मुझे क्या करना चाहिए से ‘करिष्ये वचनं तव’ की एक यात्रा है। श्रीमद्भगवद्गीता का 18वां अध्याय ‘मोक्ष संन्यास योग’ है। इस अध्याय में मुक्ति एवं संन्यास के विभिन्न मार्गों एवं स्वरूपों की व्याख्या की गई मुक्ति की व्याख्या करते हुए भगवान श्री कृष्ण आत्मा के शाश्वत स्वरूप वर्तमान जीवन के उद्देश्य एवं परम लक्ष्य के मार्गों पर विस्तार से चर्चा करते हैं। श्रीमद् भागवत गीता का यह अध्याय अंतिम अध्याय कहा जाता है जो गीता के प्रारंभ से अब तक की यात्रा का निचोड़ भी है।
श्री कृष्ण ने अर्जुन को भगवद्गीता का उपदेश देना इसलिए शुरू किया था क्योंकि अर्जुन अपने बंधु बांधवों को युद्धभूमि में देखकर अपने कर्तव्य से विमुख हो गया था। सम्पूर्ण गीता का उपदेश देकर कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि अब इन सबको सुनने और विचार करने के बाद जो तुम्हारा मन करे वह करो।
यथेच्छसि तथा कुरु – तुम जो चाहो वैसा करो। इसको सुनकर अर्जुन कहता है:
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव।।
अर्थात – हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है। अब मैं ज्ञान में स्थित हूँ। मैं संशय से मुक्त हूं और मैं आपकी आज्ञाओं के अनुसार कर्म करूंगा।
गीता के इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण प्रकृति तथा प्रवृत्ति के आधार पर संन्यास एवं मोक्ष के विभिन्न मार्गों की चर्चा करते हैं। श्री कृष्ण के अनुसार, संसार से संन्यास एवं अंतरात्मा का संन्यास यह दो संन्यास का प्रमुख मार्ग है। सांसारिक संन्यास का मार्ग त्याग एवं ब्रह्मचर्य की जीवन शैली अपनाने का है जिसमें व्यक्ति अपने भौतिक सुखों, सांसारिक जिम्मेदारियों एवं दुनियादारी के संबंधों से निर्लिप्त रहता है। इस संन्यास का उद्देश्य आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानना तथा सांसारिक बंधनों से मुक्ति प्राप्त करना है। अंतरात्मा का संन्यास अपेक्षाकृत अधिक सूक्ष्म एवं व्यक्ति के आंतरिक विकास तथा मानसिक संतुलन पर केंद्रित है।
इस प्रकार के संन्यास में व्यक्ति बाहरी दुनिया के प्रति अपनी संकल्पित तथा आंतरिक साधना के माध्यम से आत्मसाक्षात्कार करता है। श्री कृष्ण के अनुसार संसार में रहकर संसार से निर्लिप्त होना सन्यास का उत्कृष्ट स्वरूप है। पाश्चात्य दार्शनिकों द्वारा भारतीय दर्शन पर निराशावाद का आरोप लगाना गीता के इस विमर्श से मिथ्या प्रतीत होता है जहां श्रीमद् भागवत गीता संसार में दुख कष्ट एवं पीड़ा के होने की बात तो करता है परंतु उसके निवारण तथा इस सांसारिक जगत में अनासक्त भाव से कर्म करते हुए आत्मतत्व तक की यात्रा का भी वर्णन करता है।
गीता का 18वां अध्याय इस रूप में भी महत्वपूर्ण है कि इसके पूर्वक श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को जितने भी प्रमुख मार्ग एवं समाधानों की चर्चा है उसको संक्षेप में इस अध्याय में भी चर्चा करते हैं। जैसा की मोक्ष प्राप्ति के विभिन्न मार्गो की चर्चा पहले की जा चुकी है उसको पुनः श्री कृष्णा कर्मयोग, ज्ञानयोग, एवं भक्तियोग के माध्यम से अर्जुन को उपदेश देते हैं। श्रीमद् भागवत गीता के इस अध्याय में आत्मसमर्पण एवं नि:स्वार्थता के माध्यम से आध्यात्मिक मुक्ति प्राप्ति की बात की गई है। परमतत्व जो जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है, के प्रति पूर्ण समर्पण उसे लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन को पवित्रता के साथ अपनाना तथा निरंतर गति करते हुए आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करना ऐसा इस अध्याय में बतलाया गया है।
गीता के इस अध्याय में कर्म एवं भाग्य के मध्य अनुपम समन्वय दिखाने का प्रयास है। सामान्य रूप से जब श्री कृष्ण गीता में यह कहते हैं कि सब कुछ मेरे द्वारा ही संपन्न होता है तो सामान्य मनुष्य के मन में एक जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि यदि सब कुछ ईश्वर द्वारा ही संपादित होता है तो व्यक्ति की व्यक्तिगत अनन्यता अर्थात उसकी व्यक्तिगत पहचान का क्या अर्थ है। व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता अर्थात उसके संकल्प की स्वतंत्रता इस स्थिति में किस रूप में देखी जा सकती है? श्रीमद् भागवत गीता के 18वें अध्याय के 14 में श्लोक में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि किसी कार्य को संपादित होने के लिए पांच तत्व आवश्यक हैं:
“अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्॥
शरीर, कर्ता (आत्मा), विभिन्न इन्द्रियाँ, अनेक प्रकार के प्रयास तथा ईश्वरीय कृपा – ये पाँच कर्म के कारण हैं। अधिष्ठान का अर्थ शरीर है जिसमे आत्मा निवास करती है। कर्ता का अर्थ आत्मा है। प्रश्नोपनिषद् में कहा गया है- “एष हि दृष्टा स्प्रष्टा श्रोता घ्राता रसयिता मन्ता बोद्धा कर्ता विज्ञानात्मा पुरुषः स परेऽक्षर आत्मनि सम्प्रतिष्ठते (4.9)” अर्थात यह आत्मा ही है जो देखती है, स्पर्श करती है, सुनती है, अनुभव करती है, स्वाद लेती है, सोचती और समझती है। इसलिए आत्मा को ज्ञाता और कर्मों का कर्त्ता दोनों माना गया है।
ब्रह्मसूत्र में भी कहा गया है – “ज्ञोऽत एव (2.3.18)” अर्थात यह सत्य है कि आत्मा ज्ञाता है। ब्रह्मसूत्र में पुनः वर्णन किया गया है, “कर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात् (2.3.33)” अर्थात आत्मा कर्मों की कर्ता है और शास्त्रों द्वारा इसकी पुष्टि की गई है।”
इसे एक उदाहरण द्वारा ऐसे समझ जा सकता है कि यदि एक विद्यार्थी जिसका दायित्व अध्ययन करना है, वह अपने स्वस्थ शरीर जिसमें आत्मा का निवास हो तथा उसकी इंद्रियां ठीक से कार्य कर रही हो तथा वह चेष्टापूर्वक अध्ययन हेतु अध्ययन सामग्रियों के साथ बैठता है फिर भी यदि वह अध्ययन नहीं कर पाता तो इसे ईश्वरीय इच्छा मानकर संतुष्ट होना चाहिए परंतु प्रारंभ की चार चरण व्यक्ति को स्वयं ही संपादित करने होते हैं और वह प्रारंभिक चार चीज ही उसके कार्य का आधार बनती है।
इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण ने व्यक्ति की व्यक्तिगत अनन्यता उसके सामर्थ्य के साथ-साथ उसके भाग्य जो प्रारब्ध रूप में व्यक्ति के कर्म का ही फल होता है, का अनुपम समन्वय किया है। गीता का यह अध्याय चारों वर्णो और उनके स्वभावगत कर्तव्यों का भी वर्णन कर्ता है। गीता के चौथे अध्याय में भगवान कृष्ण कहते हैं कि चारों वर्णो कि सृष्टि उन्होने ही की है –
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।
अर्थात, मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। उस (सृष्टि-रचना आदि) का कर्ता होने पर भी मुझ अव्यय परमेश्वर को तू अकर्ता जान। कर्मों के फलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसीलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता। गीता के इस अध्याय में कृष्ण चारों वर्णो के लिए कर्तव्यों का विवेचन करते हैं।
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥42॥
शान्ति, संयम, तपस्या, शुद्धता, धैर्य, सत्यनिष्ठा, ज्ञान, विवेक तथा परलोक में विश्वास-ये सब ब्राह्मणों के कार्य के स्वाभाविक गुण हैं।
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥43॥
शूरवीरता, शक्ति, धैर्य, रण कौशल, युद्ध से पलायन न करने का संकल्प, दान देने में उदारता नेतृत्व क्षमता-ये सब क्षत्रियों के कार्य के स्वाभाविक गुण हैं।
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥44॥
कृषि, गोपालन और दुग्ध उत्पादन तथा व्यापार, वैश्य गुणों से संपन्न लोगों के स्वाभाविक कार्य हैं। शूद्रता के गुण से युक्त लोगों के श्रम और सेवा स्वाभाविक कर्म हैं। उल्लेखनीय है कि चारों वर्णों के स्वभावगत कर्तव्यों का परंपरागत अर्थ इसी प्रकार है। INADS- USA और KSAS Lucknow के सम्मिलित प्रयास से एक प्रोजेक्ट के माध्यम से वैश्य और शूद्र वर्ण के कर्तव्यों को पुनर्परिभाषित करने का प्रयास किया गया है।
प्रोफेसर बलराम सिंह और डॉ आलोक कुमार द्विवेदी के शोधपत्र कृषि गौरक्ष्य वाणिज्यम वैश्य कर्म स्वभावजम की आधुनिक उपयोगी व्याख्या के अंतर्गत कृषि का अर्थ कृषि कार्य के साथ साथ किसी भी प्रकार की रचनात्मकता को सम्मिलित किया गया है। गौरक्ष्य में गौ वंश की रक्षा के साथ इसके मूल अर्थ पृथ्वी के संरक्षण की बात काही गयी है। और व्यापार का अर्थ है मन, वचन और कर्म की सुसंगतता अर्थात सत्यनिष्ठा ही व्यापार है। यदि इन गुणो को अपनाकर वैश्य वर्ण इन भावों से कर्म करता है तो निश्चित ही उसका कर्म संपोषणीय होगा और उसके कार्यों से समाज और राष्ट्र की उन्नति होगी।
इसी प्रकार प्रो बलराम सिंह और डॉ अपर्णा धीर के शोध पत्र में शूद्र वर्ण के कार्य सेवा करना को अन्य वर्णो से भी जोड़ने का प्रयास किया गया है। परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् में अपि शब्द यह परिभाषित करता है कि सेवा करना अन्य वर्णो के कर्तव्य के साथ साथ शूद्र वर्ण का भी कर्तव्य है। इसका आशय यह भी है कि चारों वर्णों के लोगों को अपना कार्य सेवा और कर्तव्य भाव से संपादित करना चाहिए। गीता के इस अध्याय में श्री कृष्ण यह स्पष्ट उद्घोष करते हैं कि ईश्वर सर्वत्र है।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥61॥
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थान प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥62॥
परमात्मा सभी जीवों के हृदय में निवास करता है। उनके कर्मों के अनुसार वह भटकती आत्माओं को निर्देशित करता है जो भौतिक शक्ति से निर्मित यंत्र पर सवार होती है। हे अर्जुन ! अपने पूर्ण अस्तित्त्व के साथ पूर्ण रूप से केवल उसकी शरण ग्रहण करो। उसकी कृपा से तुम पूर्ण शांति और उसके नित्यधाम को प्राप्त करोगे। इसके पश्चात श्री कृष्ण अर्जुन को सबसे गूढ रहस्य बताते हुए कहते हैं –
सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥64॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥65।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥66॥
पुनः मेरा परम उपदेश सुनो – जो सबसे श्रेष्ठ गुह्य ज्ञान है। मैं इसे तुम्हारे लाभ के लिए प्रकट कर रहा हूँ क्योंकि तुम मेरे प्रिय मित्र हो। सदा मेरा चिंतन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी अराधना करो, मुझे प्रणाम करो, ऐसा करके तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें ऐसा वचन देता हूँ क्योंकि तुम मेरे अतिशय मित्र हो। सभी प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और केवल मेरी शरण ग्रहण करो। मैं तुम्हें समस्त पाप कर्मों की प्रतिक्रियाओं से मुक्त कर दूंगा, डरो मत। इस भाव का प्रकटन ही भक्ति और अध्यात्म कि पराकाष्ठा है। रामचरितमानस में भी लक्ष्मण अपने समस्त सांसारिक और भौतिक सुखों को त्यागकर राम के साथ वन जाने को तैयार होते है और कहते हैं:
गुरु पितु मातु न जानहु काहू। कहहु सुभाऊ नाथ पतियाऊ।
मेरे सबहिं एक तुम स्वामी, दीनबन्धु उर अन्तरयामी॥
“हे भगवान! कृपया मुझ पर विश्वास करें। मैं अपने गुरु, पिता, माता आदि को नहीं जानता। जहाँ तक मैं जानता हूँ, तुम पतितों के रक्षक और सभी के हृदयों की बात जानने वाले अन्तर्यामी हो तथा मेरे स्वामी और सब कुछ हो”। प्रह्लाद ने भी इसी प्रकार से कहा: माता नास्ति पिता नऽस्ति नऽस्ति मे स्वजनो जनः।
“मैं किसी माता, पिता और कुटुम्ब को भी नहीं जानता, भगवान ही मेरे सब कुछ है।” इस प्रकार अर्जुन अपने कर्तव्यों को समझकर कर्म के लिए तैयार हो जाता है।”
(डा. आलोक कुमार द्विवेदी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दर्शनशास्ञ में पीएचडी हैं। वर्तमान में वह KSAS, लखनऊ में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं। यह संस्थान अमेरिका स्थित INADS, USA का भारत स्थित शोध केंद्र है। डा. आलोक की रुचि दर्शन, संस्कृति, समाज और राजनीति के विषयों में हैं।)