“व्हाट वी डू हियर विल डिफ़ाइन इंडिया’s फ्यूचर फॉर जेनरेशन्स। यह अवसर हमें दोबारा नहीं मिलने वाला!”
जब सीरीज़ के टीज़र में यह संवाद सुनने को मिला, तभी पता चल जाना चाहिए था कि ये कोई आम सीरीज़ नहीं है। विगत कुछ माह में भारतीय OTT पर एक सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिला है, जहां उत्कृष्ट, भारतीय इतिहास को लगभग निष्पक्ष तरह से दिखाने वाली सीरीज़ को बढ़ावा दिया जा रहा है। “रॉकेट बॉय्ज़” का द्वितीय सीज़न इसी कड़ी में एक सराहनीय प्रयास है।
इस लेख में साझा करुगा “रॉकेट बॉय्ज़” के द्वितीय संस्करण के अपने अनुभव से, और कैसे ऐसे शो और बनने चाहिए। तो अविलंब आरंभ करते हैं।
कथा क्या है
कथा सीज़न 1 से आगे बढ़ते हुए हमें भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण मोड़ पर लाकर खड़ा करती है, जिसमें 1964 से लेकर 1974 के उन सभी गतिविधियों पर प्रकाश डाला गया है, जिनके कारण पोखरण में सर्वप्रथम परमाणु परीक्षण हुआ, और भारत एक परमाणु राष्ट्र बना।
होमी भाभा परमाणु प्रोग्राम पर आगे बढ़ना चाहते हैं, परंतु उन्हे केवल CIA का ही सामना नहीं करना। विक्रम साराभाई एक ओर नेहरू प्रशासन की बेरुखी से जूझ रहे हैं, तो दूसरी ओर अपने निजी जीवन की जटिलताओं से जूझते हुए वे अपने स्पेस प्रोग्राम को भी अक्षुण्ण रखना चाहते हैं।
इसी बीच कैसे राजा रमन्ना और एपीजे अब्दुल कलाम दोनों हस्तियों के साथ सामंजस्य बिठाते हुए अपने अपने सपनों को पूर्ण करते हैं, और कैसे वे पोखरण के प्रथम परीक्षण को सफल बनाते हैं, रॉकेट बॉय्ज़ का द्वितीय संस्करण इसी के इर्द गिर्द घूमता है।
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CIA की सक्रियता एवं भीतरघात की समस्या
अक्सर हमने देखा है कि प्रथम संस्करण यानि सीज़न के मुकाबले द्वितीय सीज़न तनिक फीका पड़ जाता है, या फिर प्रथम संस्करण की आशाओं के अनुरूप नहीं ठहर पाता। परंतु “रॉकेट बॉय्ज़” का उन चंद सीरीज़ में सम्मिलित है, जिसका द्वितीय संस्करण भी उतना ही असरदार है, जितना प्रथम संस्करण।
इस सीरीज़ में CIA की हमारे परमाणु प्रोग्राम को लेकर खीझ एवं भारत का अहित चाहने वालों पर एक अलग दृष्टिकोण रखा गया है।
ये सीरीज़ भारतीय इतिहास के कुछ महत्वपूर्ण पलों को कैसे चित्रित करती है, इसका अंदाज़ा आप इसी से लगा सकते हो कि कैसे उन्होंने मोरारजी देसाई के अस्थिर प्रवृत्ति को चित्रित किया, जो INCOSPAR को वित्तीय सहायता देने में भी आनाकानी करते थे।
इसके अतिरिक्त अमेरिका हमारे परमाणु प्रोग्राम को किस प्रकार से असफल बनाना चाहता था, इससे कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। परंतु ये कैसे हुआ, क्यों हुआ, इसका विवरण इस सीरीज़ में काफी स्पष्ट और सुदृढ़ है।
जिस प्रकार से होमी के किरदार ने अमेरिका पर व्यंग्य कसा है, वो अपने आप में इस बात का सूचक है कि कैसे 60 के दशक और आज के अमेरिका में कोई विशेष अंतर नहीं है। जिम सर्भ के लिए ये भूमिका अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।
पिछले संस्करण में कथा विक्रम साराभाई और होमी के विचारों पर अधिक केंद्रित थी, परंतु इस बार एपीजे अब्दुल कलाम के दृष्टिकोण से भी कथा दिखाई गई है, जिन्हे अर्जुन राधाकृष्णन ने बेहतर तरह से आत्मसात किया है।
कभी विक्रम साराभाई के INCOSPAR [जो आज ISRO के नाम से प्रसिद्ध है] से अपना करियर प्रारंभ करने वाले कलाम कैसे भारतीय स्पेस प्रोग्राम एवं परमाणु प्रोग्राम का अभिन्न अंग है, इसका लगभग सटीक विवरण किया गया है।
इसके अतिरिक्त डॉक्टर राजा रमन्ना के साथ कैसे उन्होंने “ऑपरेशन स्माइलिंग बुद्धा” को सफल बनाया, “रॉकेट बॉय्ज़” इसे भी अच्छे से दिखाता है। अभय पन्नू और कौसर मुनीर के संवाद इस सीरीज़ को और अच्छे से निखारते हैं।
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परफेक्ट नहीं, परंतु पकाऊ भी नहीं
इस सीरीज़ को देखकर सर्वप्रथम प्रश्न यही आता है : ये सोनी लिव अपने उत्पादों की बेहतर मार्केटिंग क्यों नहीं करता.
साराभाई परिवार के अंदरूनी कलह को चित्रित करने में ये सीरीज़ कुछ आवश्यकता से अधिक भटक सकती थी। बस भला हो निर्देशक अभय पन्नू का जो इन्होंने इसे कुछ ही एपिसोड तक सीमित रखा।
इसके अतिरिक्त इस सीरीज़ में CIA और उसके षड्यंत्रों पर प्रकाश तो डाला गया है, परंतु उन्हे वैसे नहीं दिखाया है, जैसे सीरीज़ में किसी खल चरित्र को दिखाया जाता है। कुछ समय तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई “सास बहु ड्रामा” चल रहा हो।
यही नहीं, ट्रेलर से देखकर तो ऐसा प्रतीत हुआ जैसे लाल बहादुर शास्त्री को नकारात्मक रूप दिया जा रहा हो। अब भगवान की दया से ऐसा तो कुछ नहीं हुआ, परंतु लाल बहादुर शास्त्री का चरित्र चित्रण और बेहतर तरह से हो सकता था।
कुल मिलाकर “रॉकेट बॉय्ज़” हमारे देश के सबसे महत्वपूर्ण पलों को एक मानवीय स्वरूप देता है। ये न तो हमारे नायकों को अधिक ड्रामैटिक बनाता है, और न ही उन्हे एकदम भावहीन छोड़ता है। इस सीरीज़ को अवश्य देखें, और अगर ऐसे और सीरीज़ बने तो और भी बढ़िया।
परंतु जाते जाते एक बात और की ये एक विशुद्ध मास्टरपीस नहीं है।
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