विस्तारवादी नीति का पालन करने वाले चीन की नज़र अफ्रीका पर शुरू से ही रही है। पिछले कुछ सालों में चीन अफ्रीका को भारी-भरकम 150 बिलियन डॉलर का कर्ज़ दे चुका है, और उसका मकसद यही है कि कैसे भी करके प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इस महाद्वीप को एक उपनिवेश के समान लाचार कर दिया जाये। आज अफ्रीका में केन्या और युगांडा जैसे देशों पर चीन का भारी-भरकम कर्ज़ बकाया है, और कोरोना के कारण आज ये देश दिवालिया होने की स्थिति में पहुँच गए हैं। हालांकि, बड़ा सवाल यह है कि क्या अफ्रीका में चीन का यह भारी “निवेश” चीन के लिए कोई लाभ अर्जित कर रहा है, और शायद इसका उत्तर है- नहीं!
चीन ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए अफ्रीका के कई देशों में स्कूली पाठ्यक्रम में चीनी भाषा (Mandarin) को शामिल कर लिया है। बीते सोमवार को ही इजिप्त ने भी चीनी सरकार के साथ एक MoU पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसके बाद चीनी भाषा को इजिप्त के स्कूलों में वैकल्पिक भाषा के तौर पर शामिल किए जाएगा। इसके अलावा दक्षिण अफ्रीका, युगांडा, तंज़ानिया और कैमरून जैसे देश पहले ही Mandarin को अपने स्कूली सिलेबस में शामिल कर चुके हैं। हालांकि, चीन के लिए सबसे बुरी बात यह है कि आज भी इस महाद्वीप के सिर्फ 2 प्रतिशत लोग ही यह मानते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीनी भाषा का कोई महत्व है। हाल ही के सर्वे में यह बात सामने आई है कि चीनी सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद Mandarin अफ्रीका में लोगों को बिलकुल नहीं भा रही है।
Afrobarometer ने हाल ही में 18 देशों के 2 हज़ार लोगों पर एक सर्वे कर यह परिणाम निकाला है कि अफ्रीका में 70 प्रतिशत लोग English, 14 प्रतिशत लोग French, 4 प्रतिशत लोग Arabic और केवल 2 प्रतिशत लोग Mandarin को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सबसे अहम भाषा मानते हैं। यह चीन की औपनिवेशिक मानसिकता को सबसे बड़ा झटका है। अक्सर देखने में मिला है कि चीन Mandarin को दूसरे देशों पर अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए एक हथियार की तरह इस्तेमाल करता है। इसके माध्यम से चीन दूसरे देश के स्कूली बच्चों से सीधा संपर्क साधने की कोशिश करता है। उदाहरण के लिए चीन नेपाल के स्कूलों में भी Mandarin को वैकल्पिक भाषा के तौर पर शामिल कर चुका है। यहाँ तक कि नेपाल में चीनी भाषा के अध्यापकों को फीस भी चीनी दूतावास द्वारा उपलब्ध कराई जाती है।
चीन का “Mandarin model” अफ्रीका में फेल साबित होता जा रहा है, जो भविष्य में अफ्रीका में चीनी निवेश को “Bad debt” में तब्दील कर सकता है। कोरोना के बाद अफ्रीका के अधिकतर देश पहले ही चीनी कर्ज़ को माफ करवाने की मुहिम शुरू कर चुके हैं। उदाहरण के लिए हाल ही में चीनी कर्ज़ में डूबे हुए ज़ाम्बिया ने चीन से उसका कर्ज़ माफ करने की अपील की। ज़ाम्बिया के राष्ट्रपति ने अपने चीनी समकक्ष के सामने ही बयान देते हुए कहा “चीन की ओर से उनके कर्ज़ को लेकर राहत या कर्ज़-माफी पर विचार करना चाहिए, ताकि लुसाका की अर्थव्यवस्था को बचाया जा सके”। बता दें कि लुसाका पर चीन का करीब 6.7 बिलियन डॉलर का कर्ज़ है, जिसे अदा करने में ज़ाम्बिया विफल साबित हो रहा है। हालांकि, ज़ाम्बिया अकेला ऐसा देश नहीं है, जो चीन के सामने इस प्रकार की अपील लेकर पहुंचा हुआ हो। केन्या पर चीन का 5 बिलियन डॉलर का कर्ज़ है, और केन्या की हालत भी कुछ ठीक नहीं है। इसी प्रकार हाल ही में युगांडा के वित्त मंत्री ने भी चीन से उनके कर्ज़ को लेकर राहत देने का अनुरोध किया था। अब अगर चीन इन देशों का कर्ज़ माफ करने पर मजबूर होता है तो बैठे-बिठाए चीन के अरबों डॉलर मिट्टी में मिल जाएँगे।
गौरतलब है कि पिछले कुछ सालों में चीन के बढ़ते कर्ज़ के बावजूद अफ्रीका में चीन को लेकर सकारात्मक रुख में कमी देखने को मिली है। वर्ष 2014-15 में अफ्रीका के 65 फीसदी लोगों का रुख चीन के प्रति सकारात्मक था, लेकिन अब इसमें 5 प्रतिशत की गिरावट देखने को मिली है। स्पष्ट है कि पैसा देकर या भाषा थोपने के माध्यम से चीन अफ्रीका में अपना कद बढ़ाने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहा है, लेकिन चीन की इस मेहनत का अफ्रीकी लोगों पर कोई असर होता नहीं दिखाई दे रहा है।