हर नगर की स्थापना के पीछे की एक कथा होती है और भारत में कथाओं का ऐसा अनंत भंडार है जिसका कोई हिसाब नहीं है। हर नगर का अपना भव्य इतिहास है और ऐसा ही एक नगर है चित्रकूट। नहीं-नहीं, हम रामायण के चित्रकूट की बात नहीं कर रहे हैं अपितु मेवाड़ के भव्य चित्रकूट की बात कर रहे हैं जिसे आज हम चित्तौड़ के नाम से जानते हैं। टीएफआई प्रीमियम में आपका स्वागत है। आज के इस लेख में हम जानेंगे कि चित्रकूट, चित्तौड़ कैसे बना और इस नगर से जुड़ी रोमांचक कथा क्या है। यहीं से शुरू होती है बप्पा रावल की कहानी।
चित्तौड़ की उत्पत्ति
चित्तौड़ की उत्पत्ति की अनेक दंतकथाएं हैं परंतु एक कथा महाभारत से उत्पन्न होती है। चित्तौड़ भारत के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना सोमनाथ मंदिर, ऐसे में उसकी उत्पत्ति की कथा का भी अपना ही महत्व है। भांति-भांति के लोग आए, शासन हुआ, आक्रमण भी किए गए परंतु चित्तौड़ की भव्यता कभी धूमिल नहीं पायी। आज जो गौरव सोमनाथ मंदिर का है, एक समय में वही मेवाड़ के चित्रकूट यानी चित्तौड़ का हुआ करता था।
कहते हैं कि पवनपुत्र, महाबली भीम ने अमरत्व के रहस्यों को समझने हेतु इस स्थान का दौरा किया और एक पंडित को अपना गुरु बनाया। चूंकि अधीरता भीम के व्यक्तित्व का एक अभिन्न अंग था इसलिए समस्त प्रक्रिया को पूरी करने से पहले अधीर होकर वे अपना लक्ष्य नहीं पा सके और प्रचण्ड गुस्से में आकर उन्होंने अपना पांव जोर से जमीन पर मारा, जिससे वहां पानी का स्रोत फूट पड़ा। इस जलकुंड को भीम-ताल कहा जाता है।
यह स्थान मौर्य अथवा` मोरी वंश के अधीन आ गया जिसने मेड़पात यानी मेवाड़ राज की स्थापना की। परंतु प्रश्न अब भी व्याप्त है– चित्रकूट चित्तौड़ बना तो बना कैसे? अब इसका उत्तर तो अरबी भाईजान ही बेहतर दे पाएंगे।
समय था 712 ईस्वी, जब भारत पर अरबी आक्रान्ताओं का आक्रमण हुआ और तब चित्रकूट के दुर्ग पर मोरी शासकों का राज था। परंतु उनका न शासन पर कोई ध्यान था और न तो धर्म पर। इसी कारणवश अरब आक्रांता को इतना बल मिला कि वे मध्य भारत तक आक्रमण करने को तैयार हो चुके थे, इस तरह से चित्रकूट दुर्ग एवं मेड़पात लगभग अरबियों का दास बन चुका था। इसी बीच उदय हुआ कालभोजादित्य का, जैसे मथुरा में कंस के अत्याचारों से मुक्त कराने हेतु उदय हुआ श्रीकृष्ण का। इतिहास इसी वीर योद्धा को गुहिल सम्राट बप्पा रावल के नाम से बेहतर जानता है।
अब आज भी कई लोग अनभिज्ञ है कि बप्पा रावल का वास्तविक नाम क्या था? कई इतिहासकारों का मानना था कि कालभोज ही बप्पा रावल थे, लेकिन इतिहासकार आरवी सोमानी का मानना है कि बप्पा रावल का वास्तविक नाम एक रहस्य ही है। परन्तु इस बात में कोई संदेह नहीं कि वे गुहिल वंश के जनक थे और उन्होंने ही 8वीं शताब्दी में मेवाड़ की स्थापना की थी। अब कुम्भलगढ़, डूंगरपुर इत्यादि के शिलालेखों में ये भी स्पष्ट रूप से अंकित हैं कि बप्पा रावल ने चित्रकूट नामक नगर की स्थापना की, जो आगे चल चित्तौड़ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। परंतु इतना तो स्पष्ट है कि चित्रकूट हो या चित्तौड़, इस नगर को उसकी वास्तविक पहचान बप्पा रावल ने ही दी।
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बप्पा रावल के बारे में
गुहिल वंश के संस्थापक बप्पा रावल के बारे में महाराणा कुंभा के समय में रचित एकलिंग महात्म्य में विस्तार से विवरण दिया है। कहते हैं कि ब्राह्मण कुल में जन्मे कालभोजादित्य के पिता एक वीर योद्धा थे जिनकी हत्या कर दी गई थी। ऐसे में जब बप्पा रावल 3 वर्ष के थे तब वे और उनकी माता जी असहाय महसूस करने लगी थीं। भील समुदाय ने उन दोनों की सहायता कर उन्हें सुरक्षित रखा। बप्पा रावल का बचपन भील जनजाति के बीच रहकर बीता और भील समुदाय ने अरबों के विरुद्ध युद्ध में बप्पा रावल का सहयोग किया। कालभोजादित्य को बप्पा रावल की उपाधि भील सरदारों ने दी थी।
यदि बप्पा रावल का राज्यकाल 30 साल का रखा जाए तो वह सन् 723 के लगभग सिंहासन पर बैठे होगे। बप्पा ने सर्वप्रथम हरित ऋषि की कृपा से मानमोरी का संहार कर चित्रकूट का उद्धार किया। इतिहासकार जेम्स टॉड को यहीं राजा मानका वि. सं. ७७० (सन् ७१३ ई.) का एक शिलालेख मिला था जो सिद्ध करता है कि बप्पा और मानमोरी के समय में विशेष अंतर नहीं है।
इतना ही नहीं, जब अवन्ति के सम्राट नागभट प्रथम ने अरबों के विरुद्ध क्रांति की ज्योत जलाई, तो उनका साथ देने के लिए अनेक योद्धा आए, जिनमें सर्वाधिक योगदान दिया कारकोट सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड़ एवं मेवाड़ राजा बप्पा रावल ने। नागभट प्रथम ने अरबों को पश्चिमी राजस्थान और मालवे से मार भगाया।
बप्पा ने यही कार्य मेवाड़ और उसके आसपास के प्रदेश के लिए किया। मौर्य (मोरी) शायद इसी अरब आक्रमण से जर्जर हो गए हों। बप्पा रावल ने वह कार्य किया जो मोरी करने में असमर्थ थे और साथ ही चित्तौड़ पर भी अधिकार कर लिया। बप्पा रावल की रणनीति स्पष्ट थी – विजय ही प्रगति का पथ है, या जैसे द ताशकंद फाइल्स के एक संवाद में परिलक्षित होता है, “हारे हुए लोग देश की तकदीर नहीं बदलते!”,
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मुक्तपीड़ और बप्पा रावल के बीच संधि
कहते हैं कि ललितादित्य मुक्तपीड़ और बप्पा रावल के बीच जो संधि और मित्रता हुई थी, उसके कारण अरबों को ऐसी हानि हुई, जिसके कारण 3 शताब्दियों तक कोई भारतवर्ष की ओर आंख उठाकर नहीं देख सका। इन्हीं बप्पा रावल के वंशजों ने चित्रकूट का ऐसा उद्धार किया कि वह शनै शनै चित्तौड़ के भव्य दुर्ग में परिवर्तित हो गया। यह लगभग 14वीं शताब्दी तक अजेय रहा, यानी स्वयं कुतुबउद्दीन ऐबाक जैसे दुर्दांत आक्रांता भी इस स्थान का कुछ नहीं बिगाड़ सके। परंतु अलाउद्दीन खिलजी के आते -आते चित्तौड़ के दुर्ग पर विपदा के बादल मंडराने लगे, और रावल रत्न सिंह के पराजय एवं मृत्यु के साथ ही चित्तौड़ पर संकट आ पड़ा।
परंतु जब अत्याचार की सीमा पार होने लगती है, तो धर्म भी अपने अनोखे मार्ग चुनता है। चित्तौड़ के उन्हीं अवशेष से उत्पन्न हुए थे एक योद्धा अजय सिंह जो सिसोद ग्राम से आते थे। इन्हें ज्ञात हुआ कि इनके वंश का एक बालक अभी भी जीवित है, ऐसे में वे तुरंत उसे ढूंढने निकल पड़े। उस बालक को मिलने में कई वर्ष लगे, परंतु उसके मिलते ही अजय सिंह को मानो लगा कि उनका संकल्प पूर्ण होने में अब देर नहीं। ये कोई और नहीं, हम्मीर सिंह सिसोदिया थे जो बाद में चलकर मेवाड़ के प्रथम महाराणा बने और जिन्होंने चित्तौड़ की महिमा और गरिमा को पुनर्स्थापित करने हेतु अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया।
ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि आज चित्तौड़ की जो भव्यता, जो शौर्य है, उसका एकमात्र कारण है बप्पा रावल, जिनके शौर्य और उनके योगदान के कारण आज भी ये दुर्ग अपने भीतर अनेक कथाओं के साथ विद्यमान है। कौन कहता है भारत में ताज महल के अतिरिक्त कुछ भी देखने योग्य नहीं? तनिक दृष्टि को तेज कीजिए, एक भव्य संसार आपके स्वागत को प्रतीक्षारत है।
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