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भ्रम में मत रहिए, राजनीतिक लाभ के लिए इंदिरा गांधी ने किया था बैंकों का राष्ट्रीयकरण

बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पूरी अर्थव्यवस्था बर्बाद हो गयी!

Deeksha Sharma द्वारा Deeksha Sharma
26 July 2022
in इतिहास, चर्चित
Indira Gandhi
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इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) जब भारत की प्रधानमंत्री थीं तब देश में आपातकाल लगाया गया था। आज भी उस आपातकाल (emergency) के काले दिनों की चर्चा समय-समय पर होती रहती है। लेकिन क्या आपको पता है कि इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहने के दौरान और भी ऐसी कई घटनाएं हुईं जिस पर खुलकर बात ही नहीं की जाती है लेकिन उन घटनाओं का प्रभाव आज भी देश पर है। उन्हीं घटनाओं या यह कहें कि इंदिरा गांधी के उन्हीं कृत्यों में से एक है बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर देना।

इंदिरा गांधी के एक कदम ने सब बिगाड़ दिया!

जहां कुछ लोगों का मानना था कि इंदिरा गांधी के इस कदम से भारत की अर्थव्यवस्था में चार चांद लग जाएंगे और वह तरक्की करेगी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसके ठीक उलट भारत उस तरह की तरक्की नहीं कर सका जिसका वह हकदार था। इंदिरा गांधी ने यह कदम भारतवर्ष के कल्याण के लिए नहीं बल्कि आत्महित को पूरा करने के लिए उठाया था जिसमें केवल और केवल उनका और उनकी आने वाली पीढ़ियों का ही भला हुआ।

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पांच दशक पहले इंदिरा गांधी के द्वारा लिए इस फैसले ने देश की अर्थव्यवस्था को कुंए में धकेल दिया। 1947 में आज़ादी के बाद भारत की अर्थव्यवस्था के साथ जो छेड़छाड़ इंदिरा गांधी ने की वह तो उनके पिता जवाहरलाल नेहरू ने भी नहीं की थी। उनके इस कदम के पीछे का राजनितिक कारण कुछ इस तरह से था कि 1967 के आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने खराब प्रदर्शन किया जिससे कई राज्यों में पार्टी ने अपनी कमान खो दी। ऐसा होने के पीछे ‘स्वतंत्र पार्टी’ थी जो आजादी के बाद से कांग्रेस के आधिपत्य के लिए सबसे बड़ा खतरा बनकर उभर रही थी।

‘स्वतंत्र पार्टी’ का गठन 1957 में सी राजगोपालाचारी, एन जी रंगा, के एम मुंशी और अन्य प्रतिष्ठित कांग्रेसियों द्वारा किया गया था जो जवाहरलाल नेहरू की समाजवादी नीतियों से असहमत थे। उस समय नेहरू ने कुछ ‘भूमि सुधार’ नीतियां भी चलायी थीं जिनके चलते बड़े ज़मींदारों और राजघरानों की भूमि खतरे में आ गयी थी। वे राजघराने और ज़मींदार भी स्वतंत्र पार्टी को अपना समर्थन देने लगे, साथ ही यह पार्टी बड़े व्यवसायियों को भी आकर्षित करने में सफल रही।

1962 के चुनाव में स्वतंत्र पार्टी ने 18 सीटें जीती थीं जो कि एक अच्छी शुरुआत थी। इन सीटों को जीतने के बाद यह पार्टी कांग्रेस (351 सीटों) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई, 29 सीटों) के बाद संसद में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी।

फिर भारत चीन से युद्ध में हार गया जिसके बाद 1965 और 1966 के भयानक सूखे ने भारत को बड़े पैमाने पर भुखमरी का शिकार बना दिया। इसके चलते लोगों में सरकार के प्रति आक्रोश बढ़ने लगा और 1967 के चुनाव में यह विरोध साफ़ देखने को मिला जब कांग्रेस को 520 में से सिर्फ 283 सीटों पर जीत मिली थी। स्वतंत्र पार्टी 44 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर पहुंच गयी और विपक्ष का अगुआ बन गयी। कांग्रेस के कई विधायक पार्टी छोड़कर विपक्ष में चले गए, कांग्रेस का आधिपत्य समाप्त होता दिख रहा था। अगले चुनाव में यह पूरी तरह से संभव लग रहा था कि बड़े व्यवसाय का पैसा और राजा महाराजाओं की सामंती पकड़ एक स्वतंत्र नेतृत्व वाले गठबंधन को सत्ता में लाएगी।

और पढ़ें- 1971 में इंदिरा गांधी POK को वापस ले सकती थीं, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया

इंदिरा गांधी ने कांग्रेस की जीत को आगे रखा

अब बात जब पार्टी के अस्तित्व की आयी तो देश को दरकिनार कर इंदिरा गांधी ने जीतने के लिए स्वतंत्र पार्टी के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। स्वतंत्र पार्टी के दो मुख्य स्तंभों, राजा-महाराजाओं और बड़े व्यवसाइयों पर हमला हुआ। रजवाड़ों के भारत में विलय होने के बाद जो धनराशि राजा-महाराजाओं को हर माह मिलती थी उसे रोक दिया गया और उनकी सम्पत्ति पर कर लगाना शुरू कर दिया, जिसके चलते राजा-महाराजाओं और व्यवसाइयों के धनकोष खाली होने लगे। बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के बाद इंदिरा गांधी ने कर 97.75 % तक बढ़ा दिया था।

उन्होंने कोयला, सामान्य बीमा और तांबे जैसे कई और व्यवसायों का राष्ट्रीयकरण कर दिया और उद्योगपतियों को उनके घुटनों पर ला दिया, यह केवल इसलिए क्योंकि वे स्वतंत्र पार्टी के समर्थक थे, इससे स्वतंत्र पार्टी ऐसी टूटी कि फिर कभी उभर नहीं सकी। उस पार्टी का अस्तित्व ख़त्म करने की इंदिरा गांधी की योजना सफल हो गयी लेकिन उसकी कीमत देश को चुकानी पड़ी।

इसके तुरंत बाद 1975-77 का आपातकाल आया। गांधी ने सभी विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया, इसका नतीजा यह हुआ कि सभी विपक्षी पार्टियां इंदिरा गाँधी के खिलाफ एकजुट हो गयीं और मिलकर कांग्रेस के खिलाफ एक नयी पार्टी का गठन किया, ‘जनता पार्टी’। जनता पार्टी बनाने के लिए कांग्रेस, स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ और समाजवादी दलों का विलय हुआ। पार्टी ने 1977 का चुनाव जीता और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में एक नयी सरकार बनी लेकिन पार्टी के अंदर फूट पड़ने से तीन साल से भी कम समय में पार्टी टूट गयी। स्वतंत्र पार्टी 1959 से 1974 तक के समय में ही सिमटकर रह गयी और वह दोबारा कभी अस्तित्व में नहीं आयी।

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फिर जनता पार्टी का जन्म हुआ और जनता पार्टी के कई सदस्य भाजपा में शामिल हो गए। राजनीतिक दृष्टि से भले ही इंदिरा गांधी ने एक बड़ी सफलता पायी और स्वतंत्र पार्टी को इतने व्यापक रूप से तोड़ दिया कि आज शायद गिने चुने लोगों को ही उसका इतिहास याद है लेकिन इस राजनितिक सफलता के लिए भारत की अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर दिया गया। एक पार्टी की जीत की कीमत पूरे राष्ट्र ने उठायी और आज भी उठाता आ रहा है।

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