बड़ी कठिन डगर है इस समय बॉलीवुड की। न कोई इनकी सुनना चाहता है, न कोई इनकी फिल्में चाहता है। ऊपर से सुधरने के बजाए इस उद्योग के कलाकार ऊटपटाँग बयान देकर अपनी ही लंका लगाने का पूर्ण प्रबंध करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। तो क्या बॉलीवुड का विनाश सुनिश्चित मान ले? नहीं, ऐसा भी नहीं है क्योंकि उद्योग भी कोई हो – सबका फॉर्मूला एक ही है – बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया।
अगर आपको फिल्म उद्योग को समझना है, तो फिल्म उद्योग के अर्थ को समझना पड़ेगा, यानी फिल्म के अर्थशास्त्र को और पिछले कुछ दिनों या कुछ माह में जो कुछ भी घटित हुआ है उसके अनुसार ये विश्लेषण और भी अधिक महत्वपूर्ण है।
वो कैसे? विगत कुछ दिनों या माह में आपने दो बातें तो पक्का देखी होंगी – बॉलीवुड के पतन और बहुभाषीय सिनेमा का उद्भव एवं उसके ताबड़तोड़ सफलता। परंतु इसके पीछे का जो गूढ अर्थशास्त्र, जो सिस्टम, जो नेटवर्क है, उसे समझना भी उतना ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि अब जो परिवर्तन भारतीय सिनेमा में होने वाला है, वो काफी कुछ बदलेगा, निर्माताओं के लिए, अभिनेताओं के लिए, निर्देशकों के लिए, लेखकों के लिए, यहाँ तक कि डिस्ट्रीब्यूटरों तक के लिए।
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इस कथा की उत्पत्ति होती है सन 60 के दशक से। तब टिकट खिड़की ही तय करती थी कि आपकी फिल्म की औकात क्या है। ‘शहीद’ हो या ‘शोले’, आप सिनेमा के सम्राट तभी बन सकते थे जब टिकट खिड़की पर ‘हाउस फुल’ का पदक आपको मिल जाए, और उसपर आपको ‘सिल्वर जुबली’ या ‘प्लैटिनम जुबली’ मिलना आज के समय के 100 करोड़, 1000 करोड़ क्लब से कम नहीं होता था। उस समय न सैटेलाइट थे, न मल्टीप्लेक्स, OTT, और विकल्पों की तो बात ही छोड़ दीजिए। तब लोगों के पास एक ही विकल्प था– सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर। आज जो आप गेटी गैलेक्सी, ओडियन, प्लाज़ा जैसे बड़े बड़े सिनेमाघरों की बातें सुनते हैं, इनसे नींव स्थापित हुई एक प्रणाली की– डिस्ट्रीब्यूटरशिप की।
डिस्ट्रीब्यूटरशिप माने क्या? स्पष्ट शब्दों में फिल्मों का वितरण। अधिक सरल शब्दों में बोले तो फिल्मों का बिचौलिया। यह एक “विशेष फूड चेन” समान हैं, जिसमें नींव समान है स्क्रिप्ट, यानी लेखक, जिसके पटकथा के आधार पर फिल्म बननी है। इसके ऊपर आता है कास्टिंग एजेंसी, या प्रोमोशन कंपनी जिनसे कथा को स्क्रीन पर चित्रित करने हेतु संपर्क साधा जाता है। इनके साथ फिल्म का क्रू भी होता है। जिसमें कास्टिंग क्रू से लेकर अन्य लोग भी शामिल हो सकते हैं।
इनके बीच में आते हैं डिस्ट्रीब्यूटर, जिनका काम है फिल्म को वितरित करना, और इनकी भूमिका किसी भी फिल्म को ऊपर ले जाने या नीचे पटकने में बड़ी महत्वपूर्ण होती है। फिर आते हैं अभिनय करने वाले कलाकार, एवं फिल्म को निर्देशित करने वाले। और सबसे ऊपर होते हैं फिल्म को निर्मित करने वाले यानी प्रोड्यूसर। प्रोड्यूसर के ही आदेश पर फिल्म का सारा खेल चलता है। अब ये तो हुई फिल्म को चलाने वालों की बात, परंतु प्रश्न तो अब भी व्याप्त है – इसका वर्तमान परिस्थितियों से क्या वास्ता? जैसे कि पूर्व में बताया आपने दो बातों पर तो ध्यान अवश्य दिया होगा – बॉलीवुड का पतन और बहुभाषीय सिनेमा का उद्भव।
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इसका असर आर्थिक रूप से कैसे बॉलीवुड पर पड़ता है?
मान लीजिए आप एक बावर्ची हो केशव, जिसकी विशेषज्ञता ऐसी है कि वह गाँव के धनुआ से लेकर मेट्रो के डैनी तक को आकर्षित कर दे और दूसरी ओर एक ऐसा बावर्ची है KD जो केवल अति धनाढ्य एडम के पसंद के पकवान ही पेश करे और वही पकवान सब पर थोपने का प्रयास करे। अब बताइए अधिक लोकप्रिय कौन होगा? केशव, या KD। यही अंतर है। आज के बहुभाषीय सिनेमा और बॉलीवुड में।
विश्वास नहीं होता, तो आप अनुराग कश्यप के बयान का विश्लेषण ही कर लीजिए। अनुराग कश्यप का मानना है कि बॉलीवुड की फिल्में नहीं चल रही हैं क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था गर्त में है और पनीर पर जीएसटी लगा हुआ है और इन बातों से ध्यान भटकाने के लिए बॉयकॉट अभियान चलाया जा रहा है। चलो मान लिया वैसे ऐसा मानसिक दिवालियापन मानना नहीं चाहिए पर मान लिया, परन्तु ‘द कश्मीर फाइल्स’, ‘सीता रामम’, ‘कार्तिकेय 2’, ‘विक्रम’, ‘777 चार्ली’ और ‘रॉकेट्री’ की सफलता के बारे में क्या कहेंगे?
इनमें से कई के बजट तो आपके फिल्म के बजट से भी काफी कम थे – 25 करोड़ के आसपास भी नहीं रहे होंगे कई तो ऐसे समय पर प्रदर्शित हुई जब अनुराग कश्यप के शब्दों में महंगाई अपने चरमसीमा पर थी और फिर भी इन सब ने न केवल अपना मूल बजट रिकवर किया। अपितु भारत और भारतीयता का मान भी रखा और कइयों ने तो 100, 200, यहाँ तक कि 300 करोड़ का रिकॉर्ड भी लांघते हुए अपनी अलग पहचान बनाई।
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बॉलीवुड निर्माताओं को ऐसा करना पड़ेगा जिससे वे लगातार असफलताओं के कुचक्र को तोड़ सकें?
बॉलीवुड को सर्वप्रथम ये स्वीकारना ही होगा कि जनता से बड़ा कोई नहीं है। यही जनता उन्हे सर आँखों पर बिठा सकती है और यही जनता उन्हे जमीन पर पटक भी सकती है। यह बात शायद अजय देवगन और कार्तिक आर्यन से बेहतर कोई नहीं जानते। जिस ओर बॉलीवुड के बड़े बड़े सितारे सितारे धूल चाटते दिखाई दे रहे हैं उस ओर ये दो अभिनेता न केवल मनोरंजक फिल्में प्रदान कर रहे हैं। अपितु मूल संस्कृति से भी समझौता नहीं करते। चाहे वो फिल्मी स्तर पर हो या निजी स्तर पर। ‘रनवे 34’ एक अपवाद थी, परंतु लोग ये भी भूलते हैं कि अजय देवगन ने इस वर्ष के सबसे बड़े ब्लॉकबस्टर में से एक ‘रौद्रम रणम रुधिरम’ में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जो कम से कम एक बॉलीवुड अभिनेता के कद अनुसार छोटा तो कतई नहीं था।
जब कोई ‘शमशेरा’ या ‘लाल सिंह चड्ढा’ जैसी फिल्म हफ्तों पहले अनेकों स्क्रीन पर डेरा डाल ले तो न चाहते हुए भी डिस्ट्रीब्यूटर को स्क्रीन लुटाने पड़ते हैं। योग्य फिल्म जाए तेल लेने, परंतु जब ये फिल्म न लेने तो क्या वितरकों और फिल्म से जुड़े अन्य लोगों का ख्याल रखा जाए इस बात की गारंटी कौन देगा? संजय दत्त ने तो छाती ठोंक के बोल दिया कि जनता का ‘शमशेरा’ के प्रति क्रोध उन्हे स्वीकार्य नहीं, परंतु निरंतर घटिया पे घटिया फिल्में देंगे और बाकी लोगों के मेहनत का पैसा डकारेंगे तो लोग आपकी आरती तो नहीं उतारेंगे न।
यहीं से उत्पन्न होते हैं ‘बॉयकॉट’ अभियान जिसने आज एक ऐसा भीषण रूप धारण कर लिया जिसे बॉलीवुड को संभालते नहीं बन रहा है। बॉलीवुड को लगता है ये अनुचित है ये अंधविरोध है, परंतु आप कब तक सत्य से मुंह फेरोगे?
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