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तिब्बत पहले केवल भारत का मुद्दा हुआ करता था, अब जर्मनी समेत 39 देश चीन की क्लास लगा रहे हैं

Abhinav Kumar द्वारा Abhinav Kumar
8 October 2020
in मत
जर्मनी
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चीन का सबसे बड़ा डर अब अचानक सच होने लगा है। दुनिया भर के देशों ने अब तिब्बत पर लगभग सात दशक से कब्ज़ा करने के लिए ड्रैगन को जिम्मेदार ठहराने का फैसला किया है।   सबसे पहले, यह सिर्फ भारत ही था जो तिब्बत पर चीनी कब्ज़े पर कई बार आवाज़ उठा चुका था। उसके बाद फिर, अमेरिका के ट्रंप प्रशासन ने धीरे-धीरे कर तिब्बत के मामले पर संज्ञान लेना शुरू किया और अब, यूरोपीय संघ के सदस्यों सहित कई देशों ने भी तिब्बत के मामले में बोलना शुरू कर दिया है। वास्तव में, जर्मनी, जो कोरोना के शुरू होने के समय बीजिंग के दोस्त की तरह काम कर रहा था, अब उसने, तिब्बत और शिनजियांग में चीनी अधिकारियों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ एक बयान जारी करने के लिए अमेरिका, ब्रिटेन और जापान सहित 39 देशों का नेतृत्व किया है। बयान में हांगकांग में वर्तमान राजनीतिक स्थिति के बारे में भी चिंता व्यक्त की।

Today, 39 countries including Australia delivered a stinging rebuke of the Chinese government’s brutal treatment of Uyghurs, the people of Hong Kong & Tibet, & many ordinary Chinese struggling to have their human rights respected. https://t.co/dpJKTD2ZkT

— Elaine Pearson (@PearsonElaine) October 6, 2020

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चीन भले ही दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी शक्ति हो- लेकिन ड्रैगन के इस ‘शक्ति प्रदर्शन’ के पीछे  नागरिकों के उत्पीड़न की अंतहीन कहानियां छिपी हैं

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जर्मनी के संयुक्त राष्ट्र के राजदूत Christoph Heusgen ने मंगलवार को संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकार पर एक बैठक के दौरान चीन के खिलाफ इस पहल का नेतृत्व किया। Heusgen ने कहा, “हम चीन से मानवाधिकारों, विशेष रूप से शिनजियांग और तिब्बत में धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों से संबंधित लोगों के अधिकारों का सम्मान करने का आह्वान करते हैं।” 

अब तक, केवल भारत और अमेरिका ही तिब्बत में चीनी सरकार के मानवाधिकारों के उल्लंघन की आलोचना कर रहे थे। लेकिन इस बार इटली, फ्रांस, एस्टोनिया, लिथुआनिया और लक्जमबर्ग जैसे यूरोपीय संघ के देशों ने भी तिब्बत को लेकर चीन के खिलाफ सख्त बयान जारी किया है। जर्मनी के नेतृत्व वाली घोषणा पर हस्ताक्षर करने वाले अधिकांश देश यूरोपीय संघ के सदस्य-राष्ट्र थे, इसके अलावा ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कनाडा जैसे अन्य भी इस चीन विरोधी मुहिम में शामिल हुए।

तिब्बत, शिनजियांग और हांगकांग पर जर्मनी की अगुवाई वाली घोषणा से अब बीजिंग को तगड़ा झटका लगा है।  यह घोषणा पत्र दिखाता है कि अब दुनिया तिब्बत को चीन के अवैध कब्ज़े से छुड़ाने के लिए तैयार है, जो स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद दुनिया का दसवाँ सबसे बड़ा देश बन जाएगा।

वास्तव में, चीन पहले से ही मानव अधिकारों के उल्लंघन के मामले पर कई देशों की नाराज़गी झेल रहा है अब तिब्बत का भी मामला उठ चुका है। संयुक्त राष्ट्र में चीन के स्थायी प्रतिनिधि, झांग जून ने कहा कि घोषणा संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों के बीच “टकराव को भड़काने” के उद्देश्य से है।

जून ने कहा, “उन्होंने गलत सूचना और राजनीतिक वायरस फैलाया, चीन को डराने की कोशिश तथा चीन के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किया। चीन दृढ़ता से इसका विरोध करता है और उसे अस्वीकार करता है।”

चीन के प्रतिनिधि का इस प्रकार से स्टैंड लेना दिखाता है कि तिब्बत चीन के लिए एक कमजोर कड़ी है और दुनिया भर में उसके दुश्मन तथा विरोधी निकट भविष्य में इसी मुद्दे पर चीन को घेरना चाहेंगे। वर्ष 1951 में PLA के हमले के बाद चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया था, तब से वह चीनी कब्ज़े में ही है और अभी तक किसी देश ने इतने प्रखर रूप से तिब्बत के लिए आवाज़ नहीं उठाई है। तिब्बत वास्तव में चीन को बहुत कमजोर बनाता है। इससे न केवल चीन इस प्राचीन बौद्ध साम्राज्य को गंवा सकता है, बल्कि दुनिया तिब्बत मुद्दे को उछाल कर चीन को ब्लैकमेल भी कर सकती है।

उदाहरण के लिए जर्मनी को ही ले लीजिए। अब तक, जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल के बीजिंग के साथ अच्छे संबंध थे पर अब ऐसा लग रहा है कि जर्मनी ने भी चीन को डंप करने का फैसला कर लिया है।

मर्केल अब रिटायर होने के कगार पर हैं और वह इतिहास में एक कमजोर नेता के रूप में नहीं जाना चाहती हैं, और इसलिए वह अब चीन के खिलाफ कदम उठा रही हैं। चीन को पटकनी देने का सबसे आसान तरीका तिब्बत में मानवाधिकारों का उल्लंघन था।

मर्केल ने यूरोपीय संघ के नेता होने के नाते, यूरोपीय व्यवसायों के लिए चीनी बाजारों तक पहुंच के मुद्दे पर भी चीन को लताड़ा था। उन्होंने कहा था कि, “यदि कुछ क्षेत्रों में चीन अपने बाजार को नहीं खोलता है तो उसे यूरोप में भी उसी तरह की छूट दी जाएगी।”

चीन मुक्त बाजार प्रथाओं को अपनाने में झिझक रहा और अपने बाजार को पूरी तरह से नहीं खोलना चाहता है जिससे यूरोपीय कंपनियों को चीन में अधिक फायदा हो। परन्तु अब ईयू और मर्केल ने तिब्बत का मुद्दा उठाने का फैसला कर लिया है जिससे चीन की सांसे फुली हुई है। तिब्बत में चीनी सरकार के मानवाधिकारों के उल्लंघन को उठाने से अब चीन बैकफुट पर दिखाई दे रहा है जिसके बाद उससे सौदेबाजी करना मर्केल के लिए आसान हो जाएगा। यहां यह ध्यान रखना होगा कि चीन तिब्बत का मामला सिर्फ सौदेबाजी तक सीमित ना रह जाए बल्कि तिब्बत के लोगों को चीन के चंगुल से छुड़ाया भी जा सके।

 तिब्बत को अपने हाथो से निकल जाने का चीन के लिए सबसे बड़ा डर है, यही कारण है कि चीन के बहिष्कार में यह मामला सबसे अहम हो जाता है। आने वाले समय में तिब्बत में भी हाँग काँग जैसी लोकतंत्र की आवाज़ उठ सकती, क्योंकि अब यह मामला नई दिल्ली और वाशिंगटन से ऊपर पूरे विश्व में गूंजने लगा है।

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