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भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह की वो कहानी जो दरबारी इतिहासकारों ने आपको कभी नहीं बताई

अजीत सिंह ने ही "पगड़ी संभाल जट्टा..." आंदोलन छेड़ा था!

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
28 February 2023
in इतिहास
The Story of Bhagat Singh's lesser known uncle, Ajit Singh

Source: BBC HINDI

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“पगड़ी संभाल जट्टा…”, गीत सुनते हुए निश्चित तौर पर आपको भगत सिंह का स्मरण होता होगा- लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि भगत सिंह इस गीत से प्रेरित थे, लेकिन वह इस विचार के मूल रचयिता नहीं थे। यह गीत एक आंदोलन का भाग था, जिसके प्रणेता उनके चाचा और क्रांतिकारी अजीत सिंह संधू थे।

इस लेख में अजीत सिंह के बारे में पढ़िए, जिन्होंने स्वतंत्र भारत में अंतिम श्वास लेने के अपने वचन को पूरा करके ही दम लिया।

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क्रांतिकारी विचारधारा से जुड़े थे अजीत सिंह

23 फरवरी, 1881 को जलंधर के खटकड़ कलां (अब शहीद भगत सिंह नगर) में जन्म लेने वाले अजीत सिंह के बारे में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने कहा था कि ये स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति बनने योग्य हैं। भगत सिंह के पिता किशन सिंह उनके बड़े भाई थे, सबसे छोटे भाई थे स्वर्ण सिंह जो किशन और अजीत की भांति क्रांतिकारी विचारधारा से जुड़े हुए थे।

तीनों भाइयों ने साईं दास एंग्लो संस्कृत स्कूल जालंधर से मैट्रिक की परीक्षा पास की। इसके पीछे एक बहुत महत्वपूर्ण कारण था: भले ही इनके पिता अर्जन सिंह जट्ट सिख थे, परंतु वे आर्य समाज के विचारों से बहुत प्रभावित थे और वे ब्रिटिश समर्थक सिखों की ओर आँख उठाना तो दूर, उनके संस्थानों तक में कदम नहीं रखना चाहते थे।

अजीत सिंह ने 1903-04 में बरेली लॉ कालेज से क़ानून की पढ़ाई पूरी की। 1903 में ही उनका विवाह कसूर के सूफी विचारों वाले धनपत राय की दत्तक पुत्री हरनाम कौर से हुआ। कुछ ही समय में वे कांग्रेस पार्टी के साथ जुड़ गए, जहां पर बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय एवं बिपिन चंद्र पाल का प्रभुत्व तेजी से उभर रहा था।

और पढ़ें: गांधी इरविन समझौता: जब महात्मा गांधी के एक निर्णय के विरुद्ध पूरा देश हो गया

1906 में दादा भाई नैरोजी की अध्यक्षता में कलकत्ता में  कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। यहाँ  वे बाल गंगाधर तिलक से बेहद प्रभावित हुए और वहाँ से लौट कर दोनों भाइयों किशन सिंह और अजीत सिंह ने भारत माता सोसाइटी या अंजुमन-मुहब्बाने वतन की स्थापना की और अंग्रेज़ विरोधी किताबें छापनी शुरू की।

1907 में अंग्रेज़ सरकार तीन किसान विरोधी क़ानून लेकर आई, जिसके विरुद्ध पंजाब के किसानों में भयंकर रोष की भावना पैदा हुई। अजीत सिंह ने आगे बढ़ कर किसानों को संगठित किया और पूरे पंजाब में सभाओं का सिलसिला शुरू हुआ, जिनमें पंजाब के वरिष्ठ कांग्रेस नेता लाला लाजपत राय को बुलाया गया।

इन तीन क़ानूनों का जिक्र भगत सिंह ने अपने लेख में किया है। नया कालोनी एक्ट, जिसके तहत किसानों की ज़मीन जब्त हो सकती थी, राजस्व और दोआब नहर के पानी की दर बढ़ा दी।

मार्च 1907 की ल्यालपुर [अब फ़ैसलाबाद] की एक बड़ी सभा में झंग स्याल पत्रिका के संपादक लाला बाँके दयाल जो पुलिस की नौकरी छोड़ आंदोलन में शामिल हो गए थे, ने एक मार्मिक कविता- पगड़ी संभाल जट्टा- पढ़ी, जिसमें किसानों के शोषण की व्यथा वर्णित है, जो इतनी लोकप्रिय हुई कि उस किसान प्रतिरोध का नाम ही कविता के नाम पर पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन पड़ गया।

 

अजीत सिंह पर देशद्रोह का केस

21 अप्रैल 1907 में रावलपिंडी की ऐसी ही बड़ी मीटिंग में अजीत सिंह ने जो भाषण दिया, उसे अंग्रेज़ सरकार ने बहुत ही विद्रोही और देशद्रोही भाषण माना और उन पर धारा 124-ए के तहत बाद में केस दर्ज किया। पंजाब भर में ऐसी 33 बैठकें हुई, जिनमें से 19 में अजीत सिंह ही प्रमुख वक्ता थे, क्योंकि एक तो वे कांग्रेस के “गरम दल” के प्रणेताओं में से एक थे, और दूसरा, वे लाला लाजपत राय के विश्वासपात्रों में से एक थे।

भारत में अंग्रेज़ सेना के तत्कालीन कमांडर लार्ड किचनर को आशंका हुई कि इस आंदोलन से सेना और पुलिस के किसान घरों के बेटे विद्रोह कर सकते हैं और तत्कालीन पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर भी इस बात पर सहमत थे।

और पढ़ें: बेनेगल नरसिंह राऊ: भारतीय संविधान के वास्तविक रचयिता

ऐसे में भले ही ब्रिटिश सरकार ने कानून रद्द कर दिया, परंतु लाला लाजपत राय और अजीत सिंह को हिरासत में लिया और उन्हे बर्मा की मंडले जेल भेज दिया, जो कई मायनों में कालापानी से कम नहीं थी।

तो भगत सिंह का अजीत सिंह से कैसा नाता था? किशन सिंह के ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते भगत का उन पर विशेष स्नेह था और भगत के जन्म का संयोग ऐसा था कि जिस दिन वे जन्मे, उसी दिन जेल में बंद उनके चाचाओं की रिहाई का ऑर्डर भी आ गया और इसीलिए भगत के दादा अर्जन सिंह उन्हे प्यार से “भागनलाल” [भाग्यों वाला] बुलाते थे।

जब अजीत सिंह वापिस आए तो उन्हे किसानों का राजा कहकर एक ताज पहनाया गया, जो आज भी बंगा के भगत सिंह संग्रहालय में प्रदर्शित है। सूरत से लौट कर अजीत सिंह ने पंजाब में तिलक आश्रम की स्थापना की, जो उनके विचारों का प्रसार करता था, परंतु अंग्रेज़ों की कुंठा अभी खत्म नहीं हुई थी।

अंग्रेज़ सरकार उनके विद्रोही विचारों के कारण उनके विरुद्ध कुछ बड़ी कार्रवाई करने की योजना बना रही थी। ऐसे में अजीत सिंह को आभास हो गया कि स्थिति ठीक नहीं है और न ही वे स्वर्ण सिंह की भांति जेल में घुट-घुटकर मरना चाहते थे। स्वर्ण सिंह पर झूठे आरोप लगाकर उन्हे खूब यातनाएँ दी गई थी, जिसके कारण जेल में तपेदिक के रोग के कारण वे 1910 में ही परलोक सिधार गए।

ऐसे में सूफी अंबा प्रसाद के साथ अजीत सिंह कराची से समुद्री जहाज़ पर सवार होकर ईरान चले गए। इस बात पर आज भी संदेह है कि वे 1909 में गए थे या 1911 में, परंतु जब तक अंग्रेज़ों को स्थिति का पता चला, अजीत सिंह भारत से गायब हो चुके थे।

 

विदेशों में जुटाया समर्थन

अब उनका नाम मिर्ज़ा हसन खान था, जिस नाम से बाद में उनका ब्राज़ील का पासपोर्ट भी बना। कहीं न कहीं इन्ही से प्रेरित होकर विनायक दामोदर सावरकर भी 1910 में समुद्र में एस एस मोरिया की खिड़कियों यानी पोर्टहोल से कूद पड़े और तैरकर फ्रांस के तट पहुंचे थे, वो अलग बात है कि उन्हे अजीत की भांति सफलता नहीं मिली।

तद्पश्चात अजीत सिंह ने विदेश में रहते हुए भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के लिए समर्थन जुटाना प्रारंभ किया। कभी ईरान, तो कभी तुर्की, तो कभी वे फ्रांस, जर्मनी, स्विट्जरलैंड आदि में रुके। कमाल पाशा, लेनिन, ट्रॉट्स्की जैसे विदेशी क्रांतिकारियों व लाला हरदयाल, वीरेंदर चट्टोपाध्याय और चम्पक रमन पिल्लै जैसे भारतीय क्रांतिकारियों से मिले। 1914 में वे ब्राज़ील चले गए और 18 साल तक वहीं रहे, जहां वे निरंतर गदर पार्टी के संपर्क में रहे।

स्वास्थ्य संबंधी कारणों से वे कुछ समय अर्जेंटीना में भी रहे और जीविका के लिए वे विदेशियों को भारतीय भाषाएँ पढाते थे और भाषा प्रोफेसर पद पर भी रहे, वे चालीस भाषाओं के वे ज्ञाता हो चुके थे। परंतु इस बीच उन्होंने परिवार से नाता बनाए रखा।

भगत सिंह अपने चाचा की खोज खबर के लिये अपने मित्रों को लिखते रहते थे, उसी के जवाब में प्रसिद्ध लेखिका व भारतीय क्रांतिकारियों से सहानुभूति रखने वाली एगनेस स्मेडली ने मार्च 1928 में बीएस संधू लाहौर के नाम पत्र में उनका ब्राज़ील का पता भेजा।

1932 से 1938 तक अजीत सिंह यूरोप के कई देशों, लेकिन ज़्यादातर स्विट्जरलैंड में रहे। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान वे इटली में आ गए थे। इटली में वे नेताजी सुभाष बोस से मिले, जो उस समय काउंट ओरलैन्डो मज़ोट्टा के नाम से शरण लिए हुए थे और वहाँ 11000 बंदी सैनिकों की सहायता से “आज़ाद हिन्द फौज” के प्रथम दस्ते का भी गठन कर रहे थे।

 

स्वतंत्रता भारत में ली अंतिम श्वास

विश्व युद्ध समाप्त होने पर उन्हे कुछ समय जेल में भी गुज़ारना पड़ा क्योंकि इटली से संबंध होने के नाते उन्हे कुछ लोग “नाजी समर्थक” की दृष्टि से भी देखते थे। परंतु तब अनेक कांग्रेस नेताओं ने उनके लिए पैरवी की और 7 मार्च 1947 को वे 38 साल बाद भारत लौटे। 9 अप्रैल को वे लाहौर पहुंचे तो उनका ज़बरदस्त स्वागत किया गया परंतु धीरे-धीरे उन्हे आभास होने लगा कि ये उनका भारत नहीं है, क्योंकि विभाजन के बादल देश पर मंडराने लगे थे।

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खराब स्वास्थ्य के कारण वे गाँव नहीं जा सके और उन्हें स्वास्थ्य लाभ के लिए जुलाई 1947 में डलहौज़ी जाना पड़ा। इसी बीच उन्हे भारत के विभाजन की खबर मिली, जिससे वे काफी दुखी हुए, परंतु इस बात से भी आश्वस्त थे कि उनकी अंतिम श्वास स्वतंत्र भारत में ही ली जाएगी।

अंत में 14-15 अगस्त 1947 की मध्य रात में हिंदुस्तान में ब्रिटिश राज खत्म होने पर प्रधानमंत्री नेहरू का भाषण सुन कर सुबह करीब 3.30 बजे उन्होंने जय हिन्द कह कर सदा के लिए आँखें मूँद लीं। डलहौज़ी में ही उनका स्मारक पंजपूला पर बना है, जहां अब हजारों लोग उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं।

अजीत सिंह ने अपने जीवन की अंतिम श्वास तक एक अखंड और सशक्त भारत के लिए लड़ाई लड़ी। वे भारत को अखंड भले ही न रख पाए परंतु अपने देश को स्वतंत्र करने का वचन अवश्य पूरा कर पाए। ये दुर्भाग्य की बात है कि ऐसे वीर नायकों को स्मरण करने में लोग बगलें झाँकने लगते हैं, जबकि जिन्होंने मक्खी भी न मारी हो, उन नेताओं के नाम पर सड़कों से लेकर संग्रहालय तक बनवा देते हैं।

Sources:

Revolutionaries: The Other Story of How India won its Freedom by Sanjeev Sanyal

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Tags: Bhagat Singh RelativesBhagat Singh uncle Ajit Singhभगत सिंह के चाचा अजीत सिंहसरदार अजीत सिंह
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