चीन में एक कहावत है कि पहाड़ की चोटी पर पहुंचने के बहुत रास्ते होते हैं किंतु उस चोटी से दिखने वाला दृश्य हमेशा एक समान होता है। इसी नीति के बल पर चीन वैश्विक महाशक्ति बनने का स्वप्न देखता है और इसकी पूर्ति हेतु वह साम, दाम, दण्ड और भेद जैसी सारी युक्तियां अपनाता है। चीन के ऐसे कुकर्मों को भारत काफी बेहतर तरीके से जानता है। जहां सारे देश कोरोना से लड़ रहे थे तो वही चीन ने भारत के लद्दाख क्षेत्र में ज़मीन हथियाने की मंशा के साथ अपने सैनिकों को भेजा था परंतु भारत ने भी अपने सेना का पराक्रम चीन को प्रेम से दिखाया और परिणामस्वरूप आज चीन को भारत का प्रभुत्व एक बार फिर मस्तक झुकाकर स्वीकारना पड़ा है। इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि कैसे भारतीय सेना के पराक्रम के समक्ष चीन को एक बार फिर डोकलाम के पश्चात झुकना ही पड़ा और इसमें यदि प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष रूप से रूस की भी भूमिका है।
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लद्दाख में पीछे हटी सेना
गलवान घाटी में भले ही भारतीय सेना के पराक्रमी योद्धाओं ने चीनी छछूंदरों को पटक पटक कर धोया परंतु बेशर्म चीन ने अभी तक अपने सैनिकों की मौत तक को स्वीकार नहीं किया था। इस प्रकरण के बाद भारत और चीन के रिश्ते काफ़ी ख़राब हो गए और अभी तक दोनों देशों के रिश्ते असमान्य ही हैं। इसके पश्चात चीनी और भारतीय सैनिकों ने पूर्वी लद्दाख में टकराव वाले गोगरा-हॉट स्प्रिंग क्षेत्र में गश्त चौकी 15 पर अस्थायी बुनियादी ढांचे का निर्माण कर लिया था और आख़िरकार 16वें दौर के वार्तालाप के बाद दोनों पक्षों के सैनिकों का पीछे हटना प्रारम्भ हो गया है। इसकी प्रक्रिया 8 सितंबर को ही प्रारम्भ कर दी गई थी। अब दोनों पक्ष गश्त चौकी (पीपी-15) से पीछे हट गए हैं।
भारत और चीन की सेनाओं ने आठ सितंबर को घोषणा की थी कि उन्होंने क्षेत्र में गतिरोध वाले स्थानों से सैनिकों को हटाने के लिए रुकी हुई प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए पीपी-15 से सैनिकों को हटाना शुरू कर दिया है। पीपी-15 से सैनिकों के पीछे हटने के बारे में पूछे जाने पर थल सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडे ने कहा, ‘‘मुझे जाकर जायजा लेना होगा। लेकिन यह (सैनिकों को पीछे हटाने की प्रक्रिया) निर्धारित कार्यक्रम और निर्णय के अनुसार हो रहा है।’’
खबरों की मानें तो टकराव वाले स्थान पर बनाए गए सभी अस्थायी बुनियादी ढांचे को नष्ट कर दिया गया है। फिलहाल यह ज्ञात नहीं है कि क्या दोनों पक्ष पीपी-15 पर एक ‘‘बफर जोन’’ बनाएंगे, जैसा कि पैंगोंग झील के उत्तरी और दक्षिणी तट पर और पिछले वर्ष गश्त चौकी-17 (ए) पर गतिरोध वाले बिंदुओं से सैनिकों को हटाने के बाद किया गया था। ध्यान देने वाली बात है कि ‘बफर जोन’ में कोई भी पक्ष गश्त नहीं कर सकता है। दोनों सेनाओं ने आठ सितंबर को प्रक्रिया की शुरुआत की घोषणा करते हुए कहा था कि जुलाई में उच्च स्तरीय सैन्य वार्ता के 16वें दौर के परिणामस्वरूप गोगरा-हॉट स्प्रिंग क्षेत्र में सैनिकों को पीछे हटाने पर सहमति बनी।
क्या अपनी औकात पर आ गया चीन?
अब प्रश्न यह उठता है कि 15 दौर के बातचीत को सिरे से नकार देने वाला चीन आख़िर 16वें दौर की बातचीत में घुटने पर कैसे आ गया? अचानक से ड्रैगन का हृदय परिवर्तन कैसे संभव हुआ? इसका कारण कहीं रूस तो नहीं? हो भी सकता है। असल में इस समय रूस प्रतिबंधों के कारण आर्थिक संकट से गुजर रहा है और ऐसे में उसे भारत और चीन दोनों की आवश्यकता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि रूस, भारत एवं चीन दोनों का मित्र है और ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि रूस ने चीन को भारत के बढ़ते प्रभाव एवं अपने हितों को ध्यान में रखते हुए चीन से इस संबंध में बात की होगी। रूस द्वारा समझाने के बाद ही चीन के बुद्धि खुली और चीन इसके लिए तैयार हुआ।
इसके अतिरिक्त सितंबर महीने में शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (SCO) का सम्मेलन भी होने वाला है जिसे लेकर चीन भारत से रिश्तों को लेकर काफ़ी आशान्वित है। चीन के घटिया कृत्यों के कारण ही भारत के लोग बॉयकॉट चाइना का ट्रेंड चला रहे हैं, भारतीय नागरिक चीनी उत्पाद नहीं ख़रीद रहे हैं जिसके परिणामस्वरूप चीन को आर्थिक हानि हो रही है। अभी हाल में इस ट्रेंड के कारण और लोगों द्वारा नकारे जाने के कारण ही व्यापार सूची में चीन को पछाड़ते हुए अमेरिका भारत का नम्बर -1 ट्रेडिंग पार्ट्नर बन गया। अपने आर्थिक हितों को हानि पहुंचता देख अब चीन की अक़्ल ठिकाने आ गई है और इन सबका समग्र परिणाम यह हुआ कि चीन 16वें दौर के बातचीत के बाद अपने सैनिकों को पीछे हटाने पर सहमत हो गया।
वस्तुतः चीन ने भले ही यह कदम उठाया है किंतु गिरगिट की तरह रंग बदलने और विश्वासघात करने में चीन का कोई सानी नही है और भारत के साथ वह कई बार विश्वासघात कर चुका है। कभी हिंदी चीनी भाई-भाई के नाम पर तो कभी पंचशील सिद्धांत के नाम पर चीन भारत को धोखा देते रहा है। ऐसे में यदि भारत फिर भी चीन पर भरोसा करेगा तो यह भारत की मूर्खता मात्र होगी क्योंकि विस्तारवाद चीन की रगों में बस हुआ है, वह चाहे कितना ही शरीफ़ बनने का ढ़ोंग करे किंतु उसके सर पर चढ़ा विस्तारवाद का भूत उतरने वाला नही है।
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