“विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा..”
इस गीत को बालपन में आपने अवश्य कंठस्थ किया होगा और नहीं किया होगा तो सुना अवश्य होगा। परंतु क्या कभी सोचा है कि इस ध्वज से जुड़ी कितनी कथाएं छिपी हैं? कभी सोचा है कि एक ध्वज में हमारे देश का समूचा इतिहास भी समाहित हो सकता है? टीएफआई प्रीमियम में आपका स्वागत है। इस लेख के माध्यम से हम आपको लेकर चलते उस ऐतिहासिक लोक में जहां भारत के ध्वजों का भी एक अनूठा इतिहास है और हर ध्वज की अपनी अनूठी कथा भी है।
यूं तो कहने को हमारे देश का कोई आधिकारिक ‘ध्वज आधारित इतिहास’ संकलित नहीं है परंतु इस बात में कोई संदेह नहीं है कि सांस्कृतिक रूप से मौर्य काल से ही अखंड भारत के लिए एक ध्वज समान रूप से मान्य था – केसरिया ध्वज। इस ध्वज के विभिन्न रूप हो सकते हैं परंतु भावना वही थी, भारत और भारतीयता की भावना का सम्मान।
अरब आक्रांताओं के आक्रमण के बाद भी इस रीति में कोई कमी नहीं आई परंतु मोहम्मद गोरी के विजय के पश्चात भारत का राष्ट्रीय ध्वज कभी भी एक समान नहीं रहा। वह आक्रान्ताओं की इच्छा अनुसार परिवर्तित होता रहता था और जब तक मराठा योद्धाओं ने लगभग समूचे भारत पर पुनः नियंत्रण नहीं स्थापित किया, यही रीति जारी रही। मराठा योद्धाओं ने केसरिया ध्वज को दिल्ली की माटी पर पुन: स्थापित करने का प्रयास किया परंतु शीघ्र ही उनका स्थान यूरोपीय साम्राज्यवादियों विशेषकर अंग्रेज़ों ने ले लिया।
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परंतु इसी समय भारत के राष्ट्रीय ध्वज का आधुनिक इतिहास भी प्रारंभ हुआ। जब 1905 में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन की घोषणा की तो उसके विरोध में भारत में जमकर विरोध प्रदर्शन हुए। इसी बीच 1906 में उद्भव हुआ एक ध्वज का, जिसे कलकत्ता ध्वज कहा गया। इसमें सबसे उपर 8 आधे खिले हुए कमल बनाये गए थे इसलिए इसे कमल ध्वज भी नाम दिया गया। इसे सचिन्द्र प्रसाद बोस और सुकुमार मित्रा ने बनाया था। इस ध्वज को 7 अगस्त 1906 में कलकत्ता के पारसी बागन चौराहे पर सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी द्वारा फ़हराया गया था। उस समय बंगाल का विभाजन हुआ था उसी के विरोध में ये प्रदर्शन किया गया था। इस ध्वज में सबसे ऊपर केसरिया बीच में पीला रंग नीचे हरा रंग और पीले रंग की पट्टिका पर देवनागरी में वन्दे मातरम लिखा हुआ था।
ये तो मात्र प्रारंभ था। इसके पश्चात वर्ष 1907 में जर्मनी के स्तुटगार्ट में आयोजित सोशलिस्ट कॉन्फ्रेंस में मैडम भीकाजी कामा ने भारत का प्रतिनिधित्व किया और वहां प्रथम बार उन्होंने भारत का ध्वज फहराया जिसमें तीन रंग थे, जो भारत की विविधता के प्रतीक थे और बीच में वन्दे मातरम का नारा अंकित था। ये मैडम कामा ही थी जिन्होंने विदेश में रहकर भी इस बात को सुनिश्चित किया कि भारतवंशियों में देश के लिए मातृत्व की भावना कम न हो। जब अंग्रेज़ों को आभास हुआ तो उन्होंने मैडम कामा पर भारत में घुसने पर प्रतिबंध लगाने की धमकी दी, जिस पर मैडम कामा ने तुरंत फ्रांस की ओर अपने कदम बढ़ाए जो वैचारिक तौर पर इंग्लैंड का उतना पक्षधर नहीं था जितना इंग्लैंड विश्वभर में जताता था।
इसके पश्चात 1916 से 1931 तक प्रयोगों का लंबा दौर चला। कभी ब्रिटिश यूनियन जैक को समाहित करने का प्रयास किया गया तो कभी भारत के सभी धर्मों को समाहित करने हेतु प्रयास किये गए परंतु कुछ भी सफल नहीं हुआ। उस समय १९१७ (1917) में भारतीय राजनैतिक संघर्ष ने एक निश्चित मोड़ लिया। डॉ. एनी बेसेंट और लोकमान्य तिलक ने घरेलू शासन आंदोलन के दौरान तृतीय चित्रित ध्वज को फहराया।
इस ध्वज में 5 लाल और 4 हरी क्षैतिज पट्टियां एक के बाद एक और सप्तऋषि के अभिविन्यास में इस पर सात सितारे बने थे। ऊपरी किनारे पर बायीं ओर (खंभे की ओर) यूनियन जैक था। एक कोने में सफेद अर्धचंद्र और सितारा भी था। इसी बीच उद्भव हुआ एक किसान से एक ध्वज निर्माता बने पिंगली वेंकैया का। इन्हीं के कारण आज भारत के वर्तमान ध्वज को उसका मूर्त स्वरूप मिला है।
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वर्ष 1921 में विजयवाड़ा में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में पिंगली वैंकैया महात्मा गांधी से मिले थे और उन्हें अपने द्वारा डिज़ाइन केसरिया और हरे रंग से बनाया हुआ झंडा दिखाया। इसके बाद ही देश में कांग्रेस पार्टी के सारे अधिवेशनों में दो रंगों वाले झंडे का प्रयोग किया जाने लगा लेकिन उस समय इस झंडे को कांग्रेस की ओर से अधिकारिक तौर पर स्वीकृति नहीं मिली थी। कई झंडों में बीच में चरखे को भी दिखाया गया था।
इसी बीच जालंधर के हंसराज ने झंडे में चक्र चिह्न बनाने का सुझाव दिया। इस चक्र को प्रगति और आम आदमी के प्रतीक के रूप में माना गया। बाद में गांधी जी के सुझाव पर पिंगली वेंकैया ने शांति के प्रतीक सफेद रंग को भी राष्ट्रीय ध्वज में शामिल किया। 1931 में कांग्रेस के कराची अखिल भारतीय सम्मेलन में केसरिया, सफ़ेद और हरे तीन रंगों से बने इस ध्वज को सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया था।
जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपने चर्चित ‘आज़ाद हिन्द फौज’ यानी ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ की स्थापना की तो राष्ट्रीय ध्वज में चरखे का स्थान बाघ ने ले लिया। परंतु जहां भी INA विजयी श्री को प्राप्त करती, विजय के प्रतीक के रूप में कांग्रेसी तिरंगा ही स्थापित किया जाता। आखिरकार कांग्रेस के तिरंगे में से चरखे का स्थान अशोक चक्र ने लिया जिसे भारत की संविधान सभा ने 22 जुलाई 1947 को सर्वसम्मति से स्वीकृत किया और 15 अगस्त 1947 को यही राष्ट्रीय ध्वज हमारे देश का प्रतीक बन गया। भारत के ध्वज के लिए न जाने कितने लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी होगी और न जाने कितनों ने दिन रात एक किया होगा ताकि हमारा ध्वज निशंक लहराया जा सके। इसका इतिहास जितना अनोखा है वैसे ही इसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य भी है और हमारा धर्म भी।
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