किसी ने सही ही कहा है, “सच पेड़ के बीज की तरह होता है, जितना भी दफना लो, एक न एक दिन बाहर जाता है”। ठीक इसी भांति कुछ लोग चाहे जितना इतिहास के कुछ अध्याय मिटा दें या गाड़ दें, परंतु उसके समस्त अवशेषों का समूल विनाश हो, ऐसा असंभव है।
इस लेख में पधिये कुतुब मीनार एवं उसके परिसर के कुछ अनसुलझे रहस्यों से, और क्यों शायद ये तुर्की सल्तनत की उपज नहीं है।
कुतुब मीनार का निर्माण कब हुआ?
दिल्ली की सबसे अद्भुत कृतियों में से एक है महरौली में स्थित कुतुब मीनार, जिसे देखने के लिए हर वर्ष दुनिया के कोने कोने से लोग आते हैं।
परंतु इसका निर्माण कब और कैसे हुआ? कहते हैं कि अफ़गानिस्तान में स्थित, जाम की मीनार से प्रेरित एवं उससे आगे निकलने की इच्छा से, दिल्ली के प्रथम मुस्लिम शासक क़ुतुबुद्दीन ऐबक, ने सन 1193 में आरंभ करवाया, परंतु केवल इसका आधार ही बनवा पाया।
उसके उत्तराधिकारी इल्तुतमिश ने इसमें तीन मंजिलों को बढ़ाया और सन १३६८ में फीरोजशाह तुगलक ने पाँचवीं और अंतिम मंजिल बनवाई । मीनार को लाल बलुआ पत्थर से बनाया गया है, जिस पर कुरान की आयतों की एवं फूल बेलों की महीन नक्काशी की गई है।
क़ुतुब मीनार लाल और बफ सेंड स्टोन से बनी भारत की सबसे ऊंची मीनार है। 13वीं शताब्दी में निर्मित यह भव्य मीनार राजधानी, दिल्ली में खड़ी है। इसका व्यास आधार पर 14.32 मीटर और 72.5 मीटर की ऊंचाई पर शीर्ष के पास लगभग 2.75 मीटर है।
इसी से थोड़ी दूरी पर अलाई मीनार भी स्थित हैं, जिसे अलाउद्दीन खिलजी ने बनवाया था। ये मूल रूप से कुतुब मीनार से लंबाई और चौड़ाई, दोनों में ही दुगने आकर का बनने वाला था, परंतु इससे पूर्व कि इसका आधा निर्माण भी पूरा होता, अलाउद्दीन खिलजी 1316 में ही चल बसा।
समस्या क्या है?
परंतु यहाँ कुछ मतभेद है। कई लोग मानते हैं कि कुतुब मीनार कभी भी तुर्की सल्तनत की उपज थी ही नहीं। ये एक सनातनी परिसर था, जिसका विध्वंस करके सल्तनत के अनुयाइयों ने अपना निर्माण किया था।
आपको प्रतीत होगा कि यह कैसे संभव है? परंतु कुछ ऐसे तथ्य है, जिससे स्पष्ट होता है कि कुछ तो गड़बड़ अवश्य है। सर्वप्रथम, मुगल से पूर्व के जितने भी इस्लामिक भवन हैं, उनमें लाल बलुआ पत्थर यानि सैंडस्टोन का उपयोग लगभग नगण्य था, और ऐसा निर्माण केवल और केवल सनातनी राज्यों, विशेषकर राजपूतों के प्रांतों में अधिक होता था। विश्वास नहीं होता तो अलाई मीनार की बनावट पर ही ध्यान दीजिए।
इसके अतिरिक्त तुर्की सल्तनत के जितने भी शासक थे, उनमें से अधिकतम के पास दो ही काम थे : या तो लूटपाट और नरसंहार में लिप्त रहना, या फिर राज्य का विस्तार करना। भवन निर्माण जैसी चीज़ों के लिए इनके पास कोई खास समय नहीं होता था।
अजमेर के ढाई दिन का झोंपड़ा ही देख लीजिए। कहने को वह मस्जिद है, परंतु उसके निर्माण शैली पर ध्यान दें, तो आपको समझ में आएगा कि यह एक मंदिर का विध्वंस कर मस्जिद का रूप देने का अधूरा प्रयास हो सकता है, विशुद्ध मस्जिद नहीं हो सकती।
क्या कुतुब परिसर सच में सनातनी है?
तो ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है : क्या कुतुब मीनार सच में सनातनी परिसर का भाग है? संभव है, क्योंकि इस बात का खंडन करने के लिए कोई पर्याप्त साक्ष्य नहीं है। उदाहरण के लिए मीनार के उत्तर पूर्व में स्थित कुवत उल इस्लाम मस्जिद का निर्माण 1198 के दौरान कराया था।
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इसमें नक्काशी वाले खम्भों पर उठे आकार से घिरा हुआ एक आयातकार आंगन है और ये 27 हिन्दु तथा जैन मंदिरों के वास्तुकलात्मक सदस्य हैं, जिन्हें क़ुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा नष्ट कर दिया गया था, जिसका विवरण मुख्य पूर्वी प्रवेश पर खोदे गए शिला लेख में मिलता है। आगे चलकर एक बड़ा अर्ध गोलाकार पर्दा खड़ा किया गया था और मस्जिद को बड़ा बनाया गया था।
इसके अतिरिक्त कुछ लोग ये भी मानते हैं कि ये सम्राट विक्रमादित्य के राज में निर्मित विजय स्तम्भ है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस परिसर में एक लौह स्तम्भ भी उपस्थित है, जिसकी उत्पत्ति गुप्त साम्राज्य के समय की बताई जाती है।
कुछ शास्त्रों के अनुसार, ये मीनार पास के 27 किला को तोड़कर और दिल्ली विजय के उपलक्ष्य मे किला के मलबे से बनाई गयी थी। इसका प्रमाण मीनार के अंदर कुतुब के चित्र से मिलता है। एक स्थान के अनुसार ये मीनार वराहमिहिर का खगोल शास्त्र वेधशाला थी।
अब अगर ये विशुद्ध इस्लामिक परिसर होता, तो यहाँ सनातनी निर्माण के अवशेष क्यों रहते? उस समय अधिकतम आक्रान्ताओं के मन में एक बात अवश्य रहती : कैसे भी करके सनातनियों को अपने आप से श्रेष्ठ सिद्ध करो, और वह तभी हो सकता था, जब उनके सांस्कृतिक गौरव को नष्ट कर उसे अपने जूती तले मसल दें।
इसके अनेक प्रमाण भी है, जो आपको सोमनाथ परिसर से लेकर काशी विश्वनाथ के वृहद इतिहास में जानने को मिलता है। ऐसे में ये कैसे संभव हो सकता है महरौली में जिस स्थान पर कुतुब मीनार का परिसर है, वहाँ सनातन संस्कृति का कोई भी स्थान नहीं था?
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