कमंडल की राजनीति के धुर विरोधी और मंडल राजनीति की धुरी लालू प्रसाद यादव के सुर अब बदलने लगे हैं। रथ-यात्रा से लेकर मोदी के विजयी रथ को रोकने की कोशिश करने वाले लालू की तल्खी अब थोड़ी हल्की हो गई है। भाजपा और आरएसएस के विचारों के कट्टर आलोचक लालू अब सिर्फ कुछ ही मुद्दों पर बोलते हैं। चारा घोटाला मामले में जमानत पर छूटने के बाद लालू यादव दिल्ली में रह रहे हैं, लेकिन राजनीतिक गलियारों मे इस बात को लेकर गहमागहमी तेज़ है कि आखिर लालू शांत क्यों हैं?
वो बीजेपी और आरएसएस के विचारों से सीधे क्यों नहीं भिड़ रहें हैं? क्या वो बीजेपी-आरएसएस के मजबूत कैडर से टकराना नहीं चाहते? पूरा विपक्ष मोदी सरकार के खिलाफ़ एकजुट होने की कवायद में लगा हुआ है। जहां एक तरफ विपक्ष किसान आंदोलन, नागरिकता कानून, पेगासस समेत कई मुद्दों को लेकर हमलावर है, वहीं दूसरी ओर लालू हर कदम फूँक-फूँक कर उठा रहे हैं। इन सभी सवालों का जवाब लालू के स्वास्थ्य, परिवार और उनकी राजनीतिक स्थिति पर टिका हुआ है।
लालू के नरमी के पाँच कारण
लालू एक समय राष्ट्रीय राजनीति के सबसे महत्वपूर्ण और सक्रिय नेता थे। बीते दिनों में उनकी प्रासंगिकता और सक्रियता में आश्चर्यजनक कमी आई है। बीजेपी पर हमेशा से हमलावर रहे लालू अब न तो हमला कर रहे हैं और न ही किसी अन्य राजनीतिक पार्टी के साथ मिलकर BJP को रोकने की कोशिश कर रहे हैं। चारा घोटाला मामले में जमानत पर छूटने के बाद मुलायम से लेकर शरद यादव तक सभी ने उनसे मुलाक़ात की है लेकिन ये शिष्टाचार भेंट है या कोई राजनीतिक रणनीति ये कहना अभी मुश्किल है। वैसे भी इन नेताओं की राजनीतिक प्रासंगिकता भी अब एक सवाल है। लालू द्वारा इसे मात्र एक शिष्टाचार भेंट बताया गया है, परंतु राजनीतिक हल्कों में कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं, जिनका अपना आधार है।
तख़्त के लिए गृह युद्ध रोकने की ज़िम्मेदारी
यह बात जगज़ाहिर है कि लालू के दोनों बेटों के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। लालू की विरासत का उत्तराधिकार छोटे बेटे तेजस्वी को मिलने से बड़े सुपुत्र तेजप्रताप में असंतोष की भावना है। महागठबंधन की सरकार में भी तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री का पद मिला और बड़े बेटे को स्वास्थय मंत्रालय। कई मौकों पर तेजप्रताप पार्टी में नंबर 1 होने का दावा कर चुके हैं और अपने भाई पर पार्टी को कब्ज़ाने का आरोप भी लगा चुके हैं। ऐसा लगता है कि सरकार और संघ के विचारों के प्रति मुखर होने से पहले लालू पहले अपने घर के अंदर शांति और सुलह करना चाहते हैं। लालू को पता है कि अगर इस मामले का जल्द से जल्द निवारण नहीं हुआ तो बीजेपी भाइयों मे फूट डालकर पार्टी मे टूट करा सकती है।
लालू का स्वास्थ्य
चारा घोटाले के आखिरी मामले (जिसमें दुमका ट्रेजरी से अवैध रूप से पैसे निकाले गए थे) में भी लालू को आधी सज़ा पूरी करने के आधार पर जमानत मिल चुकी है। अपने कारावास का अधिकांश समय RIMS और एम्स मे गुजारने वाले लालू का स्वास्थ्य इस समय अच्छा नहीं है। स्वास्थ्य कारणों से भी राजनीति मे उनकी सक्रियता कमजोर हुई है। शायद यही वजह है कि अब वह बीजेपी पर न तो हमला बोल रहे हैं और न ही उनकी कोई योजना दिखाई दे रही है।
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हिन्दुत्व की राजनीति और ओवैसी का उदय
लालू राजनीति के सबसे चतुर खिलाड़ियों में से हैं। वो हवाओं का रूख समझते हैं। उन्हें इस बात का पूर्णतः ज्ञान है कि राष्ट्रीय राजनीति तुष्टीकरण से ध्रुवीकरण की तरफ उन्मुख हुई है। जातिवाद के खाल में लिपटे सामाजिक न्याय और समानता के आदर्श हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की राजनीति के आगे टिक नहीं पाएगी। ऊपर से बिहार विधानसभा चुनाव में 5 सीटें जीतना ओवैसी के उदय और मुस्लिम वोट बैंक का उनकी तरफ खिसकने का सूचक है। लालू को पता है कि अब सिर्फ यादव वोट समेटकर उन्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला है। यही कारण है कि अब वह राष्ट्रवाद की राजनीति के सामने नतमस्तक दिखाई दे रहे हैं और मौन धारण कर चुके हैं।
नीतीश नहीं हैं भरोसेमंद
नीतीश कुमार का त्वरित पाला बदलने की नीति, पार्टी मे उनके कम होते वर्चस्व और आरसीपी सिंह के उदय से लालू उनके साथ जाने को लेकर भी शंका में हैं। हालांकि नीतीश के साथ दोस्ती से उनको कोई फायदा नहीं है परंतु फिर भी इस बात पर गौर करना आवश्यक है। नीतीश मुख्यमंत्री पद पर अपना दावा नहीं छोड़ने वाले हैं और जितनी सीटें उनके पास हैं उनको गद्दी पर बैठने देना लालू की लाचारी का प्रतीक होगा। नीतीश से इतर लालू ने एलजेपी के अंदर मचे संघर्ष में पशुपति नाथ पारस के बदले चिराग पासवान का समर्थन कर दिया है। लालू चिराग को समर्थन देकर बीजेपी के साथ रहने की उनकी लाचारी को खत्म करने के अलावा पार्टी के ‘’सोशल इंजीनियरिंग’’ को भी दुरुस्त करना चाहते हैं। इसी वजह से उनके पास बीजेपी के अलावा कोई और चारा नहीं है तथा उन्होंने चुप्पी साध रखी है।
कमज़ोर काँग्रेस
आज से पहले काँग्रेस इतनी कमजोर कभी नहीं थी, अगर आगे की संभावना भी देखी जाए तो उसके सत्ता में आने का सवाल न्यून है। लालू यादव कांग्रेस के साथ मिलकर उतने ही कमजोर रहेंगे जितने पहले थे। कांग्रेस के साथ जाकर भी कोई विशेष लाभ नहीं होने वाला है। ऐसे में कमजोर विकल्प बन कर भाजपा पर हमला करना अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के बराबर होगा।
लालू राजनीति के दावपेंच को समझते हैं शायद इसीलिए वे चुप हैं। वो इस बात को समझते हैं कि भाजपा के साथ-साथ ओवैसी का उदय उनके जनाधार को ही समाप्त कर चुका है। अगर उन्होंने अपने दांव सही से नहीं चले तो कमंडल की राजनीति के आगे उनकी मंडल की राजनीति अप्रासंगिक हो जाएगी।