किसी भी देश में कृषि वहां की भगौलिक स्थिति पर निर्भर करती है। बात चाहे चीन, यूरोप और भारत की हो, सभी देशों में मुख्यतः उन्हीं फसलों की अधिकता है, जो वहां के वातावरण के अनुसार हैं। भारत एक कृषि प्रधान देश है इसलिए फसलों की अधिकता के कारण देश की अर्थव्यवस्था से लेकर आजीविका तक कृषि पर आश्रित है। हालांकि, जब देश में हरित क्रांति आई थी तब से लेकर आज तक कई चीजों में बदलाव हुआ और साथ ही कृषि स्वभाव में भी बदलाव हुआ है।
सबसे बड़ा बदलाव देखने को मिला पंजाब और उसके आसपास के क्षेत्र में। वर्ष 1960-61 में धान केवल 4.8% फसल क्षेत्र में उगाया जाता था। वहीं, वर्ष 2018-19 में इसे लगभग 39.6% फसली क्षेत्र में उगाया जाता था। पंजाब भारत का चौथा सबसे बड़ा चावल उत्पादक राज्य है। दरअसल, वर्ष 2014-2015 राज्य में 11.25 मिलियन टन चावल का उत्पादन हुआ था। इस राज्य में खपत तो गेंहू की अधिक होती है लेकिन इन्होंने चावल उगाने पर ध्यान दिया और इस बदलाव का परिणाम यह हुआ कि आज ये राज्य पानी की कमी के कारण रेगिस्तान बनने के मुहाने पर खड़ा है। ऐसे में, पंजाब को रेगिस्तान बनने से पहले चावल की खेती को बंद करना होगा।
पंजाब को चावल नहीं उगाना चाहिए!
बता दें कि जब भी खेती की बात आती है, पंजाब का नाम सबसे पहले लिया जाता है, चाहे वह उसके उत्पादन के लिए या खेती के तौर तरीकों के लिए हो। इसे देखते हुए तत्काल आधार पर राज्य में चावल की फसल को बंद करने की जरूरत है। देखा जाए तो पंजाब में चावल की आवश्यकता ही नहीं है। पंजाब में पानी की कमी के बावजूद चावल की खेती पर ही ज़ोर दिया जाता है, जिसे तुरंत ही बंद किया जाना चाहिए और अन्य मोटे फसल की खेती की ओर मुड़ना चाहिए।
पंजाब का जल स्तर गिरता जा रहा है और मिट्टी की सेहत भी खराब हो रही है। पंजाब के राजनेताओं और किसानों को अब खुद से पूछना चाहिए: कब तक हम अपनी कब्र खोदते रहेंगे? पंजाब में चावल न उगाने के कई कारण हैं। इसमें से पांच प्रमुख कारण आहार संबंधी आदतें, परिवहन, प्रदूषण और पानी की कमी तथा अनया राज्यों के अवसर को छीनना है। आज हम इन्हीं पांच कारणों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
आहार-विहार
जब भी पंजाब में खाने की बात आती है, तो वहां का प्रमुख भोजन गेहूं आधारित होता है न कि चावल आधारित। पंजाब में चावल लोग तभी खाते हैं जब स्पेशल “राजमा चावल” या “कड़ी चावल” खाया जाता है। एतिहासिक रूप से इसका मुख्य कारण वहां का वातावरण है। चावल मुख्यतः भारत के पूर्वी क्षेत्र में खाया जाता है, जहां पानी की अधिकता है। उत्तर भारत में उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार, झारखंड और फिर पूर्वी क्षेत्र में पश्चिम बंगाल असम और फिर पूरा पूर्वोतर भारत के लिए चावल एक मुख्य भोजन है।
दक्षिण भारत में भी हम सभी जानते हैं कि मुख्य भोजन चावल आधारित ही होते हैं। इसका मुख्य कारण इस क्षेत्र में पानी की अधिकता और अनुकूल मॉनसून है। चावल की खेती के लिए खेतों में घुटने तक पानी की आवश्यकता होती है और इन सभी क्षेत्रों में पानी की कोई कमी नहीं है। वहीं पंजाब की स्थिति देखी जाए तो इस क्षेत्र का मुख्य भोजन गेंहु आधारित होते हुए भी इन क्षेत्रों में चावल की खेती पर ही ध्यान दिया जाता है। ऐसे में यही सवाल उठता है कि क्या पंजाब के किसानों को चावल उगाकर अपनी जमीन को नष्ट करने का कोई अर्थ है, जबकि चावल की मांग पंजाब में हैं ही नहीं।
चावल उगाने से राज्य को अनावश्यक परिवहन खर्च करना पड़ता है..
विवेक कौल की पुस्तक India’s Big Government The Intrusive State and How It’s Hurting Us के अनुसार 2014-2015 में पंजाब ने 11.25 मिलियन टन चावल का उत्पादन किया, जिसमें से 11.19 मिलियन टन चावल तो सरप्लस रहा। इसमें से 8.15 मिलियन टन चावल FCI और अन्य राज्य खरीद एजेंसियों द्वारा अधिग्रहित किया गया था। यह उस वर्ष किसी भी राज्य से सरकार को प्राप्त चावल की सबसे अधिक मात्रा है।
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चावल उगाने से राज्य को अनावश्यक परिवहन पर खर्च करना पड़ता है। इससे ईंधन की बर्बादी होती है। अगर पंजाब के लोग चावल के स्थान पर कुछ अन्य अनाज उगाएं तो कई गुना ईंधन बचाया जा सकता है। भारत को ईंधन आयात के लिए अपने विदेशी मुद्रा भंडार का एक बड़ा हिस्सा खर्च करना पड़ता है। अगर पंजाब के किसान धान की खेती न करें, तो भारत के आयात खर्च को कम कर कई गुना विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाया जा सकता है। यही अन्य राज्यों को भी करना चाहिए जिससे ईंधन की बचत हो सके।
जल की गंभीर कमी
आदर्श रूप से पंजाब जैसे राज्य में भूजल 50 से 60 फीट की गहराई पर उपलब्ध होना चाहिए, लेकिन अंदाजा लगाइए कि इस राज्य में एक नल लगाने के लिए कितनी खुदाई करनी होगी। 200-300 फीट! और ऐसा क्यों? क्योंकि पंजाब में, धान की खेती के लिए भूजल का अंधाधुंध उपयोग किया जाता है, जो कि देश के पश्चिमी भाग के लिए प्राकृतिक फसल हैं ही नहीं। पहले की सरकारों ने जब चावल पर MSP देना शुरू किया, तो यह दालों और सब्जियों की तुलना में एक लाभकारी फसल बन गई।
इसके बाद तो पंजाब जैसे राज्यों के किसानों ने अंधाधुंध ट्यूबवेल लगाए और आज राज्य के लगभग हर बड़े किसान के पास चार से पांच ट्यूबवेल हैं। यही नहीं, पंजाब एक अर्ध-शुष्क क्षेत्र में होने के बावजूद जितना चावल का उत्पादन करने में सक्षम है, क्योंकि बिजली मुफ्त है। नहरों के अलावा भूजल की इतनी बर्बादी हुई कि आज यह क्षेत्र रेगिस्तान में परिवर्तित होने के मुहाने पर खड़ा है।
भूजल के अंधाधुंध उपयोग से जल स्तर कम होने लगा और आज यह लगभग 300 फीट तक पहुंच गया है। पिछले दो दशकों में, पंजाब में भूजल स्तर 25-30 सेंटीमीटर प्रति वर्ष की दर से गिर रहा है। अब पंजाब के लोगों को स्वयं सोचना चाहिए कि जल स्तर में कमी का एक मात्र कारण उनके द्वारा चावल की अत्यधिक खेती के लिए भूजल का अनावश्यक दोहन है।
प्रदूषण
जिसने भी धान की खेती की होगी या जिन्होंने देखा होगा उन्हें यह पता होगा कि धान एक ऐसा फसल जिससे चावल निकालने के बाद सबसे अधिक अनुपयोगी तत्व निकलते हैं। आज जिसे पारली कहते हैं वह भी उसी का हिस्सा है। हर साल, दिल्ली-एनसीआर अक्टूबर और नवंबर के समय गैस चैंबर में बदल जाता है। इसका एक मात्र कारण पंजाब और हरियाणा के किसानों द्वारा की जाने वाली चावल की खेती है जिससे निकले पराली को वे जलाते हैं। चावल की खेती अपने पीछे बहुत सारा कृषि अपशिष्ट छोड़ जाती है, जिसे पराली के रूप में जलाया जाता है। अगर पंजाब में चावल की खेती होगी ही नहीं तो होने वाले प्रदूषण पर भी लगाम लगेगा और लोगों को हवा में घुले जहर से बचाया जा सकेगा।
पानी बर्बाद करना
पंजाब में चावल की खेती के दो ही आधार हैं। पहला भूजल और दूसरा नहरों से मिलने वाला पानी। जब पंजाब को चावल की आवश्यकता ही नहीं है फिर भी वहां के किसान अगर खेती कर रहे हैं, तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि वे भूजल और नहरों के पानी को बर्बाद कर रहे हैं। जो पानी हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान और अन्य राज्यों द्वारा इस्तेमाल किया जा सकता है, उसे पंजाब में एक ऐसे फसल उगाने में बर्बाद कर रहा है जो वहां के वातावरण के अनुरूप हैं ही नहीं।
विवेक कौल की पुस्तक India’s Big Government The Intrusive State and How It’s Hurting Us के अनुसार यदि पानी की खपत को प्रति किलोग्राम चावल के संदर्भ में मापा जाता है, तो एक किलो चावल के उत्पादन में पंजाब सबसे अधिक पानी का उपयोग करता है। दूसरे राज्यों को देखा जाए तो एक किलो चावल का उत्पादन करने में पश्चिम बंगाल 2,169 लीटर की खपत करता है, इसके बाद असम (2,432 लीटर) और कर्नाटक (2,635 लीटर) का स्थान आता है।
अन्य राज्यों से अवसर छीनना
देखा जाए तो पंजाब द्वारा की जा रही धान की खेती वास्तव में, यह दूसरे राज्यों के लोगों से अवसर छीनने जैसा है। पंजाब में चावल उगाने के लिए पानी की बर्बादी एक ऐसी चीज है, जिसे तुरंत रोकने की जरूरत है। पंजाब में किसान मूल रूप से प्रवासी श्रमिक हैं। जिन लोगों के पास खेत हैं, वे चौबीसों घंटे आराम फरमाते हैं और खेतों को उत्तर प्रदेश और बिहार से आए श्रमिक ही जोतते हैं। ऐसे में, पंजाब को चावल की खेती का नुकसान न सिर्फ पंजाब को हो रहा है, बल्कि पूरे देश पर इसका नकारात्मक असर पड़ रहा है।
इसका समाधान एक ही है कि पंजाब के किसान चावल की खेती छोड़ अन्य अनाज पर अपना ध्यान केन्द्रित करें, जिसके लिए अत्यधिक पानी की आवश्यकता भी न हो और साथ ही फसल वहां की खपत के अनुसार हो, जिससे देश का विदेशी मुद्रा भंडार भी बचाया जा सके। यही नहीं, इससे पंजाब में तेजी से घटता जलस्तर भी बढ़ेगा, फसल में विविधीकरण भी आएगी और प्रदूषण में भारी कटौती होगी।