गुरुवार की रात जब देश चैन की नींद सो रहा था, तब ज्यूरिक के मैदान पर क्रांति रची जा रही थी। भाला फेंक में विशेषज्ञता रखने वाले सूबेदार नीरज चोपड़ा ने इतिहास में नया कीर्तिमान रचते हुए IAAF के बहुप्रतिष्ठित डायमंड लीग में स्वर्ण पदक प्राप्त किया। ऐसा करने वाले वो प्रथम भारतीय एथलीट बने हैं और भाला फेंक में सर्वप्रथम एशियाई एथलीट क्योंकि उनसे पूर्व इस खेल पर केवल यूरोपीय एवं अमेरिकी खिलाड़ियों का वर्चस्व रहा है। नीरज चोपड़ा ने 88.44 मीटर तक भाला फेंक कर वांडा डायमंड लीग फाइनल्स के विजेता बने। चेक गणराज्य के जाकुब वेलडेच द्वितीय स्थान पर रहे। इससे पूर्व उन्होंने डायमंड लीग के ही Lausanne प्रतियोगिता में विजय प्राप्त की, जो अपने आप में किसी करिश्मे से कम नहीं था और वहां उन्होंने 89.94 मीटर तक भाला फेंकने का कीर्तिमान रचा था।
इतना ही नहीं, नीरज चोपड़ा ने इस बार विश्व एथेलेटिक्स चैंपियनशिप में रजत पदक जीतकर समूचे संसार में भारत का सर गर्व से ऊंचा कर दिया। अमेरिका के यूजीन में चल रही चैंपियनशिप की भाला फेंक प्रतिस्पर्धा में नीरज ने 88.13 मीटर के थ्रो के साथ सिल्वर मेडल अपने नाम किया। 19 वर्षों के बाद ऐसा हुआ जब भारत ने इस प्रतियोगिता में कोई पदक जीता हो। इससे पूर्व वर्ष 2003 में भारत ने अपना एकमात्र पदक अंजू बॉबी जॉर्ज ने लॉन्ग जंप में पेरिस में ब्रॉन्ज मेडल जीता था।
इससे पहले नीरज ने जून 2022 में ही एक और रजत पदक अपने नाम किया था। जून में फिनलैंड में आयोजित हुए पावो नुरमी खेलों में नीरज ने सिल्वर मेडल पर अपना कब्जा जमाया था। इस दौरान उन्होंने स्वयं के ही रिकॉर्ड को ध्वस्त करते हुए 89.30 मीटर का शानदार थ्रो किया था। इससे पहले नीरज का राष्ट्रीय रिकॉर्ड 88.07 मीटर था, जो उन्होंने पिछले वर्ष मार्च में पटियाला में बनाया था। इसके बाद उन्होंने 7 अगस्त 2021 को 87.58 मीटर के थ्रो के साथ टोक्यो ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रच दिया था।
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नीरज चोपड़ा- नाम ही काफी है!
परिश्रम के बल पर सफलता कई लोग हासिल कर लेते हैं। परंतु सफलता पाने के बाद हर व्यक्ति के सामने दो विकल्प मौजूद होते हैं- पहला यह कि वे इस सफलता को सिर पर चढ़ा ले और दूसरा यह कि इसे स्वयं पर हावी न होने दे और इसके बाद भी मेहनत कर नए मुकाम हासिल करने के प्रयास करते रहे। अधिकतर लोग पहला विकल्प चुनते हैं और वो सफलता को सिर पर चढ़ाकर औंधे मुंह गिर जाते हैं। हालांकि, गोल्डन बॉय नीरज चोपड़ा की बात अलग है। ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने के बाद नीरज चोपड़ा ने दूसरा विकल्प चुना और उन्होंने स्वयं पर सफलता को कभी हावी नहीं होने दिया। यही कारण है कि दिन पर दिन नीरज का प्रदर्शन और अधिक बेहतर ही होता चला जा रहा है।
नीरज की यह यात्रा यूं तो टोक्यो ओलंपिक से प्रारंभ हुई थी परंतु इसकी नींव वर्ष 2016 में ही पड़ गई, जब उन्होंने जूनियर विश्व चैम्पियनशिप में 86.48 मीटर तक भाला फेंक कर इतिहास रचा। ये अपने आप में ऐतिहासिक था क्योंकि 80 मीटर तक फेंकने में ही भारतीय एथलीट हाँफ जाते थे और नीरज की आयु तब 19 भी नहीं थी। परंतु पानीपत से आए इस हरियाणवी छोरे की बात ही कुछ और थी। किसी भी खिलाड़ी का सबसे बड़ा सपना यही होता है कि वो अपने जीवन में एक न एक बार ओलंपिक में अपने देश के लिए पदक जीतकर लाए। महज 23 साल की छोटी सी उम्र में नीरज ने अपने इस सपने को पूरा कर लिया और सीधा स्वर्ण पदक पर निशाना लगाया। गोल्ड मेडल जीतकर नीरज ने देश-विदेश में अपना नाम बना लिया। परंतु इसके बाद क्या?
क्या ओलंपिक में मेडल जीतना ही किसी भी खिलाड़ी का अंतिम लक्ष्य होता है? बिल्कुल नहीं। इसके बाद हर खिलाड़ी को अपना प्रदर्शन बेहतर करते हुए और मेडल लाने पर ध्यान देना चाहिए। इसी लक्ष्य पर नीरज भी आगे बढ़े। नीरज ओलंपिक में गोल्ड मेडल भले ही जीत गए थे परंतु उन्होंने न तो इसे अपना अंतिम लक्ष्य बनाया और न ही इस पर कभी भी घमंड किया और यही उनकी हालिया और बेहतर होते प्रदर्शन का कारण बन रहा है।
मेजर ध्यानचंद भी ऐसे ही थे!
कुछ ऐसी ही नीति थी ध्यान समेश्वर सिंह की। अब आप सोच रहे होंगे ये कौन हैं? इस नाम से शायद आप न जाने लेकिन यदि आप ‘हॉकी के जादूगर’ मेजर ध्यानचंद को नहीं जानते तो सत्य मानिए, आप कुछ नहीं जानते। भारत को खेलों के मानचित्र पर स्थापित करने में इन खिलाड़ी की सर्वप्रथम भूमिका थी और ऐसी कि इस खेल के जनक होकर भी इंग्लैंड फील्ड हॉकी में कभी भी ओलंपिक में 1948 तक भारत के समक्ष प्रतिद्वंदी के रूप में नहीं आया। मेजर ध्यानचंद का प्रभाव ही कुछ ऐसा था।
उन्होंने अपने खेल जीवन में 1000 से अधिक गोल दागे। जब वो मैदान पर खेलने को उतरते थे तो गेंद मानों उनकी हॉकी स्टिक से चिपक सी जाती थी। यहां तक एम्स्टर्डम ओलंपिक के समय उनकी हॉकी स्टिक में चुंबक होने की आशंका में उनकी स्टिक तोड़ कर देखी गई। जापान में ध्यानचंद की हॉकी स्टिक से जिस तरह गेंद चिपकी रहती थी उसे देख कर उनकी हॉकी स्टिक में गोंद लगे होने की बात कही गई।
ध्यानचंद की हॉकी की कलाकारी के जितने किस्से हैं, उतने शायद ही दुनिया के किसी अन्य खिलाड़ी के बाबत सुने गए हों। उनकी हॉकी की कलाकारी देखकर हॉकी के मुरीद तो वाह-वाह कह ही उठते थे बल्कि प्रतिद्वंदी टीम के खिलाड़ी भी अपनी सुधबुध खोकर उनकी कलाकारी को देखने में मशगूल हो जाते थे। स्वयं क्रिकेट शिरोमणि डॉन ब्रैडमैन तक उनके खेल की प्रशंसा करते थे और कहते थे कि वो गोल ऐसे दागते हैं, जैसे वो रन बनाते हैं। उनकी कलाकारी से मोहित होकर ही जर्मनी के एडोल्फ़ हिटलर सरीखे जिद्दी तानाशाह ने उन्हें जर्मनी के लिए खेलने की पेशकश कर दी थी लेकिन ध्यानचंद ने हमेशा भारत के लिए खेलना ही सबसे बड़ा गौरव समझा।
तब से अब तक मेजर ध्यानचंद जैसा बनने की कई लोगों ने बहुत प्रयास किये परंतु कोई उनके आसपास भी नहीं पहुंच पाया स्वयं सचिन तेंदुलकर भी नहीं। परंतु आज नीरज चोपड़ा उस स्थान पर हैं, जहां वो न केवल भारतीयता की भावना को आत्मसात करते हैं अपितु विकट से विकट परिस्थितियों में भी भारत के लिए गौरव अर्जित कर रहे हैं। ऐसे में भारत को वो पेरिस ओलंपिक में स्वर्ण पदक न जिताएं, ऐसा हो ही नहीं सकता। अब पूरा देश उनके साथ हैं, सूबेदार जी से अब देश की आशाएँ बहुत बढ़ रही हैं और वो निस्संदेह निराश नहीं करेंगे!
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