अंग्रेजी में एक कहावत है ‘चैरिटी बीगिन्स एट होम’, यानी सेवादान की शुरुआत घर से। यह कहावत केरल की नर्सों पर सटीक बैठती है। दूसरी ओर ‘सेवा परमो धर्म:’ यह कथन तो भारत के मूल में है और इस तरह यह कथन देश के राज्य केरल के लिए भी बहुत अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि यहां के चिकित्सा कर्मचारी, विशेषकर नर्सों की मांग काफी अधिक है। परंतु क्या यह मांग उचित है या नहीं, इसका विश्लेषण बहुत आवश्यक और बहुत महत्वपूर्ण है।
क्या हैं बड़े कारण?
जिस राज्य में देश की जनसंख्या का केवल 3% है, वहां देश की 39% नर्सें हैं। भारतीय नर्स संघ के अनुसार, केरल में हर साल 8,500 से अधिक नर्सें स्नातक होती हैं। इस संख्या में से 70% से अधिक एक वर्ष के भीतर विदेश चली जाती हैं। हर साल इतनी सारी नर्सों को प्रशिक्षण देने का सबसे बड़ा कारण प्रवास है और प्रवास के पीछे कई कारण हैं।
इतिहास को देखें तो मलयाली नर्सों की पहली पीढ़ी 1960 के दशक में जर्मनी चली गई। उन्हें वहां के मूल निवासी प्यार से ब्राउन एंजल्स कहकर बुलाते थे। जब जर्मनी एक आर्थिक दिग्गज बनने के लिए संघर्ष कर रहा था, तो उसे विदेशों से श्रमिकों की आवश्यकता थी।
जबकि कई ब्लू-कॉलर नौकरियां तुर्की और आसपास के लोगों द्वारा ली गईं, डॉक्टरों और नर्सों की आवश्यकता बनी रही। केरल की नर्सों ने इस कमी को पूरा किया। लगभग उसी समय, चर्च संचालित अस्पतालों में काम करने के लिए कनाडा और इटली में भी प्रवास शुरू हुआ।
अब अगर वर्तमान को देखें तो केरल की पांच लाख से अधिक नर्सें विदेशों में कार्यरत हैं। सऊदी अरब में करीब 21.5 फीसदी नर्स केरल से हैं। यूएई के लिए यह आंकड़ा 15 फीसदी, कुवैत के लिए 12 फीसदी, कतर के लिए 5.7 फीसदी, कनाडा के लिए 5.5 फीसदी और मालदीव के लिए 3.2 फीसदी से अधिक है।
नर्सिंग पाठ्यक्रम प्रदान करने वाले कॉलेज पूरे देश में पर्याप्त हैं। भारत में प्रशिक्षित नर्सों को विभाग प्रमुखों को छोड़कर, लगभग 10,000 रुपये से 30,000 रुपये का वेतन मिलता है। एक बार जब नर्स माइग्रेट हो जाती है, तो वह दो या तीन गुना अधिक राशि कमाती हैं और अपनी पारिवारिक स्थिति को सुरक्षित करती हैं।
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केरल के नर्सों की मांग बढ़ी है
दूसरे तरफ देखें तो केरल के नर्सों की मांग केवल भारत के कोने-कोने में ही नहीं, देश के बाहर मिडिल ईस्ट और यूरोप में भी है। कोविड के बाद केरल की नर्सों की मांग दुनियाभर में बढ़ गई है। राज्य सरकार ने भी माइग्रेशन प्रोसेस को आसान बनाने के लिए कदम उठाए हैं। केरल से नर्सों के लिए अब गल्फ कंट्रीज (Gulf Countries) से ज्यादा आसान पश्चिमी देशों में जाना हो गया है। दीपा जोस दुबई में अपनी आठ साल की नर्सिंग जॉब (Nursing Job) को छोड़कर केरल लौटी हैं। उन्हें अब यूरोप (Europe) में जॉब मिल रही है। जोस ने कहा, ‘यह जीवन में एक बार मिलने वाला अवसर है, जो हमारे जीवन को स्थायी रूप से सुरक्षित कर सकता है। भारत में पहली बार विकसित देश एक राज्य सरकार के माध्यम से नर्सों की भर्ती कर रहे हैं।’
इन्हीं कुछ कारणों से पिछले कई वर्षों में केरल से भारी मात्रा में महिला नर्सों के आव्रजन की संख्या बढ़ी है। इसके अंतर्गत लाभ पाने वाली दीपा जोस ने कहा, “इसमें कोई एजेंट शामिल नहीं है, वेटिंग पीरियड न्यूनतम है और धोखेबाजी होने का कोई डर नहीं है।” जोस ने बताया कि कैसे नर्सों ने पहले यूरोप में नौकरी पाने के लिए एजेंटों को पैसा दिया और फिर वर्षों तक इंतजार किया था। इसके बाद उन्हें दूसरे देशों में नौकरी करनी पड़ी थी।
वैसे क्या बदलाव हुए हैं, जिसके कारण ऐसे दावे किए जा रहे हैं? इसके अनेक जवाब हो सकते हैं, जैसे कोविड के बाद नर्सों की बढ़ती मांग के बीच यूरोपीय देशों ने अनुभव की आवश्यकता को एक वर्ष तक कम कर दिया है। साथ ही ऊपरी आयु सीमा को बढ़ाकर 45 वर्ष कर दिया गया है। अब पहले की तरह लैंग्वेज में बहुत बेहतर होने की शर्त भी नहीं है। वे शॉर्टलिस्ट किए गए उम्मीदवारों को विदेशी भाषा की ट्रेनिंग मुफ्त देते हैं। साथ ही उम्मीदवारों को उनकी पसंद और रुचि के विभाग में तैनात किया जाता है। सबसे महत्वपूर्ण बात भर्ती और ट्रेनिंग केरल सरकार के माध्यम से होती है, जिससे एजेंट द्वारा ठगे जाने का डर दूर हो जाता है।
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विदेशों से फैली महामारी
अब एक और घटना पर ध्यान देते हैं जो विदेशों से फैली महामारी से संबंधित है। अब इसे संयोग कहें या कुछ और यह विचारणीय है लेकिन केरल ही वह जगह है जहां COVID-19 संक्रमण का पहला मामला दर्ज किया गया था। 27 जनवरी 2020 को एक 20 वर्षीय महिला सूखी खांसी और गले में खराश के कारण जब अस्पताल पहुंची तो उसे आपातकालीन वार्ड में ले जाया गया। बाद में यह बताया गया कि 20 वर्षीय केरल की रहने वाली लड़की चीन के वुहान विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली छात्रा थी और चीन में संक्रमण फैलने के बाद जल्द ही भारत में आई थी।
केवल में यही दो बीमारियां नहीं बल्कि वेस्ट नाइल फीवर, निपाह जैसी महामारी भी सबसे पहले इसी राज्य में देखी गई है। तिरुवनंतपुरम जिला जीका वायरस के प्रकोप का केंद्र बन गया। प्रश्न है आखिर क्यों, क्यों यह राज्य वायरल हमलों का एक गर्म स्थान बनता जा रहा है? ध्यान देने वाली बात है कि केरल भारत का वह राज्य है जो साफ़-सफाई और मानव विकास सूची में सबसे ऊपर है। 94 प्रतिशत साक्षरता दर के साथ केरल देश के अन्य सभी राज्यों को छोड़ शीर्ष पर है। अब साफ-सफाई इतनी अधिक हो और लोग साक्षर हों तो ऐसे में उस राज्य का इस तरह से बीमारियों का गर्भ स्थान बन जाना बहुत ही चौंकाने वाली बात है।
अगर आपने ध्यान दिया हो तो निपाह, कोरोना और वेस्ट नाइल फीवर वे बीमारियां हैं जो विदेश में जन्मी हैं। इनका भारत से कोई लेना-देना नहीं, कम से कम तब तक तो बिल्कुल भी नहीं जब तक यह तूफ़ान तेजी से फैलने नहीं लगा। केरल के वायरल हमलों की चपेट में आने का एक मुख्य कारण इस बात को माना जा सकता है कि केरलवासी दुनिया भर में फैले हुए हैं। केरल से बार-बार ऐसी संक्रामक ‘विदेशी’ बीमारियों की शुरुआत की खबरें आती हैं, हाल का मामला मंकीपॉक्स से जुड़ा है परंतु तैयारी और समाधान निल बट्टे सन्नाटा है।
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स्वास्थ्य संरचना लगभग नगण्य है
कहने को केरल में लगभग शत प्रतिशत साक्षरता है, लेकिन यहां स्वास्थ्य संरचना लगभग नगण्य है। कोरोना में इस राज्य का क्या हाल हुआ था, ये किसी से नहीं छुपा है। बहुप्रतीक्षित केरल स्वास्थ्य मॉडल को कोविड-19 महामारी ने अच्छी तरह से उजागर कर दिया है। जब भारत बड़े पैमाने पर टीकाकरण की राह पर चल रहा था, केरल अभी भी एक दिन में 7000 से अधिक कोविड मामले दर्ज कर रहा था। हां, एक दिन में।
केरल में अक्टूबर और नवंबर 2020 के दौरान आईसीयू बेड, एम्बुलेंस और उचित देखभाल की व्यापक कमी की सूचना मिली। ये तो कुछ भी नहीं है। कुछ ही माह पूर्व प्रकाशित टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार केरल वास्तव में लगभग 20 प्रतिशत वैक्सीन बर्बादी के लिए जिम्मेदार है। रिपोर्टों के अनुसार, केरल में विशेष रूप से निजी अस्पतालों में, टीकों के लिए कोई खरीदार नहीं हैं जिसके कारण टीकों की बर्बादी हो चुकी है। यहां तक कि सरकार की ओर से मुहैया कराए जा रहे मुफ्त टीके भी खत्म हो गए।
समझने वाली बात है कि एक देश से दूसरे देश में काम करने जाना या अपनी सेवाएं देने जाना कोई नयी या बुरी बात नहीं हैं लेकिन जिन सेवाओं की पहले अपने घर में आवश्यकता हो उसको अनदेखाकर पड़ोस में सेवाएं देने चला जाना भी सही नहीं है। नर्सों के द्वारा अपने देश में सेवाएं न देने की जगह बाहर जाकर काम करना, क्या ऐसी स्थिति पर हम गर्व कर सकते हैं? जब गृह राज्य में स्वास्थ्य सुविधाएंं लगभग नगण्य हैं, केरल में आवश्यक स्वास्थ्य संरचना की कमी है, ऐसे में ये आंकड़े गर्व कम, उपहास ज्यादा सिद्ध होते हैं।
रिपोर्ट्स की माने तो भारत की 90% रजिस्टर्ड नर्सें हैं केरल में। 20 लाख नर्सों की संख्या में 18 लाख तो केवल केरल से हैं। पर जब अधिक से अधिक संख्या में केरल से नर्सें विदेश चली जाती है तो राज्य के निजी अस्पतालों में दिक्कतें होती है। यहां कई-कई अस्पतालों में 50 फीसदी पद रिक्त हैं जो कि स्नातक और अनुभवी स्टाफ नर्सों के हैं। आईसीयू हो या सीसीयू या फिर ऑपरेशन थिएटर ही क्यों न हो, ऐसे महत्वपूर्ण मोर्चों पर नर्सों की भारी कमी है। ऐसी स्थिति में निजी अस्पतालों ने दूसरे राज्यों से नर्सों को नियुक्त करना प्रारंभ किया है।
केरल की बर्बाद स्वास्थ्य व्यवस्था एक गंभीर सवाल खड़ा करता है कि क्या यह बेहतर नहीं होता कि पिनाराई विजयन सरकार नर्सों को बेहतर सुविधाएं प्रदान करती ताकि ये नर्स विदेश जाने की जगह देश में ही अपनों की सेवा कर रही होतीं? इससे राज्य को तबाही से बचाया जा सकता था और अपने परिजनों से दूर होने का दुख इन नर्सों को नहीं झेलना पड़ता।
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