“आदि से अनंत तक, यही है परंपरा,
कायर भोगे दुख सदा, वीर भोग्य वसुंधरा!”
ये वाक्य हमारे देश के असंख्य योद्धाओं की आदर्श नीति रही है, जिन्होंने हमारी मातृभूमि के लिए अपने प्राणों की आहुति देने में भी संकोच नहीं किया है। एक ऐसा ही गौरवशाली दिन भारत के इतिहास में अंकित है, जिसका यदि हमने सदुपयोग किया होता, तो आज अखंड भारत का परिदृश्य न जाने क्या होता। ये कथा है पेशावर पर विजयी होने के मराठा अभियान की, जिसने स्वतंत्र भारत के सबसे गौरवशाली साम्राज्यों में से एक के सबसे वैभवशाली युग की नींव रखी। ये कथा है मराठा साम्राज्य के अटक विजय की, जिसने सुप्रसिद्ध ‘कटक से अटक तक’ बोली की नींव रखी।
उस समय मराठा साम्राज्य के शासक थे छत्रपति राजाराम भोंसले द्वितीय। परंतु वे केवल नाम के शासक थे, असल शासन और शक्ति तो उनके प्रधानमंत्री/पंतप्रधान, पेशवा बालाजी बाजीराव भट्ट के पास था, जिनके दिशानिर्देश में मराठा साम्राज्य एक अभेद्य दुर्ग समान शक्तिशाली साम्राज्य बन चुका था, जिससे आस पास के राज्य तो क्या, मुगल शाही और निजाम शाही तक भयभीत रहते थे। मुगल शाही भी अब केवल नाममात्र की बची हुई थी, भारत की वास्तविक बागडोर अब वीर मराठाओं के हाथों में जो थी।
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जब दिल्ली पर टूट पड़े मराठा
अब अखंड भारत में युगों युगों के बाद एक सर्वशक्तिशाली सनातनी साम्राज्य उभरे, तो क्या उसकी इच्छा नहीं होगी कि उसकी कीर्ति चारों ओर फैले? इसी इच्छा से अब मराठा साम्राज्य ने ‘हिंदवी स्वराज्य’ का भौगोलिक स्वराज्य प्रारंभ किया और इनका सामना हुआ अफ़गान के दुर्रानी कबीलों से, जिनके सरदार थे अहमद शाह अब्दाली, और जिनके साथ इनका युद्ध काफी लंबा चलने वाला था। इसकी नींव पड़ी 1757 में, जब दिल्ली पर अफगानों ने आक्रमण किया। उस समय आलमगीर द्वितीय का शासन दिल्ली पर व्याप्त था। अहमद शाह अब्दाली का साथ दिया रूहेल पश्तूनों ने, जिनके सरगना थे नजीब उद दौला। दोनों ने आलमगीर द्वितीय को अपदस्थ कर दिल्ली को अपने नियंत्रण में ले लिया और अपनी दृष्टि सम्पूर्ण भारत पर गड़ाई।
परंतु अफगानों की मंशा कहीं न कहीं मराठा योद्धाओं ने भांप ली थी और ऐसे में जब मुगल वजीर इमाद उल मुल्क ने सहायता मांगी, तो मराठा दिल्ली पर टूट पड़े। पेशवा बाजीराव ने दशकों पूर्व जिस प्रकार से दिल्ली पर विजय प्राप्त की, ठीक उसी प्रकार से रघुनाथ राव के नेतृत्व में मराठा शासकों ने अफगानों को धूल चटाते हुए दिल्ली पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया। मुगलों को उनकी संपत्ति भले मिल गई, परंतु अब सम्पूर्ण भारत आधिकारिक रूप से मराठाओं का हो चुका था।
अटक के दुर्ग पर लहराया केसरिया ध्वज
परंतु मराठा इतने में ही संतुष्ट होने वाले नहीं थे। उन्होंने अब अफगानों को सम्पूर्ण भारत से भगाने की ठान ली थी। 1758 में उन्होंने सिख समुदाय से संधि करते हुए पेशावर अभियान प्रारंभ किया। सिख भी तब अफगानों के निरंतर आक्रमणों से काफी तंग आ चुके थे और उन्होंने उनका सर्वनाश करने के लिए मराठा साम्राज्य के साथ हाथ मिलाने की ठानी। ये वो ऐतिहासिक क्षण था जब अधर्म के विनाश के लिए एक मायने में सभी ‘धार्मिक लोग’ एक हो रहे थे।
आखिर वो दिन आ ही गया, 28 अप्रैल 1758। यह दिन संयोगवश वह दिन भी था जिस दिन दुर्भाग्य से पेशवा बाजीराव इस संसार को छोड़ गए थे, परंतु उनके अधूरे स्वप्न को पूर्ण करने की मानों मराठा योद्धाओं ने ठान ली। मराठा योद्धाओं की वीरता के आगे अफ़गान सैनिकों की क्रूरता कितनी देर टिकती और आखिरकार अटक के दुर्ग पर केसरिया ध्वज गर्व से लहराया गया।। परंतु ये हमारा दुर्भाग्य है कि इस गौरव गाथा का विवरण तो छोड़िए, इसकी चर्चा तक हमारे इतिहास के पुस्तकों में नहीं होती। एक कारण ये भी हो सकता है कि इस विजय को सुदृढ़ बनाने के लिए मराठा योद्धाओं ने अधिक परिश्रम नहीं किया, अन्यथा आज भारत का भौगोलिक और सांस्कृतिक परिदृश्य कुछ और ही होता।
Source- A History of the Mahrattas, James Grant Duff
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