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तुर्की को अब तक भारत दुलार-पुचकार रहा था, लेकिन अब और नहीं

'आर्मीनिया अस्त्र' भारत ने चल दिया है!

Prashant Srivastava द्वारा Prashant Srivastava
8 October 2022
in मत
तुर्की भारत

Source- TFI

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कहते हैं जब आपके पास शक्ति होती है तो बड़े से बड़े सूरमा भी आपके आगे नतमस्तक हो जाते है, हर कोई आपसे मित्रता करना चाहता है, सभी आपकी बातों को महत्व देते हैं। मौजूदा समय में विश्वपटल पर भारत की स्थिति कुछ ऐसी ही है। वर्तमान में अपने विकास के क्रम में भारत ने जो स्थान प्राप्त किया है उससे वैश्विक स्तर पर देश की साख बढ़ी है और धाक जमी है, तभी तो भारत आज अमेरिका को जवाब देने से भी नहीं चूकता। इसी क्रम में भारत ने अब अपने धुर विरोधी तुर्की को भी सबक़ सिखाने के लिए कमर कस ली है।

वस्तुतः भारत एवं तुर्की का संबंध काफ़ी पुराना है, इसका अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि वर्ष 1951 में जवाहरलाल नेहरू ने तुर्की के साथ जिस मैत्री संधि पर हस्ताक्षर किए थे, उसने उपनिवेशवाद के बाद के युग में भारत तुर्की के बीच एक स्थायी साझेदारी के निर्माण की परिकल्पना को संकल्पित किया था। किंतु बढ़ते समय के साथ भारत एवं तुर्की के रिश्तों में कुछ ख़ास विकास देखने को नही मिला।

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तुर्की अब अपनी प्राथमिकताओं को बदल रहा था, बावजूद इसके भारत के दो महान प्रधानमंत्री राजीव गांधी एवं अटल बिहारी वाजपेयी ने तुर्की के साथ रिश्ते बेहतर बनाने की कोशिश की किंतु उन्हें नाकामयाबी ही हाथ लगी। वस्तुतः तुर्की के इस घटिया व्यवहार के बावजूद भारत ने तुर्की से संबंध बनाए रखने की हर मुमकिन कोशिश की। भारत ने तुर्की पर कभी भी सख़्ती नहीं दिखाई। किंतु तुर्की को तब तक अलग ही दुनिया भाने लगी थी, वह स्वयं का गौरव वापस पाने के लिए अपने अन्य देशों के साथ अपने संबंधो का निर्माण कर रहा था।

और पढ़ें: “सारा तेल का खेल है”, आर्मीनिया-अज़रबैजान के युद्ध से आखिर दुनिया चिंतित क्यों है?

एर्दोगन के आने के बाद बदल गई स्थिति

दरअसल, भारत का तुर्की के विरुद्ध कुछ न बोलने के पीछे कई कारण थे। उनमें से प्रमुख कारणो की चर्चा करें तो हम पाएंगे कि तुर्की एक समय में मुस्लिम जगत का नेता हुआ करता था। वस्तुतः तुर्की में ख़लीफ़ा पद्धति चलती थी और दुनिया भर के मुसलमान उसे अपना नेता मानते थे। इसी क्रम में भारतीय मुसलमान भी उसे अपना नेता मानते थे। हालांकि, अंग्रेजों ने ख़लीफ़ा पद्धति पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया था किंतु बावजूद इसके भारतीय मुसलमान का नज़रिया तुर्की के प्रति काफ़ी कोमल रहा। तुर्की के विरुद्ध सख्त न होने के पीछे यह भी एक कारण रहा। अन्य करणों की बात करे तो भारत और तुर्की के बीच व्यापार भी ठीक ठाक मात्रा में होता था, इसलिए भारत ने तुर्की के प्रति आक्रामक रुख़ नहीं अपनाया। किंतु जबसे तुर्की के राष्ट्रपति के पद पर रेसेप तैयप एर्दोगन आसीन हुए उन्होंने भारत के विरुद्ध जमकर ज़हर उगला, विशेषतः कश्मीर को लेकर।

एर्दोगन ने खलीफा बनने, तुर्की को मुस्लिम दुनिया का नेता बनाने और आतंकपरस्त पाकिस्तान को अपने पक्ष में करने के लिए लगभग हर बड़े मंचो से कश्मीर के विरुद्ध ज़हर उगला। पाकिस्तान के पक्ष में कश्मीर पर बोलते हुए एर्दोगन ने कहा था कि कश्मीर अशांत है, हम आशा और प्रार्थना करते हैं कि कश्मीर में स्थायी शांति और ख़ुशहालीआएगी। इतना ही नहीं, एर्दोगन ने कश्मीर में से धारा 370 के हटाए जाने के बाद भी बढ़ चढ कर बयान दिया था। हालांकि, उस समय भारत ने राजनीतिक रूप से ही अपना विरोध जताया था किंतु अब एर्दोगन के व्यवहार के कारण भारत ने भी अपना पक्ष बदल लिया है। हाल ही में तुर्की से बदला लेने के लिए भारत ने साइप्रस के मुद्दे को उठाया तो साथ ही आर्मीनिया के साथ 2000 करोड़ के रक्षा समझौते पर भी हस्ताक्षर  किया है।

ध्यान देने वाली बात है कि जैसे पाकिस्तान, भारत के साथ विवाद को जन्म देता है, उसी प्रकार से उत्तरी साइप्रस पर तुर्की ने आधिपत्य जमा कर रखा है। ऐसे में भारत अब तुर्की के इस कमजोर नस को दबाते रहता है। साथ ही तुर्की के रुख और देश की अपनी रक्षा निर्यात प्रोत्साहन नीति को ध्यान में रखते हुए भारत ने अब आर्मीनिया के साथ 2,000 करोड़ रुपये के हथियार निर्यात समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। रिपोर्ट्स के अनुसार, हथियारों और गोला-बारूद की आपूर्ति के लिए दोनों देशों के बीच कई अनुबंधों पर हस्ताक्षर हुए हैं।

और पढ़ें: भारत तुर्की को सिखा रहा है सबक, चीन संभल जाए नहीं तो देर हो जाएगी

भारत का आर्मीनिया ‘बाण’

इकोनॉमिक टाइम्स ने बताया है कि इस सौदे में स्वदेशी पिनाका मल्टी-बैरल रॉकेट लॉन्चर, टैंक-रोधी रॉकेट और अन्य गोला-बारूद की एक श्रृंखला का पहला निर्यात शामिल है। रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) द्वारा विकसित एवं स्वदेशी निजी क्षेत्र की इकाइयों द्वारा निर्मित, पिनाका भारतीय सेना के लिए विकसित एक मल्टी बैरल रॉकेट लॉन्चर है। यह एक सार्वभौमिक रूप से चलने योग्य ट्रक के साथ संलग्न रहता है। प्रत्येक पिनाका बैटरी में छह लॉन्चर, 12 रॉकेट और डिजीकोरमेट रडार शामिल हैं। इतना ही नहीं, इसके अलावा वर्ष 2020 में भी आर्मीनिया ने स्वदेशी रूप से निर्मित हथियार-पता लगाने वाले SWATHI रडार की आपूर्ति के लिए लगभग 40 मिलियन अमेरिकी डॉलर का रक्षा सौदा किया था। रूस और पोलैंड की उपेक्षा करते हुए आर्मीनिया ने रडार सिस्टम के आयात के लिए भारत को चुना था।

वस्तुतः भारत मात्र हथियार समझौते तक ही नहीं रुका। भारत ने एक कदम आगे निकलकर आर्मीनिया को नागरिक एवं सामुदायिक विकास के लिए 1.2 मिलीयन डॉलर का ग्रांट भी दिया है। आपको बताते चलें कि ग्रांट के रूप में दिया गया पैसा एक प्रकार से मदद होती है उस पर कोई भारी भरकम ब्याज नहीं होता है। गुरुवार को हुई कैबिनेट बैठक में, आर्मीनिया की सरकार ने आर्मीनिया के समुदायों के विकास के लिए उच्च दक्षता वाले कार्यक्रमों के कार्यान्वयन के लिए भारत द्वारा प्रदान की जाने वाली अनुदान सहायता पर दोनों सरकारों के बीच समझौते को मंजूरी दी। तदनुसार, आर्मीनिया को 47,82,72,300 ड्राम (लगभग US $1,186,000) की राशि अनुदान में प्रदान करने की योजना है। अब भारत ने तो तुर्की को सीधे-सीधे बहुत तल्ख़ लहजे में कुछ भी नहीं कहा किंतु उसने आर्मीनिया के साथ जो समझौता किया है और जो ग्रांट दिया है, अब इस पूरे प्रकरण से तुर्की की छाती पर साँप लोटना तय है।

हालांकि, आर्मीनिया पहले भी भारत से सैनिक साज़ो-सामान ख़रीदता रहा है। पिछले वित्त वर्ष (2021-22) के दौरान भारत के हथियार और सैनिक साज़ो-सामान का निर्यात बढ़ कर रिकॉर्ड 13 हज़ार करोड़ रुपये पर पहुंच गया। वर्ष 2020 में मोदी सरकार ने पांच साल के दौरान 35 हज़ार करोड़ रुपये के हथियार और सैनिक साज़ो-सामान निर्यात करने का लक्ष्य रखा था। सरकार 2025 तक डिफ़ेंस मैन्युफ़ैक्चरिंग को 1.75 लाख करोड़ रुपये तक पहुंचाना चाहती है।

चीन को लेनी चाहिए सबक

वस्तुतः अजरबैजान एवं आर्मीनिया के बीच चल रहे युद्ध से तो आप भली-भांति परिचित ही होंगे। इस युद्ध में तुर्की हमेशा से अजरबैजान का सहयोग करता आया है, उसे रक्षा उपकरण देता है। अब ऐसे में भारत आर्मीनिया को हथियार एवं पैसे देगा तो ज़ाहिर सी बात है तुर्की को यह बात चुभेगी। दरअसल, भारत ने यह कार्य जानबूझ कर तुर्की को सबक़ सिखाने के क्रम में किया है। ‘दुष्ट’ तुर्की ने भारत के खामोशी को उसकी मजबूरी समझ लिया था किंतु शायद तुर्की यह बात भूल चुका है कि भारत अब वह भारत नहीं है, जो 50 के दशक में हुआ करता था।

वस्तुतः भारत ने ऐसा करते हुए एक तीर से दो निशाने साधे हैं। आज भारत, तुर्की को मात देने के क्रम में जिस प्रकार से कूटनीतिक चालें चल रहा है उससे चीन के राष्ट्रपति शी जीनपिंग को भी सबक लेना चाहिए। चीन भी भारत को कमजोर समझने की भूल करता है इसलिए वह भारत के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय मंच पर बयानबाजी करता है और तरह तरह के हथकंडे अपनाता है। चीन कई बार भारत द्वारा पाकिस्तानी आतंकवादियों के विरुद्ध लाए गए प्रस्ताव को भी रोक देता है। यह धूर्त देश भारत के विरुद्ध जाकर आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान का साथ भी देता है, साथ ही सीमा पर गलवान जैसी भिड़ंत भी हमें देखने को मिलती हैं। ऐसे में भारत के लिए सरदर्द बन गए चीन की भी हालत आने वाले समय में तुर्की के समान हो सकती है।

तुर्की को झटका देते हुए भारत जैसे साइप्रस से बातचीत और आर्मीनिया के साथ रक्षा समझौता कर रहा है, ठीक उसी प्रकार वह आने वाले एक वर्षों में चीन के विरुद्ध उइगर मुस्लिम, तिब्बत एवं दलाई लामा के मुद्दे के साथ-साथ ताइवान के मुद्दे को प्रमुखता से उठा सकता है। हाल ही में उइगर मुसलमानों को लेकर भारत ने स्थिति स्पष्ट करते हुए मानवाधिकारों की रक्षा करने की बात कही थी। ऐसे में आने वाले वर्षों में भारत, चीन के विरुद्ध भी ऐसे कड़े कदम उठा सकता है। ऐसे में वह ताइवान को लेकर अपना स्टैंड क्लीयर कर सकता है। तिब्बत को लेकर स्थिति को स्पष्ट कर सकता है, आने वाले दलाई लामा और वर्तमान के दलाई लामा को चर्चा कर कोई निष्कर्ष निकाल सकता है और ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिसपर यदि भारत अपना स्टैंड लेता है तो चीन सिकुड़ कर रह जाएगा।

और पढ़ें: गोर्बाचेव की कमजोर नीतियों और ‘घटिया नेतृत्व’ के कारण हुआ था USSR का विघटन, समझिए कैसे?

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