JNU फिर विवादों के केंद्र में है औए इसबार विवाद का कारण JNU के सेंटर फॉर वीमेन स्टडीज द्वारा आयोजित एक वेबिनार है, जिसका शीर्षक Indian occupation in Kashmir था। वेबिनार में इस बात पर चर्चा होनी थी कि भारत ने किस प्रकार से कश्मीर को अपने कब्जे में रखा है। हालांकि, वेबिनार की सूचना मिलते ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के छात्रों ने अपना विरोध दर्ज कराया। विरोध बढ़ता देख वेबिनार को शुरू होने से पहले ही जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रशासन द्वारा स्थगित कर दिया गया।
हालांकि, विद्यार्थी परिषद ने अपना विरोध जारी रखा और आयोजकों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की मांग की है। 29 अक्टूबर को आयोजित वेबिनार के माध्यम से पाकिस्तानी और चीनी प्रोपोगेंडा चलाए जाने की योजना थी। हालांकि, अब जेएनयू के वाइस चांसलर ने इस वेबीनार की आलोचना करते हुए जांच के आदेश दिए हैं।
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किंतु बड़ा प्रश्न यह है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में ऐसे प्राध्यापक क्यों पढ़ाते हैं जो भोले भाले छात्रों के मन में देश विरोधी भावनाओं को भड़काते हैं। जेएनयू की महिला प्रोफेसर निवेदिता मेनन ने भी इसी प्रकार के विवादित बयान दिए थे। 2016 में पूर्व जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने कहा था कि भारतीय फौज कश्मीरी महिलाओं का बलात्कार करती है। हालांकि, यह बात अलग है कि ना तो कन्हैया के पास उस समय अपनी बातचीत करने के लिए तथ्य और तर्क थे ना आज हैं, ना आगे कभी होंगे। लेकिन JNU में बिना तथ्य और तर्क के ही पाकिस्तानी प्रोपेगेंडा जोर शोर से चलाया जा रहा है।
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जेएनयू में आज जो कुछ हो रहा है, उस संदर्भ में 25 वर्षों पूर्व ही जेएनयू के एक प्राध्यापक ने प्रशासन को चेताया था। 1996 में जर्मन भाषा विभाग में प्राध्यापक बादल घन चक्रवर्ती ने रजिस्ट्रार को लिखे पत्र में विश्वविद्यालय में बढ़ रही भारत विरोधी गतिविधियों की जानकारी दी थी। उन्होंने तभी कहा था कि घाटी से गैर हिन्दुओं के पलायन के बाद, JNU में सक्रिय पाकिस्तानी एजेंट बहुत उत्साहित हैं और पाकिस्तान में कश्मीर के पूर्ण विलय के लिए अपना जहरीला अभियान तेज कर रहे हैं।
दरअसल, 1991 में जब कश्मीरी हिंदुओं का नरसंहार शुरू हुआ तो पूरे देश में कश्मीरी मुसलमानों और पाकिस्तान के विरुद्ध आक्रोश व्याप्त होने लगा। यह वही समय था जब राम मंदिर आंदोलन बहुत तेजी से फैल रहा था और हिन्दू प्रतिरोध की राजनीति का विस्तार हो रहा था। ऐसे समय में वामपंथियों ने हिंदुत्व के विस्तार को रोकने के लिए JNU को अपना गढ़ बनाया। साथ ही कश्मीर के संदर्भ में लागू आर्टिकल 370 को समाप्त करके आतंकियों का दमन करने की भावना पूरे देश में उमड़ रही थी, उसे रोकने के लिए भी JNU वैचारिक केंद्र बना था।
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दुर्भाग्य से उस समय सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया जिसका नतीजा यह है कि आज देश की राजधानी में ऐसे विषाक्त विचारकों का बड़ा जमघट बन चुका है जो देश के केंद्र, दिल्ली में बैठकर भारत विरोधी अभियान चलाते हैं। जिस प्रकार पृथ्वी पर पाकिस्तान का अस्तित्व जब तक मौजूद है, आतंकवाद समाप्त नहीं होगा, उसी प्रकार ऐसा लगता है कि जब तक JNU का अस्तित्व है, तब तक भारत की भूमि पर ही चलने वाला भारत विरोधी प्रोपोगेंडा भी समाप्त नहीं होने वाला। केंद्र सरकार को जेएनयू के प्राध्यापकों के प्रदर्शन और चरित्र के आधार पर मेरिट लिस्ट तैयार करनी चाहिए, उस लिस्ट के आधार पर उन्हें अन्य विश्वविद्यालयों अथवा कॉलेज में बहाली देनी चाहिए। जो पूर्णतः देशविरोधी हैं उन्हें बर्खास्त कर देना चाहिए। विद्यार्थियों को दूसरे विश्वविद्यालयों में दाखिला दिलवाकर, जहाँ उन्हें अपना बचा कोर्स समाप्त करने की छूट मिले, JNU से हटा देना चाहिए। इसके बाद JNU को कुछ वर्षों के लिए बन्द कर देना चाहिए। तब शायद वामपंथ का वैचारिक संक्रमण कुछ हद तक कम हो सके।