विगत कुछ वर्षों से पर्यटन के प्रति रुचि काफी बढ़ गई है, खासकर भारत में, जहां स्मारक और विभिन्न ऐतिहासिक स्थल की कोई कमी नहीं हैं। यात्री घूमने के लिए नए और रोमांचक स्थलों की तलाश कर रहे हैं। ऐसे में, यूनेस्को द्वारा प्रमाणित “वर्ल्ड हेरिटेज स्थलों” का अपना अलग ही महत्व व्याप्त है।
निस्संदेह “वर्ल्ड हेरिटेज साइट” अपने आप में गर्व का विषय है। परन्तु एक प्रश्न का उत्तर अब भी नहीं मिला है: क्या ये “विश्व धरोहर स्थल” का टैग वास्तव में इन प्रतिष्ठित स्थानों को लाभान्वित करता है, या क्या यह वास्तव में, लाभ की तुलना में अधिक हानि पहुंचाता है?
सच कहें “विश्व धरोहर स्थल” का शीर्षक गर्व की बात नहीं है, खासकर प्राचीन मंदिरों और ऐतिहासिक स्थलों के संदर्भ में। यह लेबल कुछ मामलों में आशीर्वाद से अधिक अभिशाप साबित हो सकता है।
तो स्वागत है आप सभी का, और आज हम चर्चा करेंगे “यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल” के टैग पर, और क्यों ये हमारे दर्शनीय स्थलों के लिए कोई गर्व का विषय नहीं है !
क्यों है “World Heritage Site” का उपनाम एक अभिशाप?
कहने को “वर्ल्ड हेरिटेज साइट” एक सम्मानीय टैग कुछ लोगों के लिए हो सकता है, पर वास्तव में ये टैग ऐतिहासिक और धार्मिक स्थानों के लिए अभिशाप साबित हो सकता है। देखिये, उक्त टैग यह दर्शाता है कि एक स्मारक या शहर को उसके असाधारण ऐतिहासिक, सांस्कृतिक या वास्तुशिल्प महत्व के लिए पहचाना और संरक्षित किया जाता है, जो दस विशिष्ट मानदंडों में से एक को पूरा करता है।
इन मंदिरों को संरक्षित करना कोई सरल कार्य नहीं है, लेकिन अधिक महत्वपूर्ण मुद्दा इन स्थलों के आसपास व्यापक योजना की कमी है, जिससे उन्हें मार्केट फोर्सेज़ पर निर्भर होना पड़ता है। आधुनिकता और आध्यात्मिकता में संतुलन होना आवश्यक है, लेकिन दुख की बात है कि ऐसा नहीं है।
अब वर्ल्ड हेरिटेज साइट्स बनने का फायदा है तो नुकसान भी है। उदाहरण के लिए बृहदेश्वर मंदिर को ले लीजिये।मंदिर का नाम “बृहत” (जिसका अर्थ है बड़ा या विशाल) और “ईश्वर” (भगवान शिव को संदर्भित करते हुए) से लिया गया है, जो सबसे महत्वपूर्ण शिव मंदिरों में से एक के रूप में इसके महत्त्व को रेखांकित करता है। परन्तु 1987 में, मंदिर को जब से यूनेस्को के “विश्व धरोहर स्थल” का दर्जा दिया गया था, तभी से स्थिति बद से बदतर हो गई!
कुछ वर्ष पूर्व TFIPost पर हमारे एक पाठक ने बृहदेश्वर मंदिर का अपना अनुभव हमारे साथ साझा किया । उन्होने बताया कि, “बृहदेश्वर मंदिर में दर्शन करने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं इसके लिए अति उत्सुक था लेकिन मंदिर के द्वार पर मुझे एक झटका लगा । मैंने देखा कि हिंदुओं के सबसे बड़े मंदिरों में से एक मंदिर में दूसरे धर्म के लोगों को भी प्रवेश की अनुमति थी। अब क्योंकि वहाँ उन लोगों को भी प्रवेश की अनुमति है, जो मूर्ति पूजक नहीं है, मंदिर का प्रांगण किसी पब्लिक पार्क की भांति लग रहा था जहां लोग अपने प्रेमियों के साथ हाथ पकड़ कर घूम रहे हैं।”
इसके अतिरिक्त जब इसके अलावा, जब मंदिर केवल पिकनिक स्पॉट बनकर रह जाते हैं, तो मानदंड धुंधले हो जाते हैं, और आगंतुक ऐसी पोशाक पहनकर आ सकते हैं जो मंदिर के भाव / प्राँगण के लिए उचित न हो। स्मरण दिलाएं कि पवित्र केदारनाथ धाम में कुछ माह से क्या हो रहा था?
पर्यटन के लिए आध्यात्मिकता से समझौता नहीं!
हम मंदिर क्यों जाते हैं? निस्संदेह, पूजा अर्चना के लिए! लेकिन सनातनी मंदिरों के संदर्भ में, जो दिखता है उससे कहीं अधिक है।
प्राचीन समय में, मंदिर बहुमुखी केंद्र के रूप में कार्य करते थे जहां संस्कृति, व्यापार और आध्यात्मिकता सामंजस्यपूर्ण रूप से सह-अस्तित्व में रहते थे। आज भी हमारे मंदिर ऊर्जा के आदान-प्रदान के माध्यम हैं। जब हम अंदर कदम रखते हैं, तो सकारात्मकता की एक निर्विवाद आभा हमें घेर लेती है।
अब जब वह भावना ख़त्म हो जाती है, तो संकेत बिल्कुल स्पष्ट हो जाते हैं: स्थान की पवित्रता भंग हो गई है। यही बात “विश्व विरासत स्थल” टैग के लिए चरितार्थ होती है, जिसका नकारात्मक प्रभाव हमें गहन आध्यात्मिक महत्व के ऐतिहासिक स्थानों पर देखने को मिलता है। उदाहरण के लिए, आइए कोणार्क सूर्य मंदिर पर एक नज़र डालें। सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी और जल जैसे प्राकृतिक तत्वों और शक्तियों की पूजा भारतीय संस्कृति के ताने-बाने में बुनी गई है। पूर्वी भारत में, विशेष रूप से बिहार और ओडिशा जैसे राज्यों में, सूर्य देव की पूजा का विशेष महत्त्व है।
ओडिशा में, 13वीं शताब्दी में निर्मित कोणार्क सूर्य मंदिर, जिसे कुछ लोग और भी प्राचीन मानते हैं, सूर्य देव के प्रति लोगों की अटूट भक्ति का जीता जागता प्रमाण है। ओडिशा के लोगों ने अपनी समुद्री यात्रा कौशल के साथ, दक्षिण पूर्व एशिया में हिंदू धर्म को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में सूर्य मंदिरों का प्रसार हुआ।
हालाँकि, वर्तमान समय में कोणार्क सूर्य मंदिर में एक अजीब विरोधाभास सामने आता है – यहाँ सूर्यदेव की उपासना ही नहीं होता। इसके बजाय, यह हिंदू पूजा स्थल के बजाय एक पर्यटन स्थल में तब्दील हो गया है। अब प्रश्न उठता है: यदि आप पूजा नहीं कर सकते तो सूर्य मंदिर का क्या प्रयोजन है?
कोणार्क का एक समृद्ध इतिहास है, लेकिन इसका अस्तित्व इसकी दीवारों के भीतर पूजा की बहाली पर निर्भर है। जब पूजा ही नहीं होगी, तो दर्शनीय स्थलों का अस्तित्व क्यों और किसलिए रहेगा? काशी (वाराणसी) पर विचार करें, जो अपनी जीवनशैली में पूजा की अभिन्न भूमिका के कारण सहस्राब्दियों तक फलता-फूलता रहा है – केवल पर्यटकों के लिए आरक्षित नहीं रहा है।
क्या आपने कभी सोचा है कि जीर्णोद्धार के बावजूद गुजरात का सोमनाथ मंदिर पूजनीय क्यों बना हुआ है? सरदार पटेल और “आचार्य” केएम मुंशी के प्रयासों से इसकी आध्यात्मिक पवित्रता अक्षुण्ण रही। दूसरे, यह “विश्व विरासत स्थल” टैग का बोझ नहीं उठाता है, जो इसे बेलगाम पर्यटन के हमले से बचाता है।
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क्यों जीर्ण शीर्ण मंदिरों का उद्धार है अवश्यम्भावी
परित्यक्त अथवा जीर्णशीर्ण मंदिरों को पुनर्जीवित करना केवल सांस्कृतिक गौरव का विषय नहीं है; यह हमारे उज्जवल भविष्य के लिए अवश्यम्भावी है। हालाँकि चुनौतियाँ अवश्य रहेंगी, आधुनिकता को अपनाते हुए हमारी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करना एक टाइट रोप पर चलने समान है।
आप इसे जो चाहें कहें, लेकिन योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में विरासत स्थलों को संरक्षित करने का उत्तर प्रदेश (यूपी) मॉडल दर्शाता है कि उस संतुलन को प्रभावी ढंग से कैसे बनाया जाए। आज की तुलना में 2010 में अयोध्या पर एक नज़र डालें, और आप समझ जायेंगे कि संतुलित परिवर्तन किसे कहते हैं।
हालाँकि, यह सिर्फ अयोध्या जैसे प्रसिद्ध स्थानों के बारे में नहीं है। मार्तंड सूर्य मंदिर जैसे अद्वितीय धरोहर, जो वर्तमान में खंडहर हैं, इसी कायाकल्प के लिए दशकों से तरस रहा है। अपनी सांस्कृतिक विरासत को वास्तव में और स्थायी रूप से संरक्षित करने के लिए, हमें आधुनिकता और आध्यात्मिकता में संतुलन साधना ही होगा। “वर्ल्ड हेरिटेज साइट” टैग से हमारी विरासत की रक्षा नहीं होगी, हमें स्वयं आगे बढ़कर अपना श्रेष्ठ प्रयास इस दिशा में देना ही होगा।
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