चीन के पास इस समय विश्व की सबसे बड़ी नौसेना है, और वह हिन्द प्रशांत क्षेत्र पर इसी ताकत के बल पर वर्चस्व जमाना चाहता है, जिसपर अभी पेंटागन की एक रिपोर्ट ने भी प्रकाश डाला है। पेंटागन की इसी रिपोर्ट के अनुसार चीन अपने युद्धपोतों की संख्या को अगले एक दशक में डबल करना चाहता है।
अब प्रश्न ये उठता है कि क्या इस समय चीन का पलड़ा भारत और अमेरिका की तुलना में भारी है? बिलकुल भी नहीं, क्योंकि एक विशाल नौसेना होने का अर्थ ये बिलकुल नहीं है कि वह नौसेना उतनी ही शक्तिशाली भी हो। इसका उदाहरण हाल ही में देखने को मिल रहा है, जहां चीन द्वारा कर्ज़ के मायाजाल के जरिए विश्व भर में बन्दरगाह निर्मित करने और उसे युद्ध बेस में परिवर्तित करने की रणनीति अब बुरी तरह फ्लॉप हो रही है।
परंतु इस बात का चीन द्वारा भारत को घेरने से क्या संबंध है? दरअसल, 2017 में चीन ने सर्वप्रथम अफ्रीकी देश जिबूती में एक नौसैनिक बेस निर्मित करवाया था। अमेरिका के प्रभाव को कम करने हेतु अफ्रीका के देशों में नौसैनिक बेस की रणनीतिक सफलता को देखते हुए चीन ने भारत को घेरने के लिए अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक कई देशों में अपने अनुकूल बन्दरगाह निर्मित करने का निर्णय लिया, जिन्हें निर्मित करने का मुख्य उद्देश्य हिन्द महासागर क्षेत्र पर अपना वर्चस्व जमाना था। इन बन्दरगाहों के साथ खास बात यह थी कि यह काफी विशाल थे, पर आर्थिक तौर पर मेजबान देश के लिए किसी बोझ से कम नहीं थे। यही नीति चीन के ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ की नीति के तौर पर प्रसिद्ध हुई।
परंतु वर्तमान परिस्थितियों में पासा पूरी तरह पलट चुका है। कभी चीन के मित्र रहे मालदीव और श्रीलंका ने अब उसके विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है। दोनों देश न केवल चीन के औपनिवेशिक मानसिकता के विरुद्ध, अपितु उन्होंने अपने भरोसेमंद मित्र भारत को खतरे में न डालने का निर्णय भी लिया है। इसके अलावा भारत के पड़ोसी देश म्यांमार ने भी चीन के विरुद्ध संभलकर चलने की नीति अपनाई। ऐसे में अब चीन चाहकर भी इन देशों में अपनी मनमानी नहीं कर सकता, विशेषकर मालदीव और श्रीलंका में, क्योंकि वे दोबारा से वही गलती नहीं दोहराना चाहते।
बांग्लादेश ने भले ही चीन के साथ वर्तमान गतिविधियों में थोड़ी वृद्धि की हो, परंतु वह चीन के साथ मधुर संबंध के लिए भारत से पंगा मोल लेने की भूल नहीं करना चाहता। इसके अलावा भारत के सबसे कट्टर शत्रुओं में से एक पाकिस्तान में भी चीन की योजनाओं पर पानी फेरने के लिए बलूच क्रांतिकारियों ने मोर्चा संभाल लिया है, जो ये कतई नहीं चाहते कि चीन उनकी भूमि को अपनी गतिविधियों के लिए उपयोग में लाये।
परंतु बात यहीं पर खत्म नहीं होती। थायलैंड में चीन द्वारा क्रा के इस्थमस में कैनाल बनाने की नीति पूर्णतया असफल सिद्ध हुई। ऐसे में उनके पास केवल मलक्का स्ट्रेट का मार्ग बचा है, लेकिन यहाँ भी भारतीय नौसेना ने डेरा जमा लिया। पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में चीन की हालत बिलकुल भी ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ पर स्थित देश, जैसे मलेशिया, फिलीपींस, वियतनाम, दक्षिण कोरिया, पापुआ न्यू गिनी और जापान मौजूद हैं, जो चीन के कट्टर विरोधी हैं।
अभी हाल ही में अमेरिका के प्रमुख राजनायिकों में से एक और वर्तमान उप विदेशमंत्री स्टीफेन बीगन ने हाल ही में India US Strategic Partnership Forum के मंच से इस बात पर जोर दिया कि, कैसे हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में एक सशक्त संगठन की आवश्यकता है। बीगन के अनुसार, “इसमें कोई दो राय नहीं है कि, हिन्द प्रशांत क्षेत्र में सशक्त बहुपक्षीय संगठनों की भारी कमी है। यहाँ NATO या यूरोपीय संघ जैसा कुछ भी नहीं है।”
लेकिन बीगन इतने पर ही नहीं रुके। बातों ही बातों में उन्होंने इस बात की ओर संकेत दिया कि, इस समय हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में केवल NATO जैसे संगठन की ही आवश्यकता नहीं है, बल्कि इसे विस्तार देने की भी उतनी ही आवश्यकता है। इसका अर्थ स्पष्ट है- QUAD गुट सिर्फ एक साझेदारी तक ही सीमित नहीं रहेगा, बल्कि NATO की तर्ज पर एक सशक्त संगठन बनेगा। संभव है कि, QUAD का साथ देने के लिए दक्षिण कोरिया और वियतनाम जैसे देश भी इसमें शामिल हो सकते हैं। यदि सब कुछ ठीक रहा, तो आने वाले समय में यही QUAD नाटो की जगह भी ले सकता है।
इसका अर्थ स्पष्ट है – हिन्द प्रशांत क्षेत्र में भी चीन का वर्चस्व कायम नहीं रह पाएगा, और यदि उसे भारतीय नौसेना से भिड़ना है, तो उसे अपने गढ़ से बाहर निकलकर आना होगा। चीनी नौसेना संख्याबल में बड़ी हो सकती है, पर रणनीतिक रूप से भारतीय नौसेना का कोई सानी नहीं है। अब जिस प्रकार से चीन के हाथ से उसके रणनीतिक बन्दरगाह एक एक करके फिसल रहे हैं, उससे एक बात तो पूर्णतया स्पष्ट है कि भले ही चीन के पास सबसे बड़ी नौसेना हो, परंतु ये आवश्यक नहीं कि वही सबसे शक्तिशाली हो।