके जनता दल के तत्कालीन मुखिया लालू प्रसाद यादव को एक बेहतर विकल्प के तौर पर दिखाया गया, और फिर गरीबी उन्मूलन एवं सामाजिक सौहार्द के नाम पर लालू यादव ने 1990 में पहली बार बिहार की सत्ता संभाली।
लेकिन 10 मार्च 1990 की वो तारीख अब बिहार वाले शायद ही कभी भूल पाएंगे, क्योंकि ये सिर्फ वो तारीख नहीं थी, जब लालू प्रसाद यादव ने आधिकारिक तौर पर सत्ता संभाली थी। ये वो तारीख थी जब बिहार की दुर्गति का अभियान प्रारम्भ हुआ था। भ्रष्टाचार, हत्या फिरौती, अपहरण, ये सब आम बात नहीं, बिहार के लिए आय का स्त्रोत बन चुके थे। हद्द तो तब हो गई जब 1997 में चारा घोटाले के कारण लालू प्रसाद यादव को सत्ता छोड़नी पड़ी, पर उन्होने अपनी ही पत्नी राबड़ी देवी को सत्ता सौंप दी, जिन्होंने शायद स्कूल का मुंह भी न देखा हो।
लालू यादव की ही कृपा से बिहार जंगल राज और बीमारू राज्यों में सबसे अग्रणी राज्य का पर्याय बन गया था। लगभग 15 वर्षों तक बिहार में अपराध अपने चरम सीमा पर था, और इनफ्रास्ट्रक्चर तो कुछ है ही नहीं। परंतु 2005 में बदलाव की उम्मीद आई, जब काफी हो हल्ला और कोर्ट कचहरी की समस्याओं के पश्चात नीतीश कुमार को आखिरकार बिहार की सत्ता मिली।
प्रारम्भ में नीतीश कुमार ने अपराध दर को कम करने पर ज़ोर दिया, और इनफ्रास्ट्रक्चर को भी कुछ हद तक बढ़ावा दिया। इसके कारण लोगों में बिहार के दिन बहुरने की उम्मीद दिखाई दी, और नीतीश कुमार को ‘सुशासन बाबू’ के नाम से बुलाया भी जाने लगा। हालांकि, 2015 में जब उन्होंने तीसरी बार सत्ता संभाली, तो ये सिद्ध हो गया की लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के शासन में कोई विशेष फर्क नहीं है।
उद्योगों को कुचलने का भरसक प्रयास करना हो, या फिर शराब बंदी का अतार्किक निर्णय, नीतीश कुमार के तीसरे टर्म में उनकी सुशासन बाबू वाली छवि बुरी तरह तार-तार हो गई। उदाहरण के लिए पिछले वर्ष जब मुजफ्फरपुर से चमकी बुख़ार का प्रकोप फैला था, तो सबसे पहला सवाल ये उठा कि मुजफ्फरपुर में बड़ी संख्या में बच्चों की मौत के बाद भी इस जानलेवा बीमारी से निपटने के लिए उस क्षेत्र में अच्छी फैसिलिटी वाले अस्पताल क्यों नहीं है? इस सवाल का जवाब तो खुद नीतीश कुमार के पास भी नहीं होगा। उन्होंने स्थिति को नज़रअंदाज़ किया और सब कुछ ठीक होने का ढोंग किया है। वर्ष 2012 में, नीतीश की सरकार ने मुजफ्फरपुर में एक रिसर्च लैब स्थापित करने का वादा किया था ताकि यह पता चल सके कि बच्चे इस जानलेवा बीमारी से कैसे और क्यों प्रभावित हो रहे हैं। लेकिन आज तक यह पेपर पर ही रह गया है।
कोरोना की महामारी और उससे उपजी श्रमिकों की समस्या अब एक प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बन चुका है और यह बिहार के चुनाव परिणामों के समीकरण में भारी बदलाव कर सकता है। श्रमिकों की समस्या पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का उदासीन रवैया अभी भी बना हुआ है जैसा कि उनका राज्य के अर्थव्यवस्था के प्रति बना हुआ था। बिहार में खेती से होने वाली कम आमदनी और इंडस्ट्री की गैरमौजूदगी से बिहार ने मजदूरों, श्रमिकों और कामगारों का भयंकर पलायन देखा है। इसका नतीजा यह हुआ कि आज बिहार की अर्थव्यवस्था महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु जैसे राज्यों पर टीका हुआ है, जहां बिहार के गरीब मजदूर जान लगाकर मेहनत करते हैं और रुपए कमाकर वापस अपने घर भेजते हैं और उसी रुपये से बिहार के लोगों का घर चलता है। 15 वर्षों से सत्ता में काबिज होने के बाद भी बिहार से जंगल राज अभी तक नहीं हटा है।
सच कहें तो लालू यादव और नीतीश कुमार के 3 दशक के कुशासन ने बिहार को करीब 6 दशक पीछे धकेल दिया है। न यहाँ का इनफ्रास्ट्रक्चर अच्छा है, न ही अपराध दर में कोई विशेष गिरावट आई है, और स्वास्थ्य व्यवस्था के बारे में तो जितना कम बोलें, उतना ही अच्छा। ये विडम्बना ही है कि जिस बीमारू श्रेणी में कभी राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार एक साथ विद्यमान थे, उस श्रेणी से बिहार आज भी टस से मस नहीं हुआ है।