“काका, म्हाला वाचवा!” एक बालक प्रांगण में इधर से उधर दौड़ते हुए चिल्ला रहा था पर उसकी पुकार एक व्यक्ति देखकर भी अनसुनी कर रहा था। सत्ता की लालसा में वह इतना अंधा हो चुका था कि उस युवा बालक का संहार करने को भी उद्यत था और हुआ भी कुछ वैसा ही। उस बालक की दर्दनाक मृत्यु के साथ ही एक साम्राज्य के गौरव का अंत हुआ और साथ ही स्थापित हुई एक वंश के विनाश की नींव, जिसका साक्षी बना एक परिसर, जिसमें यह सब कुछ हुआ। यदि आपको लगता है कि यह किसी फिल्म या बाहुबली राजनीति के किस्से का छंद है, तो क्षमा करें, आप भारतीय इतिहास से परिचित नहीं हैं। यह भारतीय इतिहास का वो भाग है, जिसे कोई पढ़ ले तो गेम ऑफ थ्रोन्स भी उसके लिए पानी कम चाय समान लगे। अंतर बस इतना है कि सारी लड़ाई बस एक कुर्सी के लिए होती है और यहां सारी लड़ाई पुणे में एक भवन के लिए होती थी और वह था- शनिवार वाड़ा।
शनिवार वाड़ा? यह नाम कुछ सुना सुना सा नहीं लग रहा? यह वही भवन है, जहां हिंदवी स्वराज्य के प्रधानमंत्री यानी मराठा पेशवा निवास करते थे। पुणे में स्थित इस भग्नावशेष की भव्यता आज भी अनेकों को अपनी ओर खींच लाती है, ठीक उसी प्रकार जैसे अनंतनाग में स्थित मार्तंड सूर्य मंदिर परिसर से लोग अभिभूत हो जाते हैं, जबकि उसे छिन्न भिन्न करने में इस्लामिक आक्रान्ताओं ने कोई प्रयास अधूरा नहीं छोड़ा था।
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इस शनिवार वाड़ा का निर्माण 1730 में प्रारंभ हुआ, जब अखंड भारत को पुनर्स्थापित करने हेतु मराठा साम्राज्य के सबसे वीर योद्धा पेशवा बाजीराव बल्लाड़ एक लंबे यात्रा पर निकल पड़े थे और इसमें उनके अनुज चिमाजीराव अप्पा का बहुमूल्य योगदान था। कहते हैं कि शनिवार वाड़ा को सूर्यवंशी राजपूतों की शैली में एक अति भव्य भवन के रूप में निर्मित किया जाना था, जिसे देखकर लोग कह सके कि हां, केवल मुगल ही शिल्पकारी में निपुण नहीं थे और वास्तव में शनिवार वाड़ा के कई अवशेष आज भी इस बात का प्रमाण देते हैं। परंतु न जाने शनिवार वाड़ा को किसकी कुदृष्टि लगी। प्रारंभ के कुछ समृद्ध वर्षों के पश्चात इस भव्य परिसर में जो भी रहा, वह कभी भी सुख और वैभव से परिपूर्ण जीवन नहीं जी सका। उदाहरण के लिए पेशवा बाजीराव को युद्ध के साथ अपने आंतरिक कलह से भी दो चार होना पड़ा क्योंकि उन्होंने बुंदेलखंड के पराक्रमी राजा छत्रसाल की मुस्लिम पुत्री मस्तानी के साथ विवाह करने का निर्णय लिया था और इसे अधिकतम लोग स्वीकार करने को तैयार नहीं थे।
बाजीराव के असामयिक मृत्यु के पश्चात पेशवा बालाजी बाजीराव ने शनिवार वाड़ा का शासन संभाला। उनके प्रशासन में वैभव भी आया, साम्राज्य भी बढ़ा और ‘कटक से अटक’ तक भारत की राजनीतिक सीमाएं पुनर्स्थापित हुई। परंतु इसे शनिवार वाड़ा की रीति कहिए या फिर उनका दुर्भाग्य, बालाजी बाजीराव का प्रताप अधिक समय तक टिक नहीं सका। अपने भांजे सदाशिवराव भाऊ के प्रति उनका मोह रघुनाथ राव को खटकने लगा, जिन्होंने हिंदुओं और सिखों समेत अनेकों प्रांतों एवं समुदायों को एकत्रित करने का दुष्कर कार्य किया था और उन्होंने अफगानों के विरुद्ध मोर्चा संभालने से ही मना कर दिया। परिणामस्वरूप अनुभवहीन सदाशिवराव भाऊ को उत्तर भारत में अफगानों के आक्रमण को रोकने का भार सौंपा गया और पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठा साम्राज्य को भारी शिकस्त का सामना करना पड़ा। न सदाशिवराव भाऊ बचे, न बालाजी बाजीराव के प्रिय पुत्र और उत्तराधिकारी विश्वास राव और स्वयं बालाजी बाजीराव भी शीघ्र ही उनके वियोग में भगवान को प्यारे हो गए।
परंतु न मराठा साम्राज्य, न पेशवा पीढ़ी के लिए और न ही शनिवार वाड़ा के लिए यह कठिन समय खत्म हुआ था। कनिष्ठ पुत्र माधवराव, जो तब मात्र 16 वर्ष के थे, वो हिंदवी स्वराज्य के नए पेशवा थे परंतु केवल अफ़गान और रूहेल उनके शत्रु थे। उनके सबसे बड़े शत्रु शनिवार वाड़ा में थे, उनके अपने काका – रघुनाथ राव। किसी को पता नहीं चला लेकिन आक्रोश अब कुंठा और कुंठा ने कब कुटिलता का रूप ले लिया था। माधवराव अपने पूर्वज पेशवा बाजीराव बल्लाड़ की भांति परिपक्व एवं कुशल नेतृत्व से परिपूर्ण थे। वो भली-भांति परिचित थे कि योग्य नेतृत्व ही हिंदवी स्वराज्य को उसका खोया हुआ सम्मान पुनः दिला सकता है। उनके नेतृत्व में सर्वप्रथम यह अधिनियम स्थापित किया गया कि जो भी अपने कार्यों में भ्रष्ट सिद्ध हुआ या जिसने भी राष्ट्रद्रोह किया, उसे सार्वजनिक दंड दिया जाएगा चाहे वह कितना भी प्रभावशाली और शक्तिशाली क्यों न हो। इसका उदाहरण उन्होंने अपने ही परिवार के माध्यम से दिया जब उन्होंने आवश्यकता पड़ने पर अपने ही काका रघुनाथ राव को कारावास में डालने का निर्णय लिया था।
पेशवा माधवराव भट्ट के नेतृत्व में नाना फडणवीस जैसे कूटनीतिज्ञ, राम शास्त्री प्रभुणे जैसे न्यायाधीश एवं महड़जी शिंदे जैसे सेनापति को खूब शक्तियां दी गई, जिनके कारण कुछ ही वर्षों में माराठाओं ने फिर से अपना परचम लहराया। जितनी भूमि मराठा साम्राज्य ने खोई थी, पेशवा माधवराव भट्ट के शासनकाल में उन्होंने उससे ज्यादा पुन: प्राप्त कर ली। परंतु देश का दुर्भाग्य देखिए। जैसे अल्पायु में स्कंदगुप्त का निधन हुआ, वैसे ही क्षयरोग से पेशवा माधवराव भट्ट का भी निधन हो गया। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिन ठेऊर के गणेश चिंतामणी मंदिर में भगवान गणपति की स्तुति करते हुए बिताए और मात्र 27 वर्ष की आयु में 18 नवंबर 1772 को उनका स्वर्गवास हो गया। रमाबाई उनके वियोग को नहीं सह पाई और उन्हीं के संग सती हो गईं, जबकि मराठा समुदाय में ऐसा कोई रीति-रिवाज नहीं था।
फिर वो अनर्थ हुआ, जिसने मराठा साम्राज्य के विनाश की नींव स्थापित कर दी। युवा पेशवा नारायणराव मात्र 18 वर्ष के थे, जब उन्हें पेशवा के रूप में चुना गया था। वो कोई बहुत हृष्ट पुष्ट पुरुष नहीं थे परंतु मराठा समुदाय को पूर्ण विश्वास था कि वो अपने भ्राता माधवराव की भांति सभी को अपने व्यक्तित्व से चकित कर देंगे। कुछ ऐसा ही हो भी रहा था परंतु नारायणराव के प्रभाव से सबसे अधिक यदि किसी को जलन होती थी तो वो थे- रघुनाथ राव।
कारागार से बाहर निकलने के पश्चात उन्होंने नारायण राव का शोषण करना शुरू कर दिया, जिससे नारायण बहुत परेशान हो गए और उन्होंने रघुनाथ राव को अपने सहायक के पद से हटा दिया। जिसके बाद रघुनाथ राव ने सुमेर सिंह नामक द्वारपाल समेत कुछ और लोगों के साथ में मिलकर गणेश चतुर्थी वाले दिन नारायण राव को मारने की साजिश रची और उन्होंने 30 अगस्त सन् 1773 को नारायण राव का वध करवा दिया।
इसी दिन नारायण राव के लगभग समस्त रक्षक गार्ड्स भी मारे गए और रात को ही रघुनाथ राव और उनकी पत्नी आनंदी बाई ने मिलकर उनके शव को नदी में फेंक दिया उनके मरने के बाद अब राधोबा को गद्दी मिल गई परंतु नाना फडणवीस और महादजी सिंधिया के प्रभाव के कारण नारायण राव के एकमात्र पुत्र माधव राव को गद्दी पर बैठा दिया और रघुनाथ राव को पैशवा की गद्दी से हटा दिया, जिसके कारण प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध छिड़ गया। महड़जी सिंधिया ने अंग्रेजों को मराठा युद्ध में पराजित कर दिया और माधवराव को पेशवा के रूप में अंग्रेजों से साबित करवा दिया।
लेकिन उस जघन्य हत्या का श्राप कहें या फिर प्रभु की माया, आज भी शनिवार वाड़ा में काका म्हाला वाचवा की आवाज आती है। यहां तक कि रघुनाथ राव के पुत्र बाजीराव द्वितीय को भी रघुनाथ राव के भूत होने का एहसास होता था, जिसके कारण उसने कई सारे आम के पेड़ों को ब्राह्मणों में दान किए परंतु तब भी उस भूत ने उनका पीछा नहीं छोड़ा और बिठूर में भी वह भूत उनके पीछे रहा।
कहते हैं कि इसी महल में 30 अगस्त 1773 की रात 18 वर्षीय नारायण राव की षडयंत्र करके हत्या कर दी गई थी, जो मराठा साम्राज्य के नौवें पेशवा बने थे। कहा जाता है कि उनके चाचा ने ही उनकी हत्या करवाई थी। स्थानीय लोगों का कहना है कि आज भी अमावस्या की रात महल से किसी की दर्द भरी आवाज सुनाई देती है, जो बचाओ-बचाओ चिल्लाती है। ये आवाज नारायण राव की ही है। इस भवन की भव्यता अंत में एक रहस्यमयी अग्नि में 1828 में नष्ट हुई। वर्ष 1828 में इस महल में भयंकर आग लगी थी, जो सात दिनों तक जलती रही थी। इसकी वजह से महल का बड़ा हिस्सा जल गया था। अब यह आग कैसे लगी थी, ये आज भी एक सवाल ही बना हुआ है। इसके बारे में कोई नहीं जानता।
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