“सिर्फ गांधी ही एक रास्ता नहीं है। अवाम [जनता] अपने आप में इतनी ताकतवर है कि यदि उसे सही दिशा दी जाए, तो वह बड़ी से बड़ी सत्ता को उखाड़कर फेंक सकता है”
इसी विचार को मन में लिए कुछ मतवाले युवाओं ने भारत को स्वतंत्र कराने के लिए एक अनोखा मार्ग चुना। ये व्यक्तिगत रूप में सफल हुए हों या नहीं, लेकिन जैसे एक समय नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कहा था, “इनके बलिदान और देशभक्ति की भावना से कोई इनकार नहीं कर सकता”। और यही सत्य है.
इस लेख में पढिये कि कैसे 100 वर्ष बाद भी हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन का अपना अलग महत्व है, जिसे चाहकर भी गांधी और नेहरू के अनुचर नहीं मिट पाए।
असहयोग आंदोलन के रद्द होने से आक्रोशित युवाओं का सम्मेलन
असहयोग आंदोलन को बिना सोचे समझे रद्द करने से जनता आक्रोशित हो गई। कुछ लोग चित्तरंजन दास की तरह ब्रिटिश प्रशासन के भीतर रहकर उन्हे स्वतंत्रता देने के लिए विवश करना चाहते थे, तो कुछ इन सबसे दूर रहकर कांग्रेस की विचारधारा को आगे बढ़ाना चाहते थे।
इसी बीच जनवरी 1923 में देशबन्धु चितरंजन दास सरीखे धनाढ्य लोगों ने मिलकर स्वराज पार्टी बना ली। इससे प्रेरित होकर नवयुवकों ने क्रांतिकारी तरीकों को बढ़ावा देने वाली रिवोल्यूशनरी पार्टी की घोषणा की। सितम्बर 1923 में हुए दिल्ली के विशेष कांग्रेस अधिवेशन में असन्तुष्ट नवयुवकों ने यह निर्णय लिया कि वे भी अपनी पार्टी का नाम व संविधान आदि निश्चित कर राजनीति में दखल देना शुरू करेंगे अन्यथा देश में लोकतन्त्र के नाम पर लूटतन्त्र हावी हो जायेगा।
उस समय देश में लाला हरदयाल माथुर, जो गदर पार्टी के सह संस्थापक थे, और विदेश में रहकर हिन्दुस्तान को स्वतन्त्र कराने की रणनीति बनाने में जुटे हुए थे, राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ के सम्पर्क में स्वामी सोमदेव के समय से थे। लाला जी ने ही पत्र लिखकर बिस्मिल को शचींद्रनाथ सान्याल व यदु गोपाल मुखर्जी से मिलकर नयी पार्टी का संविधान तैयार करने की सलाह दी थी। लाला जी की सलाह मानकर बिस्मिल इलाहाबाद गये और शचींद्रनाथ सान्याल के घर पर पार्टी का संविधान तैयार किया। बहुत कम लोग जानते हैं कि इन्ही के समर्थकों में से एक डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार भी थे, जिन्होंने आगे चलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की।
नवगठित पार्टी का नाम संक्षेप में एच॰आर॰ए॰ रखा गया व इसका संविधान पीले रंग के पर्चे पर टाइप करके सदस्यों को भेजा गया। पार्टी की स्थापना यूं तो काशी में हुई थी, परंतु 3 अक्टूबर 1924 को कानपुर में इसे मूर्त रूप दिया गया। इस विशेष बैठक में शचींद्रनाथ सान्याल, योगेश चन्द्र चटर्जी व राम प्रसाद बिस्मिल आदि कई प्रमुख सदस्य शामिल हुए, और इसी में काशी विद्यापीठ का एक किशोर विद्यार्थी प्राणवेश चटर्जी के अनुरोध पर सम्मिलित हुआ, जो आगे चल इस पार्टी को एक नई दिशा देने वाला था।
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“दि रिवोल्यूशनरी” और काकोरी विद्रोह से हुआ जन जन में परिचय
प्रारंभ में आयरिश क्रांतिकारियों की पद्वति पर चलते हुए HRA के सदस्यों ने बड़े बड़े सेठों के घर पर डकैती प्रारंभ की, परंतु जल्द ही उन्हें समझ में आया कि इससे वे जनता से जुड़ ही नहीं पाएंगे। तद्पश्चात एच०आर०ए० की ओर से 1 जनवरी 1925 को क्रान्तिकारी (घोषणा पत्र) के नाम से चार पृष्ठ का एक इश्तहार छापा गया। इसे 28 से 31 जनवरी 1925 के बीच भारत के सभी प्रमुख स्थानों पर वितरित किया गया। यह इस दल का खुला घोषणा-पत्र था जो जानबूझ कर अंग्रेज़ी में दि रिवोल्यूशनरी के नाम से छापा गया था ताकि अंग्रेज़ भी इसका आशय समझ सकें। इसमें विजय कुमार के छद्म नाम से एच०आर०ए० की विचार-धारा का खुलासा करते हुए साफ़ शब्दों में घोषित किया गया था कि क्रान्तिकारी इस देश की शासन व्यवस्था में किस प्रकार का बदलाव करना चाहते हैं और इसके लिये वे क्या-क्या कर सकते हैं। दि रिवोल्यूशनरी के नाम से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस घोषणापत्र में क्रान्तिकारियों के वैचारिक चिन्तन को भली-भाँति समझा जा सकता है, जो अमेरिकी, आयरिश, रूसी एवं फ्रेंच क्रांति के विभिन्न आदर्शों से प्रेरित था।
परंतु 9 अगस्त 1925 को सब कुछ बदल गया। नंबर 8 डाउन ट्रेन को जब HRA के कुछ सदस्यों ने ध्यान से देखा, तो ज्ञात हुआ कि इसके माध्यम से ब्रिटिश प्रशासन को खूब सारी धनराशि भेजी जाती है। अत: उसी कक्ष को लूटने का निर्णय किया गया। ट्रेन जब काकोरी के थोड़ी आगे बढ़ी, तो उसे रोककर क्रांतिकारियों ने धावा बोला, और सन्दूक में रखे लगभग 9000 रुपये [जो आज के एक्सचेंज रेट के अनुसार लगभग 9 लाख रुपये होते] को निकालकर आगे बढ़े। परंतु एक अति उत्साही युवा क्रांतिकारी की भूल उनके लिए क्या भूचाल लाने वाली थी, इसका उन्हे अंदाज़ा भी नहीं था। मन्मथनाथ गुप्ता ने जोश जोश में हवाई फायरिंग की, और गोली सीधा एक यात्री, रहमत अली को लगी, जिसके आधार पर अंग्रेज़ों ने जबरदस्त धरपकड़ की।
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अनेकों लोग पकड़े गए
अनेकों लोग पकड़े गए, यहाँ तक कि पार्टी के हाईकमान के सदस्य, जैसे रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्लाह खान, ठाकुर रोशन सिंह और राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को फांसी पे लटकाया गया। परंतु तीन लोग ऐसे भी थे, जो पुलिस की पकड़ में नहीं आ पाए। इनमें से एक थे अद्भुत प्रतिभा के धनी, एवं भेस बदलने में माहिर चंद्रशेखर सीताराम तिवारी, जो बाद में चंद्रशेखर आज़ाद के नाम से जन जन में लोकप्रिय हुए।
इन्होंने काकोरी विद्रोह में भाग लिया था, और पुलिस की गिरफ्त से बच भी निकले। इनका परिचय कानपुर को अपना गढ़ बनाए एक क्रांतिकारी से हुआ, जो करतार सिंह सराभा को अपना आदर्श मानते हुए उनके पदचिन्हों पर चलने को उद्यत था। यही थे क्रांतिकारियों में सर्वाधिक लोकप्रिय भगत सिंह, जिनके साथ मिलकर चंद्रशेखर आज़ाद ने HRA का पुनर्गठन किया। 1928 में नौजवान भारत सभा और कुछ अन्य इकाइयों का विलय करते हुए भगत सिंह ने HRA का नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन कर दिया। परंतु ये आज के कम्युनिस्ट पार्टियों की भांति संकीर्ण विचारधारा से ग्रसित न होकर सम्पूर्ण भारत में क्रांति के माध्यम से स्वतंत्रता लाना चाहते थे।
इसी आधार पर उन्होंने साइमन कमीशन के विरुद्ध लाहौर में प्रख्यात राष्ट्रवादी एवं सनातन संस्कृति के पुरोधा लाला लाजपत राय का समर्थन किया। परंतु जब एसपी जेम्स स्कॉट और एएसपी जॉन सौंडर्स ने लाला लाजपत राय पर बर्बरतापूर्वक लाठीचार्ज किया, तो इन्होंने मोर्चा संभालते हुए लालाजी की मृत्यु का प्रतिशोध लिया। स्कॉट तो बच गया, पर सौंडर्स इतना भाग्यशाली नहीं था।
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अब भगत सिंह द्वारा दिल्ली में बम फोड़ने और प्रयागराज में पुलिस से मुठभेड़ में चंद्रशेखर आज़ाद के वीरगति प्राप्त होने से पार्टी फिर बिखर गई। परंतु इनके आदर्शों को अनदेखा नहीं किया जा सका। इसी पार्टी से जुड़े उधम सिंह ने 1940 में जलियाँवाला बाग के प्रमुख दोषी, पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डवायर को गोलियों से भून दिया। इन्ही कार्यों का प्रभाव देश के स्वतंत्रता संग्राम, और आखिरकार नेताजी सुभाष चंद्र बोस एवं आज़ाद हिन्द फौज से प्रेरित विद्रोह के कारण ब्रिटिश प्रशासन को भारत छोड़ने पर बाध्य होना पड़ा।
Sources:
Revolutionaries : The Other Story of How India won its Freedom by Sanjeev Sanyal
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