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खालिस्तान और आपातकाल के विरुद्ध खुशवंत सिंह के अभियान की ये है अनकही कहानी

खुशवंत सिंह को एक अलग दृष्टिकोण से देखिए

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
13 February 2023
in इतिहास, ज्ञान
खुशवंत सिंह

SOURCE TFI

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एक समय था, जब लोग अखबार तो अखबार, अंग्रेज़ी अखबारों के संपादकीय तक चाव से पढ़ते थे। इसमें भी कुछ लोग विशेष रूप से एक लेखक के विचारों की प्रतीक्षा करते थे, जिनके हर मत का शीर्षक होता, “With Malice towards One and All”। ऐसा व्यंग्य लिखना खुशवंत सिंह के लिए बाएं हाथ का खेल था, और वे किसी को भी नहीं छोड़ते थे, किसी को भी नहीं।

लोग कई बार कहते हैं कि पिता के गुण सदैव पुत्र में नहीं आते। परंतु कभी कभी उल्टा भी मामला होता है। ऐसा भी होता है कि पिता जैसा भी हो, पुत्र ऐसा सपूत निकले कि वह अपने पिता के कर्मों का ही प्रायश्चित कर दे। खुशवंत सिंह भी ऐसे एक मनुष्य थे। 1915 में अविभाजित पंजाब के हदाली क्षेत्र में जन्मे खुशवंत एक सम्पन्न परिवार से नाता रखते थे। इनके पिता, सरदार बहादुर सोभा सिंह एक अति धनाढ्य अभियंता थे, जिन्होंने नई दिल्ली के कई चर्चित संस्थानों एवं क्षेत्रों के निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जैसे राष्ट्रीय संग्रहालय, कनॉट प्लेस इत्यादि।

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1929 की वो घटना

परंतु वे इसके लिए कम और एक घटना के कारण अधिक चर्चा में आए। 1929 में उन्होंने असेंबली में हुए बम कांड के प्रमुख आरोपियों के विरुद्ध अपनी गवाही दी।

अब खुशवंत सिंह भी सोभा सिंह से कम नहीं थे। एक तो विदेश में शिक्षा, उसके ऊपर से हर प्रकार की सुविधा। परंतु कई राजनीतिक घटनाओं, विशेषकर भारत के विभाजन ने उनकी विचारधारा काफी हद तक बदल दी। वे विशुद्ध नास्तिक नहीं थे, परंतु उन्हें ईश्वर के अस्तित्व में संदेह था। इसके साथ ही वे प्रखर राष्ट्रवादी भी थे। “ट्रेन टू पाकिस्तान”, “दिल्ली” जैसे कई लोकप्रिय उपन्यास इन्ही के हाथों से रचे गए थे।

खुशवंत सिंह 1970 तक आते आते साहित्य एवं राजनीति में एक जाना माना नाम बन चुके थे। परंतु जितने ही वे सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के निकट कहलाये जाते थे, उतने ही उनकी खोखली नीतियों पर कटाक्ष भी करते। प्रारंभ में उन्होंने आपातकाल का समर्थन किया था, परंतु जैसे-जैसे उन्हे इसकी वास्तविकता समझ में आई, उन्होंने इंदिरा गांधी का सार्वजनिक विरोध भी किया।

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खुशवंत सिंह का व्यक्तित्व

परंतु 1980 के बाद खुशवंत सिंह का जो व्यक्तित्व सामने आया, उस पर कम ही लोग चर्चा करते हैं। वे उन चंद सिख साहित्यकारों एवं पत्रकारों में सम्मिलित थे, जिन्होंने सर्वप्रथम जरनैल सिंह भिंडरावाले जैसे अलगाववादी की पोल खोली, और अपने एजेंडे की आड़ में उसकी हिंदुओं के प्रति घृणा की भी भर्त्सना भी की। उन्होंने ऑपरेशन ब्लूस्टार की निंदा अवश्य की और सरकार को अपना पद्म भूषण का सम्मान भी लौटाया, परंतु उन्होंने कभी भी खालिस्तानियों को अपना समर्थन नहीं दिया।

इसके अतिरिक्त खालिस्तानियों के अलगाववादी एजेंडे को भी खुशवंत सिंह ने चीर फाड़ डाला था। उन्होंने भिंडरावाले को एक अवसर पर रक्तपिपासु की संज्ञा दी और साथ ही साथ उन्होंने अन्य सिखों को इससे दूर रहने को भी कहा। इतना ही नहीं, उन्होंने अलगाववादियों की पोल खोलते हुए उनके “बेअदबी” के आरोपों को भी झूठा बताया और कहा कि अगर खालिस्तानियों की आपत्ति को ध्यान में रखते हुए आदि ग्रंथ [सिखों की पवित्र पुस्तक] से सनातन संस्कृति वाले सभी शब्द और छंद हटाने प्रारंभ करें, तो अंत में पुस्तक के बाइंडिंग के अतिरिक्त कुछ नहीं बचेगा।

और पढ़ें- महाजनपदों का गौरवशाली इतिहास: भाग 4- अवंती

खालिस्तानियों के रडार पर खुशवंत सिंह

कहीं न कहीं इसीलिए खालिस्तानियों के रडार पर अगर एक ओर केपीएस गिल थे, तो दूसरी ओर खुशवंत सिंह भी थे। परंतु उन्हे तनिक भी अंतर नहीं पड़ा, और वे अपने व्यंग्यबाणों से सभी की धुलाई करते। ऐसे ही 2014 में उनका देहावसान हो गया, और सिख समुदाय का निष्पक्ष चित्रण एवं उनका प्रतिनिधित्व करने वाली एक प्रख्यात हस्ती सदा के लिए सो गई।

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