जो नहीं होना चाहिए था, वो हो गया। सबकी आंखों के समक्ष उनके प्रिय नेता पर कुछ नीच, निकृष्ट अंग्रेज़ और उनके चाटुकार एक के बाद लाठी बरसाते रहे, लेकिन रक्त से लथपथ वह वीर अपने मार्ग पर अडिग रहा। गंभीर रूप से घायल होने के बाद भी वह ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध अपने विचारों से अडिग नहीं हुआ और उन्होंने कहा, “आज मैं घोषणा करता हूं कि यह कदम ब्रिटिश राजशाही को बहुत महंगा पड़ेगा। मुझ पर बरसाई गई एक-एक लाठी, इस सरकार के ताबूत में एक-एक कील की तरह साबित होगी!” ये कोई और नहीं वही ‘पंजाब केसरी’ लाला लाजपत राय अग्रवाल थे, जिनके बलिदान ने स्वतंत्रता आंदोलन का पूरा रुख ही बदल दिया।
लाला लाजपत राय के ये शब्द व्यर्थ नहीं गए, क्योंकि जिस दिन उन पर ये कायराना वार हुआ, उसी दिन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई राह, एक नई पहचान मिल गई। मोहनदास करमचंद गांधी ने ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ के नाम पर केवल श्रेय लूटा है, जबकि देश को स्वतंत्र कराने के लिए युद्धस्तर पर कार्य 1928 से ही प्रारंभ हुआ और दुर्भाग्यवश इसका मूल स्त्रोत लाला लाजपत राय पर हुआ वही घातक प्रहार था, जिसके बाद कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा।
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दयानंद सरस्वती के विचारों से थे प्रभावित
लेकिन लाला लाजपत राय पर लाठियां क्यों बरसाई गई और उन पर लाठियां बरसाने से भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को नवजीवन कैसे मिल गया? इसके लिए हमें लाला लाजपत राय के जीवन पर भी संक्षिप्त प्रकाश डालना होगा। लाला लाजपत राय अग्रवाल का जन्म 28 जनवरी 1865 को लुधियाना जिले के धुड्डीके ग्राम में मुंशी राधाकृष्ण अग्रवाल और उनकी पत्नी गुलाब देवी के घर में हुआ था। राधा कृष्ण अग्रवाल पेशे से सरकारी विद्यालय में अध्यापक थे और उर्दू एवं फारसी में शिक्षा-दीक्षा देते थे। लालाजी ने अपना बचपन जगरांव नामक स्थान पर बिताया।
प्रारंभिक शिक्षा रेवाड़ी से लेने के बाद लाला लाजपत राय ने मात्र 15 वर्ष की आयु में लाहौर गवर्नमेंट कॉलेज में प्रवेश लिया, ताकि वह विधि [Law] के कोर्स में स्नातक कर सके। यहां उनकी मित्रता लाला हंसराज और पंडित गुरु दत्त जैसे समाज सुधारकों से हुई। लाला लाजपत राय, स्वामी दयानंद सरस्वती के विचारों से काफी प्रभावित थे एवं सनातन धर्म की महिमा का प्रचार प्रसार करने पर खूब ज़ोर देते थे।
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कांग्रेस की नरम नीतियों से नहीं थे सहमत
परंतु लाला लाजपत राय केवल एक प्रखर अधिवक्ता एवं एक ओजस्वी वक्ता ही नहीं थे, अपितु एक समाज सुधारक एवं दूरदृष्टि से परिपूर्ण उद्योगपति भी थे। वे भलि-भांति परिचित थे कि बिना सशक्त समाज और बिना वित्तीय शक्ति के कोई भी समाज या राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र का सामना नहीं कर सकता। इसीलिए उन्होंने पंजाब क्षेत्र में कई स्कूल, कॉलेज इत्यादि खुलवाए और उन्हीं की कृपा से स्थापित पंजाब नेशनल बैंक आज देश के सबसे चर्चित बैंकों में से एक है, जो आज भी सेवा में है।
लाला लाजपत राय एक आक्रामक राजनीतिज्ञ भी थे, जो कांग्रेस की नरम नीतियों से पूर्णतया सहमत नहीं थे। वे क्रांतिकारियों को समर्थन भी देते थे और वे जानते थे कि बिना रक्त बहाए, बिना संघर्ष किए देश को स्वतंत्रता नहीं मिलेगी। लाला लाजपत राय ने 1920 के उस ऐतिहासिक कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता भी की थी, जहां से असहयोग आंदोलन की नींव पड़ी थी। लेकिन 1928 आते-आते लालाजी के विचार काफी बदल चुके थे। उन्हें कांग्रेस के तरीकों में कोई विश्वास नहीं रहा और उन्होंने अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो और शासन करो’ से भी सतर्क रहने को कहा, परंतु वामपंथियों ने इन्हें विभाजनकारी नेता सिद्ध करने का प्रयास किया। लेकिन साइमन कमीशन के आगमन ने पूरा खेल ही बदल दिया।
साइमन कमीशन का किया था जमकर विरोध
सन् 1920 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट में ‘सुधार’ हेतु ब्रिटिश सरकार ने सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में एक कमीशन गठित की थी। परंतु ये कमीशन एक छलावा था, क्योंकि इसमें एक भी भारतीय नहीं था। चूंकि साइमन कमीशन की पहली बैठक लाहौर में होनी थी, इसलिए 30 अक्टूबर 1928 को वह लाहौर रेलवे स्टेशन पहुंचा, जहां पर आजादी के मतवालों ने उसका अनोखा स्वागत किया। हर तरफ काले झंडे लगे हुए थे और एक विशाल भीड़ का नेतृत्व करते हुए लाला लाजपत राय ने हुंकार भरी ‘साइमन वापस जाओ!’ [Simon Go Back!]
ये भीड़ लाला लाजपत राय के वक्तव्य और उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर इकट्ठा हुई थी, इसमें हर तबके के लोग जुड़े हुए थे। ऐसी एकता और कहां मिलेगी कि एक राष्ट्रवादी नेता के आह्वान पर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के क्रांतिकारी तक आंख मूंदकर लालाजी के समर्थन में सामने आए।
साइमन कमीशन का इतना भारी विरोध देखकर ब्रिटिश शासन बौखला गया और तत्कालीन ब्रिटिश सुपरिटेंडेंट जेम्स ए स्कॉट और उसके सहायक एएसपी जॉन पी सॉन्डर्स ने लाठीचार्ज के आदेश दिए। परंतु लालाजी टस से मस नहीं हुए। अंतत: क्रोध में चूर स्कॉट ने सॉन्डर्स और कई अन्य अफसरों के साथ मिलकर लालाजी पर तब तक ताबड़तोड़ लाठियां बरसाई, जब तक वो रक्त से लथपथ होकर नीचे नहीं गिर पड़ें।
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लाला लाजपत राय अपने घावों से उबर नहीं पाए और 17 नवंबर 1928 को उन्होंने अंतिम सांस ली। लेकिन उनके बलिदान ने देश में क्रांति की ऐसी ज्वाला भड़काई कि कोई भी शांत नहीं रह पाया। इस वीभत्स दुष्कृत्य का साक्षी एक व्यक्ति और भी था, जो लालाजी पर ये वार सह नहीं पाया और उन्होंने प्रतिशोध लेने की ठानी। यहीं से भगत सिंह का उदय हुआ और उन्होंने वास्तव में लालाजी के शब्दों को सार्थक कर दिया, क्योंकि उस दिन के बाद भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पहले जैसा कभी नहीं रहा।