15 फरवरी, 1638 में मुगल शासक औरंगज़ेब और उनकी बेगम दिलरस बानो के आँगन में उनकी पहली संतान के रूप में एक बेटी ने जन्म लिया। मुगल बादशाह के घर में जन्मी इस बेटी का नाम जेबुन्निसा रखा गया। हालाँकि, जेबुन्निसा के बचपन के बारे में अत्यधिक जानकारी हमें नहीं मिलती है, किंतु इतिहासकारों का मानना है कि उनका बचपन बेहद शानदार गुजरा। महल के लाड़-प्यार में पलने वाली जेबुन्निसा की मँगनी बचपन में ही उनके चचेरे भाई सुलेमान शिकोह से कर दी गई। किंतु सुलेमान शिकोह की बेहद कम उम्र में हुई मौत के कारण इनकी शादी नहीं हो सकी थी।
जेबुन्निसा एक शिक्षित, प्रतिभासंपन्न तथा दरबारी शिष्टाचार को भली-भाँति समझने वाली स्त्री थीं। औरंगज़ेब ने एक उच्च शिक्षित दरबारी महिला हफीजा मरियम तथा एक प्रमुख फ़ारसी कवि मुल्ला सईद अशरफ मजान्दारानी को जेबुन्निसा को पढ़ाने की जिम्मेदारी दी। पढ़ाई में रुचि रखने वाली जेबुन्निसा ने दर्शन, भूगोल, इतिहास, गणित आदि विषयों में तेज़ी से महारत हासिल कर ली। इतिहास में जानकारी मिलती है कि मात्र 7 वर्ष की आयु में ही हाफिजा बनने पर शहज़ादी को तीस हजार अशरफियाँ अपने वालिद की ओर से इनाम के रूप में प्रदान की गईं। कहा जाता है कि इस दिन औरंगज़ेब ने दावत का आयोजन किया और दो दिन का अवकाश लेकर उत्सव मनाया।
औरंगज़ेब की बेटी जेबुन्निसा: कविता-शायरियों का था शौक
जेबुन्निसा को पुस्तकों से बेहद प्रेम था, इसलिए उन्होंने अपने महल के विशाल पुस्तकालय को पूरा खंगाल लिया था। अध्ययन में उनकी रुचि को देखते हुए उनके लिए बाहर से भी पुस्तकें मँगवाई जाती थीं। बेहद सादगी से रहने वाली जेबुन्निसा से पिता औरंगज़ेब को विशेष लगाव था। कहा जाता है कि औरंगज़ेब अपनी इस बेटी को चार लाख सोने की अशरफियाँ ऊपरी खर्चे के तौर पर दिया करता था। जेबुन्निसा ने इन पैसों से विभिन्न ग्रंथों का फ़ारसी में अनुवाद करवाया तथा कवियों, विद्वानों आदि की सहायता किया करती थीं।
चूँकि मुग़ल काल में स्त्रियाँ घर की चारदीवारी तक ही सीमित थीं, तथा शाही महिलाएँ मुग़ल हरम तक ही कैद थीं। बाल-विवाह, पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियाँ थीं, और महिलाओं के लिए अलग मदरसों आदि का अभाव था; ऐसे में सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि क्षेत्रों में पुरुषों के समान स्त्रियों का प्रत्यक्ष योगदान देना स्वीकार्य नहीं था। जेबुन्निसा को भी शाही सुख-सुविधाएँ मिलने के बावजूद इस प्रकार के अनेक बंधनों का सामना करना पड़ा। कुरान शरीफ का अध्ययन करने के बाद उस पर टीका लिखने का कार्य प्रारंभ किया, किंतु एक महिला होने के कारण शहज़ादी को बादशाह ने इस कार्य की इजाज़त नहीं दी। जेबुन्निसा के गुरु मजान्दारानी एक फ़ारसी कवि थे, इसलिए शहज़ादी का भी कविता, शेर-ओ-शायरी की ओर रुझान बढ़ा।
समय के साथ-साथ जेबुन्निसा भी एक बेहतरीन शायरा के तौर पर उभरने लगीं। मुशायरों और महफ़िलों में जेबुन्निसा को आमंत्रित किया जाने लगा। जेबुन्निसा के कट्टर अब्बा को इनका मुशायरा आदि करना स्वीकार्य नहीं था। किंतु साहित्य प्रेमी व्यक्ति का भी अपने स्वच्छंद मन को कहीं और लगाना अत्यंत मुश्किल होता है। लिहाजा, जेबुन्निसा ने छिपकर मुशायरा करना शुरू किया। इन्होंने फ़ारसी में कविताओं की रचना की और नाम छिपाने के लिए मख़फ़ी नाम से लिखा। इनका सम्पूर्ण लेखन मूल रूप से फ़ारसी में ही उपलब्ध है। ‘दीवान-ए-मख़फ़ी’ नाम से उपलब्ध ग्रंथ में इनकी 5000 रचनाएँ संकलित हैं। इनकी मूल पांडुलिपियाँ ब्रिटिश लाइब्रेरी और नेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ पेरिस में सहेज कर रखी गई हैं।
जेबुन्निसा के जीवन के साथ ही बदल गया उनके काव्य का चरित्र
इनके आरंभिक काव्य में प्रेम, यौवन की उमंगें, मधुर मिलन की लालसाएँ तथा श्रृंगार की प्रचुरता दिखाई देती है। किंतु इनकी उत्तरार्द्ध रचनाओं में प्रेयसी की निष्ठुरता, नियति की क्रूरता, दर्द-विरह आदि दिखाई देता है।
अब यहाँ समझने वाली बात यह है कि एक ही कवयित्री की रचनाओं में भाव वैविध्य क्यों आया?
दरअसल, प्रारंभिक जीवन शाही लाड़-प्यार में जीने वाली जेबुन्निसा का अंतिम आधा जीवन बेहद कठिनाई के साथ गुजरा। औरंगज़ेब के बारे में इतिहास में पढ़ने के दौरान हम सभी जानते हैं कि यह अत्यंत क्रूर शासक था जिसने न सिर्फ अपने अब्बा को कैद में रखा, बल्कि अपने भाई का कत्ल करवाया। इतना ही नहीं, अपने बेटे को भी औरंगज़ेब ने खत्म करवा दिया था। निश्चित रूप से यह क्रूरता उसकी बेटी जेबुन्निसा को भी सहनी पड़ी और उसे अपना आधा जीवन उम्रकैद में काटना पड़ा।
अब हम जानते हैं कि आखिर अपनी बेटी पर इतना प्यार लुटाने वाले औरंगज़ेब ने उसे उम्रकैद की सजा क्यों दी? दरअसल, कई जगह उल्लेख मिलता है कि जेबुन्निसा को कई बार समझाने के बाद भी उसने मुशायरों में जाना नहीं छोड़ा और छिप-छिप कर मुशायरों में भाग लेती रही। मुशायरों में जाने के दौरान जेबुन्निसा अलग ढंग के वस्त्र पहने करती थीं। चूँकि बाहर से भी पुस्तकें आने की वजह से उन्हें उस समय के समकालीन लेटेस्ट फ़ैशन की भी समझ थी, इसलिए जेबुन्निसा महफ़िलों में जाने के लिए सफेद रंग की पोशाक पहनतीं और आभूषणों में सिर्फ मोतियों की माला ही धारण करती थीं। इसके अतिरिक्त, वह किसी भी रत्न से श्रृंगार नहीं करती थीं। कहा जाता है कि औरंगज़ेब को जेबुन्निसा के इस तरह महफ़िलों में जाने की सच्चाई पता लग गई थी। इसीलिए, उसने जेबुन्निसा पर अनेक प्रतिबंध लगाए। किंतु बात यहीं तक नहीं रुकी। ऐसे ही एक मुशायरे में जेबुन्निसा ने हिंदू बुंदेला महाराज छत्रसाल को देखा और उनसे प्रेम कर बैठीं।
औरंगज़ेब ने अपनी ही बेटी को दे दी उम्रकैद
मुगलों ने खुद अनेक हिंदू स्त्रियों को जबरन मुस्लिम बनाकर हरम में लाकर कैद किया, किंतु उन्हें यह बिल्कुल मंजूर नहीं था कि एक मुग़ल शहज़ादी किसी हिंदू व्यक्ति से प्रेम करे। मज़हबी तौर पर बेहद कट्टर औरंगज़ेब को भी यह बात बिल्कुल स्वीकार्य नहीं थी कि उसकी बेटी किसी हिंदू परिवार से जुड़ें। लिहाजा, औरंगज़ेब को जैसे ही जेबुन्निसा के इस प्रेम की जानकारी हुई, वह बेहद क्रोधित हुआ और अपनी बेटी को दिल्ली के सलीमगढ़ किले में कैद करवा दिया। कई जगह जानकारी मिलती है कि मुशायरों में एक मामूली शायर से प्रेम हो जाने के कारण औरंगज़ेब ने जेबुन्निसा को कैद किया। हालाँकि, हकीकत जो भी है, लेकिन यह सत्य है कि प्रेम करने की सजा के तौर पर जेबुन्निसा को उम्रकैद हुई।
वास्तव में यही कारण रहा कि जेबुन्निसा के काव्य का उत्तरार्ध दर्द, विरह आदि से भरा है। हालाँकि, कैद के दौरान भी इनकी हिम्मत नहीं टूटी और ये काव्य रचना करती रहीं। इसी दौरान जेबुन्निसा ने कृष्ण भक्ति में भी रचनाएँ लिखीं। कहा जाता है कि जब ये आगरा के महल में रहती थीं, तब वहाँ इन्हें मथुरा के कृष्ण मंदिर की चोटी दिखाई देती थी, जिसे देखकर ही ये कृष्ण की भक्ति किया करती थीं। औरंगज़ेब को यह बिल्कुल पसंद नहीं था कि ये अल्लाह के अतिरिक्त किसी और की इबादत करें। एक कारण यह भी रहा होगा कि इन्हें दिल्ली के इस किले में कैद किया गया। कहा जाता है कि कैद के दौरान इनका शेष पूरा जीवन कृष्ण भक्ति में व्यतीत हुआ; किले की हर दीवार पर जेबुन्निसा को कृष्ण का दीदार हुआ करता था।
खीझे औरंगज़ेब ने तोड़वा दिया ओरछा का मंदिर
दीवान-ए-मख़फ़ी फ़ारसी में लिखा गया है, किंतु एक जगह उसकी कुछ पंक्तियों के हिंदी अनुवाद प्राप्त होते हैं, जहाँ जेबुन्निसा लिखती हैं: “चाहे कोई मक्का का पवित्रतम स्थान हो या तीर्थस्थल मंदिर, मैं दोनों जगह जाती हूँ। दोनों ही मेरे हैं। जहाँ कहीं भी भगवान की पूजा होती है, वह मेरा भगवान है।”
वास्तव में, फ़ारसी में कृष्ण भक्ति के जो पद जेबुन्निसा ने लिखे हैं, उन्हें पढ़कर यदि इन्हें फ़ारसी काव्य की मीरा कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। कहा जाता है कि उस समय उनके कृष्ण प्रेम को देखते हुए लोग उन्हें मुगलों की मीरा कहने लगे थे। जब उनका कृष्ण प्रेम और अधिक परवान चढ़ा तथा औरंगज़ेब को इस बात की जानकारी हुई, तो वह अपनी इस बेहद प्रिय पुत्री से घृणा करने लग गया। जदुनाथ सरकार सहित कई अन्य इतिहासकार भी यह दावा करते हैं कि जेबुन्निसा के कृष्ण प्रेम से खिसियाए औरंगज़ेब ने वर्ष 1669 में ओरछा के राजा वीर बुंदेला द्वारा बनवाए गए विराट कृष्ण मंदिर को तहस-नहस कर दिया था।
हालाँकि, उम्रकैद जैसी सजा मिलने के बाद भी शहजादी का कृष्ण प्रेम कम न होकर बढ़ता गया और इसी तरह किले की दीवारों में कैद होकर 1702 में जेबुन्निसा ने शरीर त्याग दिया। हालाँकि, जेबुन्निसा का नाम इतिहास के पन्नों में उस तरह से दर्ज नहीं हुआ, जिस तरह से औरंगज़ेब जैसे क्रूर शासकों का उल्लेख होता है, किंतु अब समय बदल रहा है और इतिहास में गुमनाम हो गए ऐसे उदार चरित लोगों पर भी विद्वानों में चर्चा होने लगी है।