राजस्थान में पिछले एक महीने से चल रहे सियासी ड्रामे का अंत हो गया है। सचिन पायलट ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के आवास पर हुई विधायक दल की बैठक में हिस्सा लिया। राजनैतिक गिले-शिकवे खत्म होने के बाद, पायलट की गहलोत से यह पहली मुलाकात थी जिसमें दोनों नेता गर्मजोशी से मिलते दिखाई दिये। अब यह गर्मजोशी कितनी गर्म थी यह तो समय बताएगा लेकिन, एक बात स्पष्ट है कि, अगर किसी को बुरी हार मिली है या यूं कहें, किसी ने घुटने टेक दिए तो वो सचिन पायलट हैं।
राजस्थान कांग्रेस के इस समझौते में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सिर्फ अनुभवहीन सचिन पायलट को राजनीति के खेल में पटखनी दी, बल्कि भविष्य में भी किसी प्रकार के बगावत की सम्भावना पर तात्कालिक रूप से एक ताला लगा दिया। कांग्रेस ने इस भारतमिलाप के बाद, पायलट खेमे के नेता भंवरलाल शर्मा और विश्ववेंद्र सिंह का निलंबन भी वापस ले लिया है जिससे अन्य बागी विधायकों को भी राहत मिलने की संभावना है।
सचिन पायलट को यह एहसास हो गया कि, बहुत हाथ-पाँव मारने के बाद भी पार्टी में उनकी नहीं चलने वाली। कल तक प्रियंका गांधी से बात करने पर मना करने वाले सचिन पायलट ने न केवल प्रियंका और राहुल से बात की, बल्कि पार्टी में वापसी भी कर ली। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि, सचिन पायलट ने एक वर्ष के भीतर खुद को मुख्यमंत्री बनाने के लिए प्रियंका गांधी से कई बार कहा लेकिन वहां से रजामंदी नहीं मिली। अब उन्हें वापसी करने पर भी, न तो CM पद मिला और न ही वह अशोक गहलोत का कुछ बिगाड़ पाए जिसके लिए उन्होंने बगावत की थी। अशोक गहलोत ने अपनी रणनीति से सिर्फ अपनी सरकार नहीं बचाई, बल्कि सचिन पायलट के नाम के साथ सदा के लिए “बगावती” विशेषण जोड़ दिया।
सचिन पायलट को हटाने के लिए गहलोत ने बड़ा ही कारगर चक्रव्यूह बनाया था। इसकी शुरूआत विधानसभा चुनावों के दौरान हो गई थी और फिर सचिन पायलट इस चक्रव्यूह में फँसते चले गए। उन्हें इस प्रकार से नजरंदाज किया गया कि, वो अपने आत्मसम्मान की रक्षा करने के लिए बगावती रुख अपनाने को मजबूर हो गए। उसके बाद अशोक गहलोत ने गर्म लोहे पर हथौड़ा मार कर उन्हें सभी पदों से हटवाया और अपनी राजनैतिक जीत का ठप्पा लगवा दिया। हालांकि, सचिन पायलट ने वापसी तो कर ली है, लेकिन अब उनका वह स्थान नहीं रहा जो पहले था।
जब सचिन पायलट बगावत के लिए उतरे थे तब अशोक गहलोत ने उन्हें निकम्मा, नाकारा, लोगों को लड़वाने वाला और पार्टी की पीठ पर छुरा घोंपने वाला तक कह दिया था। गहलोत ने पार्टी से विद्रोह का आरोप लगा कर पायलट के समर्थकों की सदयस्ता रद्द करवाई और सचिन पायलट को राजस्थान की राजनीति से बेदखल करने की पूरी प्लानिंग को अंजाम दिया।
सचिन पायलट जिसे आत्मसम्मान की लड़ाई का नाम दे रहे थे, और वापसी के लिए उन्होंने जो तीन शर्तें रखीं थीं, उसमें से उन्हें कुछ भी नहीं मिला। अब न तो उन्हें 2022 में होने वाले विधानसभा चुनावों में मुख्यमंत्री का पद मिलने वाला है और न ही उनके समर्थित विधायकों को कोई फायदा। और न ही कांग्रेस महासचिव और राजस्थान कांग्रेस के प्रभारी अविनाश पांडे को उनके पद से हटाया जाएगा। इनमें से किसी भी शर्त के लिए गहलोत राजी नहीं हुए और सचिन पायलट को खाली हाथ कांग्रेस में आना पड़ा।
सचिन पायलट के पिता राजेश पायलट ने भी कांग्रेस के भीतर बगावत किया था। राजीव गांधी की मृत्यु के बाद उन्होंने पार्टी में अपना कद बढ़ाने की खूब कोशिश की थी। वर्ष 1997 में जब कांग्रेस पार्टी नेतृत्व के संकट से जूझ रही थी तब उन्होंने तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष सीताराम केसरी के खिलाफ चुनाव भी लड़ा था लेकिन वो हार गए। इसी तरह, नवंबर 2000 में जब बागी नेता जितेंद्र प्रसाद ने कांग्रेस अध्यक्ष पद पर सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा तो राजेश पायलट ने जितेंद्र प्रसाद का साथ दिया था। हैरानी की बात यह थी कि, राजीव गांधी की मृत्यु के बाद उन्होंने कई बार बगावत की लेकिन पार्टी नहीं छोड़ी और हमेशा कांग्रेस में बने रहे। आज उनके पुत्र भी लगभग उसी राह पर हैं।
कहने को तो राजस्थान कांग्रेस का यह समझौता अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच सुलह की बात करता है, लेकिन यह समझौता नहीं बल्कि अशोक गहलोत की राजनैतिक जादूगरी की जीत है और सचिन पायलट के लिए करारी हार। अब सचिन पायलट न तो कांग्रेस में उस नजर से देखे जाएंगे जैसे पहले देखे जाते थे और न ही उनकी अब वह हैसियत ही रहने वाली है। राजस्थान में अशोक गहलोत बनाम सचिन पायलट की लड़ाई में पायलट को ऐसी पटखनी मिली है कि, उन्हें फिर से अपनी जमीन वापस पाने में वर्षों लग जाएंगे।