कहते हैं कि समय जब करवट लेता है तो बड़े-बड़े राजाओं को रंक बनाकर ही छोड़ता है, समय की बलवानता किसी से छिपी नहीं है। कहते ये भी हैं कि जो समय के साथ नहीं चलता है उसे समय पीछे छोड़ देता है। ऐसा ही कुछ पश्चिमी देशों के साथ हुआ है। स्वयं की महानता में चूर पश्चिमी देशों ने सोचा कि समय कभी कारवट लेगा ही नहीं और इसी क्रम में इन देशों ने भारत को कभी मानवाधिकार के मुद्दे पर तो कभी मुक्त व्यापार एवं व्यापार नीतियों के नाम पर बहुत परेशान किया।
युद्ध के पश्चात् परिस्थितियां बदल गयी हैं
विश्वभर में रूस-यूक्रेन युद्ध के पश्चात् परिस्थितियां बदल गयी हैं, एक तरफ जहां पश्चिमी देशों ने रूस पर भर-भर के प्रतिबंध लगाए हैं, तो वहीं दूसरी तरफ अन्य देशों को रूस से व्यापार करने के लिए मना भी किया। अब देखिए इनका पाखंड, मूलतः ये पश्चिमी देश जिस भी देश के साथ व्यापार समझौता करते हैं वहां यह मुक्त व्यापार यानी फ़्री ट्रेड के झंडे को सबसे पहले आगे करते हैं और तो और इन सो कॉल्ड फ़्री ट्रेड प्रमोटर देशों ने तो फ़्री ट्रेड एवं ओपन मार्केट को बढ़ावा देने के लिए पूरा का पूरा एक संगठन ही बना दिया है जिसे WTO के नाम से जाना जाता है।
अब यह बात तो सबको पता है कि यह विश्व व्यापार संगठन इन देशों के लिए मात्र कठपुतली है इसके अलावा कुछ भी नहीं है। लेकिन मानना पड़ेगा कि ये देश इतनी चालाकी से अपनी चाल चलते हैं कि बेचारे अल्पविकसित एवं विकासशील देश इनके झांंसे में आ जाते हैं, तत्पश्चात् अपनी घरेलू नीतियों का निर्माण इस प्रकार से कर लेते हैं की उनका स्वयं का ही नुकसान हो जाता है। किंतु मुक्त व्यापार एवं खुले बाजार की बात करने वाले इन देशों की भारत ने इस बार लंका ही लगा दी है।
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इसी क्रम में उज़बेकिस्तान में चल रहे शंघाई सहयोग संगठन सम्ममेलन में जब मीडिया द्वारा भारतीय विदेश सचिव विनय क्वात्रा से रूसी तेल को ख़रीदने के संबंध में सवाल पूछा गया तो उन्होंने जो जवाब दिया उसे सुनकर पश्चिमी देशों के कान से खून निकल आए होंगे। क्वात्रा ने पश्चिमी देशों की मुक्त व्यापार और खुले बाजार की नीतियों का ज़िक्र कर उन्हीं को चारों खाने चित्त कर दिया।
क्वात्रा ने मीडिया को जवाब देते हुए कहा कि तेल को ख़रीदने के क्रम में भारत सरकार कोई निर्णय नहीं लेती है। यह तेल कंपनियों के ऊपर निर्भर करता है कि वो कहां से तेल ख़रीद रही हैं और कहां से नहीं। यह वही बात थी जिसे उपयोग कर पश्चिमी देश अपने हितों की पूर्ति के लिए अन्य देशों के समक्ष किया करते थे। ओपन मार्केट का झंडा उठाने वाले ये पश्चिमी देश आज स्वयं ही अपने देशों में कंपनियों को क्रय-विक्रय के संबंध में निर्देशित कर रहे हैं।
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पश्चिमी देश अपनी ही व्यवस्था में फंस गए
अपने ही हितों को हानि पहुंचता देख ये पश्चिमी देश अपनी ही व्यवस्था में फंस कर रह गए हैं, ऊपर से एससीओ में भारत के इस बयान से पश्चिमी देशों का पाखंड सबके समक्ष आ गया है। अगर हम खुले बाज़ार एवं मुक्त व्यापार का तात्पर्य समझें तो ऐसी व्यवस्था में सरकार रेग्युलेटर न होकर फ़ैसिलिटेटर होती है अर्थात् सरकार व्यापार को सुगम बनाती है न कि उनको नियंत्रण करती है।
वस्तुतः रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान पश्चिमी देशों के द्वारा लगाए गए प्रतिबंध से रूस की अर्थव्यवस्था चरमरा गयी थी। अपनी बदहाल अर्थव्यस्था को ठीक करने के क्रम में रूस ने सस्ते दामों पर तेल बेंचना प्रारम्भ कर दिया किंतु इन पश्चिमी देशों का भय ही था कि दूसरे देश रूसी तेल लेने से घबरा रहे थे। पर अब किसी के समक्ष न झुकने का फ़ैसला कर चुके भारत ने अपने आर्थिक हितों को सर्वोपरि रखते हुए रूस से तेल ख़रीदना प्रारम्भ कर दिया है। परिणामस्वरूप रूस की अर्थव्यवस्था पहले से कहीं बेहतर हुई, फिर क्या था मानो इन पश्चिमी देशों के छाती पर सांप लोटने लगा। इन्होंने भारत को रूस से तेल न लेने के लिए बहुत रोड़े अटकाए लेकिन इनका कोई लाभ नहीं हुआ। युद्ध की शुरुआत में जब स्वयं यूरोप रूस से प्राकृतिक गैस खरीद रहा था तो जयशंकर ने इन देशों को इनके दोगलेपाने के चलते जमकर धोया था।
इन सारे प्रकरण से एक बात तो सिद्ध हो जाती है कि पश्चिमी देश कभी किसी देश के सगे नहीं हो सकते हैं, ऐसे में भारत को चाहिए कि वह इन देशों की बातों में न आए और अपने हितों की पूर्ति के लिए एक से बढ़कर एक कदम उठाए।
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