मनोज मुंतशिर शुक्ला, कुछ प्रश्न पूछना चाहता है भारत

कुछ लज्जा बची भी है?

प्रिय मनोज मुंतशिर शुक्ला,

शक्ति मिली है, तो दायित्व भी स्वीकारना होगा। परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि आपका इस कथ्य से लेशमात्र भी संबंध नहीं, विशेषकर तब, जब चर्चा “आदिपुरुष” की हो। ये प्रश्न केवल हमारी चिंता नहीं, ये प्रश्न उस आक्रोश का प्रतिबिंब है, जो आपके कृत्य द्वारा हमारे संस्कृति को पहुंचे आघात के कारण क्रोधित जनता के मन मस्तिष्क में उमड़ रहा हैं।

जन्मे मनोज शुक्ला के रूप में, नाम धारण किया मनोज मुंतशिर और सुविधानुसार पुनः बने मनोज मुंतशिर शुक्ला। असुर भी इतने रूप न बदले जितने आप नाम बदले हो। परंतु प्रश्न तो अब भी व्याप्त है : किस मुख से आप अपने आप को सनातन संस्कृति का ध्वजवाहक बताते फिरते हैं? इससे भी गंभीर प्रश्न ये है : किस आधार पर आपको हमारे सनातन संस्कृति के एक गौरवशाली अध्याय का “आदिपुरुष” में ऐसा निकृष्ट, निर्लज्ज चित्रण करने का अधिकार मिला?

आपने गर्व से घोषणा की कि आपकी फिल्म रामायण से तनिक प्रेरित है, उसकी सम्पूर्ण व्याख्या नहीं। परंतु हमें आश्चर्य होता है कि क्या इस प्रकार की ‘meticuluous thought process’, जिसके आधार पर आप इतने आक्रामक हो रहे हैं, ऐसे निर्लज्ज और अपमानजनक संवादों का समर्थन करती है? क्या प्रभु श्री राम या पवनपुत्र हनुमान ऐसे अशिष्ट, असभ्य, कर्कश भाषा के प्रयोग में विश्वास रखते थे? “आधुनिक, समकालीन बोली” में चित्रित करने के आपके प्रयास को उसी युवा वर्ग ने अस्वीकार किया है, जिनका प्रतिनिधित्व करने का आपने “बीड़ा उठाया था”! उन्हे हमारी विरासत की अधिक सूक्ष्म समझ है, जितना आपको स्वयं नहीं होगी।

आपने अपने किरदारों से “तेरी बुआ का बागीचा” और “जलेगी भी तेरे बाप की” जैसे संवाद बुलवाकर पटकथा को ‘रिलेटेड’ बनाने का प्रयास किया। हम भी ये पूछने को विवश है – ऐसी निर्लज्ज पंक्तियाँ हमारी जैसी समृद्ध और गहन संस्कृति के साथ कैसे प्रतिध्वनित होती हैं? क्या यह दर्शकों को हल्के में लेने का विचार था, या इस तरह के चित्रण के पीछे कोई षड्यन्त्र था?

‘आदिपुरुष’ की आलोचना और कवि तुलसीदास द्वारा संस्कृत के बजाय अवधी भाषा में रामचरितमानस लिखने के विरोध के बीच तुलना करने का आपका प्रयास तुलनात्मक कम, अपमानजनक अधिक है। जो पवनपुत्र हनुमान के लिए “विद्या वन गुणी अति चतुर” जैसे छंद लिखे, वो ऐसे निकृष्ट चित्रण का समर्थन भी करेंगे, इसकी कल्पना भी कैसे की? अभी तो हमने प्रभु श्री राम के चित्रण में अक्षम्य त्रुटियों पर प्रकाश भी नहीं डाला है। उन्होंने तो छोड़िए, रावण भी ऐसे हास्यास्पद चित्रण पर चंद्रहास निकालने को आतुर हो जाएंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि जब स्क्रिप्ट का बचाव करने के लिए कोई ठोस तर्क नहीं बचा था, तो आपने श्री राम की महिमा और माँ सीता की पवित्रता की प्रशंसा करने के लिए प्रशंसा से वंचित होने के बारे में खेद व्यक्त किया। अगर यह महिमामंडन है, तो मुझे आश्चर्य है कि उनका अपमान क्या होगा। महिमामंडन की कोई भी मात्रा एक श्रद्धेय कथा के गलत प्रतिनिधित्व को क्षमा नहीं कर सकती है।

अपने अनुयायियों की तीखी आलोचना पर आपकी घबराहट विस्मित करती है। “ठग्स ऑफ हिंदोस्तान” या “शिकारा” के निर्माता भी इतने निर्लज्ज नहीं होंगे, जितने आप। और फिर भी, आप सनातन-द्रोही के लेबल को आलोचकों के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए खड़े हैं। आपने दावा किया है कि ‘आदिपुरुष’ सनातन सेवा के लिए बनाया गया था, और दर्शक इसे गले लगाते रहेंगे। आप ये भी कहते हो कि मैं अपने संवादों के विषय में अनेक तर्क दे सकता हूँ, पर वास्तव में आपको हमारे देवताओं के लिए संवाद तय करने का अधिकार किसने दिया?

मनोज मुंतशिर शुक्ला, ये सवाल और चिंताएं सिर्फ एक व्यक्ति से नहीं हैं, बल्कि उस देश के आक्रोश का प्रतीक है, जो रामायण को पूजता है। आपके उत्तर न केवल हमारी जिज्ञासा को शांत करेंगे, बल्कि उन घावों को भरने में भी मदद कर सकते हैं जो ‘आदिपुरुष’ ने भरत के सामूहिक मानस पर लगाए हैं। लेकिन मुझे संदेह है कि आप ऐसा सोचते भी होंगे।

आपके चित्रण से दुखी,

भारत

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