वर्ष था 1999, 20वीं सदी का अंत निकट था। इस समय भारतीय उपमहाद्वीप में काफी उथल-पुथल मची थी। भारत और पाकिस्तान, दोनों ने एक के बाद एक परमाणु परीक्षण किए। भारत के लिए पोखरण में उनका दूसरा परीक्षण था और पाकिस्तान के लिए ये अपनी क्षमता से अधिक भारत को उत्तर देने का प्रश्न बन गया था। परंतु कुछ ही समय बाद एक ऐसा निर्णय दोनों देशों ने लिया, जिससे सब के सब हक्के बक्के रह गए, भू राजनैतिक विश्लेषक भी।
इस लेख में पढ़ें कैसे भारत-पाकिस्तान के बीच अप्रत्याशित साझेदारी बनते-बनते रह गई।
लाहौर समझौते की घोषणा
अब शांति समझौते कोई नई बात नहीं है, विशेषकर भारत और पाकिस्तान के लिए। परंतु 1999 के लाहौर समझौते में ऐसी क्या विशेष बात थी जो इसे अलग बनाती है? प्रथम: ये युद्ध के उपरांत नहीं हुआ था।
द्वितीय, पहल भले ही भारत ने की पर आश्चर्यजनक रूप से पाकिस्तानी प्रशासन भी लाहौर समझौते से जुड़ने को इच्छुक था, और तृतीय: इस समझौते से शायद पहली बार भारत और पाकिस्तान के संबंधों की कड़वाहट कम हो सकती थी, जो इससे पूर्व के अनेकों समझौतों के बाद भी विद्यमान रही।
21 फरवरी 1999, यह वो दिन था, जब भारतीय उपमहाद्वीप की राजनीति में “व्यापक परिवर्तन” आ सकता था। 1999 में इसी दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पाकिस्तान के पीएम नवाज शरीफ ने एक संधि पर हस्ताक्षर किए जिसे लाहौर घोषणा कहते हैं।
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इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ राजनीतिज्ञों एवं कलाकारों का एक विशाल जत्था पाकिस्तान पहुंचा था। जिसमें देव आनंद, कपिल देव, शत्रुघ्न सिन्हा जैसी हस्तियां भी उपस्थित थी।
लाहौर में जबरदस्त स्वागत के बीच वाजपेयी ने कहा था, ‘मैं अपने साथी भारतीयों की सद्भावना और आशा लेकर आया हूं जो पाकिस्तान के साथ स्थायी शांति और सौहार्द चाहते हैं। मुझे पता है कि यह दक्षिण एशिया के इतिहास में एक निर्णायक क्षण है और मुझे उम्मीद है कि हम चुनौती का सामना करने में सक्षम होंगे।’ दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच बातचीत के बाद लाहौर समझौते पर दस्तखत हुए।
पाकिस्तान ने छेड़ा युद्ध
दोनों देश परमाणु हथियारों के दुर्घटनावश या अवैध इस्तेमाल से जुड़े खतरे कम करने के लिए कदम उठाने पर राजी हुए। हालांकि, तस्वीर में वाजपेयी के चेहरे पर दिख रही मुस्कान ज्यादा दिन नहीं टिकी।
कुछ महीने बाद ही, पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर के कारगिल में अपने लड़ाके भेज दिए। इसके पीछे मस्तिष्क था जनरल परवेज मुशर्रफ का। नवाज शरीफ ने बाद में कहा भी कि ‘कुछ जनरलों ने पाकिस्तान को युद्ध में झोंक दिया।’
यह एक अघोषित नीति है कि पाकिस्तान में प्रशासन की कम, और आर्मी की अधिक चलती है, और जब भी इस व्यवस्था के विरुद्ध कोई आवश्यकता से अधिक मुखर हुआ है, उसका हाल या तो ज़ुल्फिकार अली भुट्टो जैसा हुआ है, या फिर इमरान खान जैसा।
उस समय पाकिस्तानी सेना का नेतृत्व भी कोई और नहीं, तत्कालीन सेनाध्यक्ष [और बाद में पाकिस्तान के सर्वेसर्वा] परवेज़ मुशर्रफ कर रहे थे, जो इससे पूर्व दो युद्धों में भारत का सामना कर चुके थे, और दोनों बार उन्होंने मुंह की खाई थी।
परवेज मुशर्रफ ने पाकिस्तान के आर्मी चीफ रहते हुए भारत के खिलाफ खूब षडयंत्र रचे। भारत और पाकिस्तान के बीच कारगिल युद्ध के दौरान परवेज मुशर्रफ ही पाकिस्तान के सेना प्रमुख थे। बताया जाता है कि इस युद्ध के बारे में उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को भी जानकारी नहीं दी थी। स्वयं नवाज़ शरीफ भी इस बात को कई बार दोहराए कि मुशर्रफ ने उन्हें बिना बताए युद्ध को अंजाम दिया था।
परवेज़ मुशर्रफ कश्मीर को कैसे भी हथियाने के लिए कितने प्रतिबद्ध थे, इस बात का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि जब लाहौर समझौते के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध थोड़े सुधरने लगे, तो उसी बीच पाकिस्तानी सेना ने LOC की बर्फीले स्थिति का लाभ उठाते हुए अपने कैंप जमाने के साथ-साथ भारतीय कैंप में भी घुसपैठ प्रारंभ कर दी।
उस समय दोनों सेनाओं के बीच एक अघोषित समझौता था कि जब भी सर्दी हद से अधिक बढ़ती, तो दोनों अपनी अपनी चौकी खाली कर देते, और जब अप्रैल के मध्य तक बर्फ पिघलना प्रारंभ होती, तो दोनों अपनी अपनी चौकियों पर पुनः डेरा जमा लेते। परंतु इस बार समय से पूर्व LOC पर घेराबंदी प्रारंभ कर दी।
पाकिस्तान की करारी हार
इसका अंदाज़ा भारतीयों को तब लगा, जब स्थानीय चरवाहों ने उन्हे घुसपैठ की सूचना दी। प्रारंभ में उन्हे मुजाहिदीन समझकर कुछ पैट्रोल पार्टी भेजे गए, परंतु जब कैप्टन सौरभ कालिया और उनके गुट का पाकिस्तानियों ने अपहरण किया और बर्बरता की सभी सीमाएँ लांघने के बाद उनकी जघन्य हत्या की, और भारतीय एयरफोर्स के दो पायलट अजय आहूजा और के नाचिकेत पाकिस्तान की गिरफ्त में आए, तो भारतीय सुरक्षाबलों को समझ में आ गया कि स्थिति ठीक नहीं है।
हालांकि परवेज मुशर्रफ को अपने मंसूबों में सफलता नहीं मिली और पाकिस्तान को इस युद्ध में भारी नुकसान उठाना पड़ा। प्रारंभ में ऊपर बैठे होने का लाभ शत्रुओं को मिला, परंतु जब भारतीय प्रशासन ने युद्ध की घोषणा की तो फिर धीरे-धीरे पाकिस्तानियों के पाँव उखड़ने लगे।
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इसके बाद परवेज मुशर्रफ ने कारगिल युद्ध में भारत से मिली करारी हार का ठीकरा तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ पर फोड़ दिया और साल 1999 में पाकिस्तान में मार्शल लॉ लागू कर उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का तख्तापलट कर सत्ता पर कब्जा कर लिया था और पाकिस्तान के राष्ट्रपति बन बैठे।
परवेज मुशर्रफ ने कई बार भारत के साथ धोखेबाजी करने का काम किया था। साल था 2002. नेपाल में सार्क देशों के सम्मेलन के समय जनरल परवेज मुशर्रफ तब पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे। उस दौरान अपने संबोधन में उन्होंने भारत से अच्छे संबंधों की दुहाई दी।
फिर अचानक ही मंच पर बैठे भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के पास पहुंचे और उनसे हाथ मिलाने के लिए हाथ आगे बढ़ा दिया जिसके बाद तत्कालीन भारतीय पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने भी उठकर उनसे हाथ मिला लिया। कहा जाता है कि अटल बिहारी वाजेपयी से हाथ मिलाते समय परवेज मुशर्रफ के हाथ कांप रहे थे। क्योंकि कारगिल युद्ध को हुए तक ज्यादा समय नहीं हुआ था।
जो भी कारिगल का युद्ध पाकिस्तान की बुरी हार के साथ खत्म हुआ था लेकिन भारत के कई वीर जवानों ने भी अपना बलिदान दिया था- ऐसे में लाहौर समझौते को फेल होना ही था- और वही हुआ। लाहौर समझौता इतिहास की गर्त में एक इवेंट बनकर रह गया, और भारत को एक और सबक दे गया कि आप कितनी भी बार सहयोग की पहल कर लो- शांति की पहल कर लो- पाकिस्तानी सेना कभी बदलने वाली नहीं है।
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