अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में ट्रम्प की हार ने जियो पॉलिटिक्स में भूचाल पैदा कर दिया है। इससे सिर्फ अमेरिका ही नहीं बल्कि विश्व के अन्य देशों के आपसी समीकरण में भी अनिश्चितता दिखाई देने लगे हैं। बाइडन के अमेरिका के राष्ट्रपति बनने की स्थिति में कई देशों के सामने नई चुनौतियां आने वाली हैं, जिसमें सबसे पहला नाम रूस का है। डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने कार्यकाल में चीन के ऊपर ध्यान केंद्रित किया जिससे रूस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अधिक दबाव का सामना नहीं करना पड़ा। परन्तु अब, डेमोक्रेट्स के रूस-विरोधी पूर्वाग्रह के साथ, रूस का सामना एक ऐसे अमेरिकी राष्ट्रपति से होगा जो चीन के बजाए रूस को सबक सिखाने में अधिक रुचि रखता है।
अगर संभावनाओं पर नजर डाली जाए तो बाइडेन रूस पर दबाव बनाने के लिए NATO सहयोगियों तथा यूरोपीय संघ और जर्मनी के साथ हाथ मिला सकते हैं।
इसलिए, मॉस्को अब अपने पारंपरिक सहयोगी भारत और नए साथी जापान के साथ रिश्तों को मजबूत करने की दिशा में कदम उठा सकता है ताकि अमेरिका भी रूस पर कार्रवाई से पहले इन दोनों देशों से संबंध के बारे में विचार करे। यह सर्वविदित है कि पुतिन के मन में चीन के लिए कोई प्यार नहीं है, भले ही मास्को बीजिंग के साथ एक तथाकथित “रणनीतिक” विचारधारा साझा करता है लेकिन रूस चीन के साथ खुलकर आना नहीं चाहता है।
हालात तो यह थे कि चीन के खिलाफ ट्रम्प के पावरप्ले पर पुतिन ने कुछ नहीं बोला। वास्तव में देखा जाए तो चीन के खिलाफ दबाव बनाकर डोनाल्ड ट्रंप पुतिन के लिए राहें आसान बना रहे थे।
लेकिन बाइडन अलग हैं। अपने राष्ट्रपति चुनाव अभियान के दौरान, बाइडन ने रूस को अमेरिका के लिए सबसे बड़ा सुरक्षा खतरा बताया और चीन को केवल “गंभीर प्रतियोगी” कहा था, इसलिए पुतिन को व्हाइट हाउस से अब उतना सहयोग ना मिले जितना उन्हें पहले मिल रहा था।
मौजूदा जियो पॉलिटिक्स में कुछ स्वीकार्यता हासिल करने के लिए पुतिन को उन प्रमुख अमेरिकी सहयोगियों के साथ रिश्तों को नई ऊंचाई देनी होगी जो चीन के भी प्रखर विरोधी हो।
ऐसे में क्रेमलिन के सामने दो एशियाई दिग्गजों का विकल्प बचता है यानी भारत और जापान के साथ सहयोग को बढ़ाने की।
भारत, निश्चित रूप से रूस के सहयोगियों में सबसे करीबी और भरोसेमंद है। भारत और अमेरिका भले ही सबसे अच्छे दोस्त बन गए हों, लेकिन नई दिल्ली ने मास्को को कभी पीछे नहीं छोड़ा। रूस भारत पर भरोसा कर सकता है। यही नहीं, ट्रम्प के बाद के युग में दुनिया के सबसे बड़े चीन विरोधी नेता के रूप में पीएम मोदी को ही जाना जाता है।
स्वतंत्रता के बाद से इतिहास देखा जाए तो कोई भी ऐसा देश चीन से उतनी नफरत नहीं करता जितना भारत करता है। भारत एकमात्र ऐसा देश है, जिसने इस वर्ष की शुरुआत में चीन के हमले का सामना किया।
भारत रूस का राजनीतिक, सैन्य, आर्थिक और राजनयिक सहयोगी है। भारत के करीब आने से, पुतिन कई समस्याओं को हल कर सकते हैं जिनमें अत्याधुनिक रक्षा प्रौद्योगिकी के Intellectual Property चोरी होने से बचाना शामिल है। भारत रूसी हथियारों का एक प्रमुख आयातक है और इस प्रकार मास्को अपने रक्षा उपकरणों की बिक्री भारत को कर सकता है।
मॉस्को नई दिल्ली के जितना करीब होगा उतना ही टोक्यो भी पास आएगा। उदाहरण के लिए, हाल ही में यह खबर आयी थी कि भारत और रूस जापान के साथ त्रिपक्षीय ट्रैक-2 की संभावना पर विचार कर रहे हैं। चीनी विस्तारवाद के खिलाफ वैश्विक नाराजगी और बाइडन के उदय के संदर्भ में टोक्यो बहुत महत्वपूर्ण शक्ति बनने जा रहा है। जापान ने दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया, मध्य पूर्व और अफ्रीका में उचित विकास परियोजनाओं के माध्यम से चीनी ऋण निवेश और शी जिनपिंग के प्रमुख बेल्ट और रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) का मुकाबला करने की क्षमता दिखाई है।
जैसा कि जापान के रूस संबंधों की बात करे तो पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे पुराने विवादों का जल्द से जल्द निपटारा कर मॉस्को से शांति के लिए उत्सुक थे। हालांकि, आबे को रूस के साथ शांति बनाने के सपने को साकार करने से पहले स्वास्थ्य कारणों से पद छोड़ना पड़ा।
अब, सुगा जापान के प्रधानमंत्री हैं और उनके द्वारा रूस के साथ शांति संधि को आगे बढ़ाने की उम्मीद है। जापान और भारत रूस के साथ हाथ मिला कर बड़े पैमाने पर रूस के सुदूर पूर्व में निवेश करने के लिए अवसर भी देख सकते हैं, जहां चीन नजर गड़ाए बैठा है।
यदि पुतिन और सुगा साथ आ जाते हैं यह निश्चित रूप से चीन के खिलाफ एंडगेम होगा। रूस-जापान शांति समझौते से रूस में जापानी निवेश का दरवाजा खुल जाएगा, जिससे चीन पर मॉस्को की निर्भरता कम हो जाएगी। इसीलिए, आज के बदलते परिवेश में रूस का भारत और जापान के करीब आना सबसे बेहतर विकल्प है।
इससे मास्को QUAD और अंततः अमेरिका के करीब भी आएगा। बदलते संभावनाओं के इस दौर में रूस के राष्ट्रपति इस मौके को हाथ से जाने नहीं देंगे और यह चीन के लिए खतरे की घंटी है।