जब महाभारत में कुंतीपुत्र अर्जुन महादेव को प्रसन्न करने हेतु कठोर तपस्या में लीन थे, तब महादेव ने उनकी परीक्षा लेने हेतु एक जंगली सूअर को भेज दिया और फिर स्वयं द्वन्द करने एक आखेटक, किराट के रूप में प्रकट हुए थे। जिस स्थान पर वे किराट के रूप में प्रकट हुए, वहां आज किराटेश्वर मंदिर निर्मित है और ये भूमि कोई और नहीं, सिक्किम है, जिसका सम्पूर्ण विलय 14 अप्रैल के दिन भारत में हुआ था। लेकिन इस ऐतिहासिक विलय की कथा भी इस राज्य की भांति बड़ी अनुपम और विविधताओं से परिपूर्ण है। इस राज्य पर एक नहीं, अपितु दो देशों की कुदृष्टि थी। एक था चीन, जो इसे अरुणाचल प्रदेश की भांति अपनी ही भूमि का हिस्सा मानता था। दूसरा था अमेरिका, जिसकी चीन के साथ सांठगांठ किसी से छिपी नहीं है और जिसका एक अंश सिक्किम के पूर्व राजपरिवार से भी जुड़ा है। परंतु उस बारे में बाद में।
क्या आपको आभास है कि सिक्किम का विलय भारत में उसी समय हो सकता था, जब भारत गणतंत्र बना था, यानी 1950 में? यदि नेहरू ने गृह मंत्री सरदार पटेल की दूरदर्शिता पर ध्यान दिया होता, तो सिक्किम के विलय में तनिक भी समय नहीं लगता। विकीलीक्स से प्राप्त केबल के अनुसार, जवाहर लाल नेहरू की सिर्फ़ कश्मीर नीति ही नहीं, बल्कि सिक्किम को लेकर भी उनकी रणनीति अस्पष्ट थी।
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नेहरू की अदूरदर्शिता
विकिलीक्स के केबल के अनुसार भारत में स्थित अमेरिकी राजनयिकों ने USA के स्टेट डिपार्टमेंट को भेजी गई एक जानकारी में कहा कि अगर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सरदार पटेल की बात मान ली होती तो सिक्किम 25 साल पहले ही भारत का अंग बन चुका होता। कम से कम अमेरिका का तो यही मानना है कि अगर नेहरू ने भावना के अनुकूल, सरदार पटेल के कहे अनुसार सिक्किम को विशेष राज्य का दर्जा दे दिया होता तो सिक्किम 1975 की बजाय 1950 में ही भारत का अंग बन चुका होता।
अब सोचिए, यदि सिक्किम 1950 में ही भारत का अभिन्न अंग होता, तो 1962 के भारत चीन युद्ध में भारत की क्या स्थिति होती? भारत सरकार को भी सिक्किम के विलय का ख्याल तब आया, जब वह चीन के हाथों 1962 के युद्ध में बुरी तरह से पिट गई। इसके अतिरिक्त सिक्किम के तत्कालीन नरेश का चीन की तरफ ज्यादा झुकाव था और अपने विस्तारवादी चरित्र के कारण जाना जाने वाला ड्रैगन अपनी सीमा से सटे भारत के हर एक राज्य को हथियाना चाहता था। लेकिन बात यहीं तक सीमित नहीं थी। सिक्किम के तत्कालीन नरेश पाल्डेन थोंडुप नामग्याल की पत्नी होप कुक अमेरिकी थी, जो अपने 2 बच्चों के साथ न्यूयॉर्क में रहती थी। वो सिक्किम की राजनीति में काफी हस्तक्षेप करती थी और कई लोगों का यह भी मानना था कि वो सीआईए की एजेंट थी। हालांकि, ये आरोप कभी सिद्ध नहीं हुए।
[Source – Watershed 1967 : India’s Forgotten Victory over China by Probal Dasgupta]
अब अगर भौगोलिक स्थिति को समझें तो भारत का उत्तर-पूर्वी हिस्सा सामरिक और रणनीतिक रूप से देश के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। सिक्किम के उत्तर और उत्तर-पूर्व में तिब्बत स्थित है, जिस पर चीन अपना कब्ज़ा जताता रहा है। राज्य के पूर्व में भूटान है, जो भारत का मित्र राष्ट्र है लेकिन चीन उसे लुभाने की पूरी कोशिश करता रहा है। सिक्किम के पश्चिम में नेपाल है, जहां के सत्ताधारियों का झुकाव समय के हिसाब से कभी भारत तो कभी चीन की तरफ रहता है।
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1967 की युद्ध में भारत के हाथों बुरी तरह से हार गया था चीन
लेकिन इस स्थिति में परिवर्तन आया 1967 में, जब चीन ने नाथू ला और चो ला के दर्रों यानी Mountain Pass पर आक्रमण किया। मेजर जनरल सगत सिंह के कुशल नेतृत्व में भारत ने न केवल नाथू ला में अपना मोर्चा बनाए रखा, अपितु चीन को मुंहतोड़ जवाब भी दिया। 11 सितंबर 1967 को चीनी सेना बगैर किसी चेतावनी के जोरदार फायरिंग करने लगी और उत्तर में भारतीय सेना ने अपने पराक्रम से चीन को चकित कर दिया, परंतु ये युद्ध कथा वहीं पर खत्म नहीं हुई थी। नाथू ला से कुछ ही किलोमीटर पर चो ला पर चीन और भारत के बीच आए दिन हिंसक झड़प होती रहती थी।
1 अक्टूबर 1967 को वहां पर भीषण युद्ध हुआ, जिसमें गोरखा राइफल्स और जम्मू एंड कश्मीर राइफल्स के कई जवान वीरगति को प्राप्त हुए। परंतु इन सैनिकों का शौर्य व्यर्थ नहीं गया। चो ला के एक महत्वपूर्ण बेस यानी पॉइंट 15,450 को पुनः भारत को वापिस दिलाने के लिए गोरखा राइफल्स और जम्मू एंड कश्मीर राइफल्स की संयुक्त टुकड़ी ने रात को धावा बोला। अद्भुत साहस का परिचय देते हुए उन्होंने लेफ्टिनेंट कर्नल महातम सिंह के नेतृत्व में पॉइंट 15,450 पर पुनः नियंत्रण प्राप्त किया और चीनियों को अंतरराष्ट्रीय सीमा से तीन किलोमीटर पीछे खदेड़ दिया। आज स्थिति यह है कि चीनी और कहीं से भी धावा बोल दे, परंतु चो ला का नाम सुनते ही उनके हलक सूख जाते हैं।
चो ला के युद्ध में चीन की पराजय ऐसे समय पर हुई, जब माओ ज़ेडोंग अपने शक्ति के शिखर पर थे। उनका देश एक ऐसे देश से पराजित हुआ, जो सैन्य शक्ति की ‘दृष्टि’ से उनसे ‘दुर्बल’ था और इस कारण से आज भी चीन 1967 के युद्ध में बात करने से हिचकता है। इसी विजय ने सिक्किम के जनता में भारत के प्रति निष्ठा की अलख भी जगाई और अब सिक्किम के राजतन्त्र के लिए अपनी हेकड़ी बनाए रखना असंभव हो रहा था। आखिरकार 14 अप्रैल के शुभ दिन, सिक्किम ने एकमत से राजतन्त्र को हटाने के लिए मतदान किया। सिक्किम की 97.55% जनता ने जनमत संग्रह के जरिए सिक्किम को भारतीय गणराज्य का हिस्सा बनाने के लिए वोट दिया। कुल 97,000 लोगों ने इस मतदान की प्रक्रिया में हिस्सा लिया था और सर्वसम्मति से भारत में विलय को स्वीकृति मिली। आखिरकार 16 मई को सिक्किम का भारत सम्पूर्ण विलय संभव हुआ और चीन एवं अमेरिका के जबड़े से भारत भूमि के एक अभिन्न अंग को बिना किसी समस्या के मुक्त कराया गया।