वर्षों तक गुलामी की बेड़ियों में जकड़े भारत को आजाद कराने में अनेक महापुरुषों ने अपना बलिदान दिया। मुगलों के बाद अंग्रेजों ने भी भारत को गुलाम बनाया। गुलामी के इस दौर से निकलने के लिए अनेक छोटी–बड़ी क्रांतियाँ एवं विद्रोह हुए। एक ओर इन क्रांतियों और विद्रोहों के नायक–नायिकाएं अपने प्राणों को बलिदान कर रहे थे तो दूसरी ओर तत्कालीन आधुनिक युगीन राष्ट्रवादी साहित्यकार अपनी लेखनी से जनमानस में क्रांति की चेतना जाग्रत कर रहे थे।
आज हम बात करेंगे एक ऐसे साहित्यकार की जिसने 19वीं सदी के प्रारंभ से ही साहित्य में नवजागरण के माध्यम से भारत की हताश जनता को जाग्रत करने का प्रयास किया। ये साहित्यकार हैं भारतेंदु हरिश्चंद्र। 9 सितंबर 1850 में वाराणसी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में भारतेंदु का जन्म हुआ था।
भारतेंदु हरिश्चंद्र आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक के रूप में माने जाते हैं। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, जिन्होंने साहित्य, पत्रकारिता, नाटक और कविता के माध्यम से समाज में जागरूकता और नवजागरण की भावना पैदा की। बाल्यकाल से ही वे साहित्य और संस्कृति के प्रति आकर्षित थे। भारतेंदु का बचपन विलासिता और कला के वातावरण में बीता। उनके पिता, गोपालचंद्र, स्वयं एक कवि थे, और उनके परिवार में संगीत और साहित्य का माहौल था। बाल्यकाल में ही भारतेंदु ने कविता लिखना शुरू कर दिया था। मात्र 15 वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी पहली काव्य रचना की। उनकी शिक्षा–दीक्षा बनारस में हुई, जहां उन्होंने अंग्रेजी और संस्कृत का गहन अध्ययन किया।
ये तो हुईं इनके बचपन की बातें लेकिन यहाँ एक तथ्य ध्यान देने योग्य है कि 1850 में इनका जन्म हुआ था और जन्म के महज 7 वर्ष बाद ही 1857 का संग्राम भी हुआ था। स्पष्ट है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र का समय औपनिवेशिक भारत का दौर था, जब अंग्रेजों का शासन अपने चरम पर था। ब्रिटिश सरकार भारतीयों का शोषण कर रही थी, और समाज विभिन्न प्रकार की आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक समस्याओं से ग्रस्त था। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को सफलता न मिलने से भारतीयों में कहीं–न–कहीं निराशा का माहौल था। विदेशी शासन के कारण भारतीय संस्कृति, भाषा और परंपराओं पर संकट था। ऐसे समय में नवजागरण का उद्देश्य भारतीय समाज को आत्मचेतना, राष्ट्रीयता और सांस्कृतिक गर्व के प्रति प्रेरित करना था। वास्तव में जब अंग्रेजों की शोषणकारी नीतियों से परेशान जनता ने अत्याचार को ही अपना भाग्य समझ लिया उस समय भारतेंदु ने अपने काव्य के माध्यम से न केवल अतीत के गौरव का ज्ञान कराया बल्कि अंग्रेजी शासन की तीखी आलोचना करके जन चेतना भी जाग्रत की। भारतेंदु भारत के गौरवशाली अतीत को याद करते हुए लिखते हैं–
“जो भारत जग में रह्यो सब सों उत्तम देश
ताही भारत में रह्यो अब नहीं सुख को लेस।“
भारत के पौराणिक इतिहास को याद करते हुए उनकी लेखनी से ‘जहं भीमकरन अर्जुन की छटा दिखती, वहां रही मूढ़ता कलह अविद्या राती।‘ जैसी पंक्तियाँ निकल पड़ती हैं।
यहाँ बता दें कि अतीत का गौरव गान भारतेंदु यूँ ही नहीं करते अपितु भारतीय जनता की निराशा को दूर करने के लिए करते हैं। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य से हम सभी परिचित हैं कि किसी हताश हो चुके व्यक्ति को ठीक करने के लिए कई बार उसकी शक्तियों का स्मरण उसे कराया जाता है यथा रामचरितमानस में भी जब हनुमान अपनी शक्तियों को भूल जाते हैं तो उन्हें यह याद दिलाया जाता है कि “कौन सो काज कठिन जग माहीं, जो नहिं होहि तात तुम पाहीं।” भारतेंदु भी अपनी रचनाओं के माध्यम से कहीं–न–कहीं यही कार्य कर रहे थे।
भारतेंदु ने अपनी काव्य रचनाओं के माध्यम से समाज में जागरूकता फैलाने का कार्य किया। उनके साहित्य में आधुनिकता, राष्ट्रीयता और भारतीय संस्कृति के प्रति प्रेम का अनोखा समन्वय मिलता है। उनकी रचना ‘भारत दुर्दशा‘ में उन्होंने भारत की दयनीय स्थिति का मार्मिक वर्णन किया। इस नाटक के माध्यम से उन्होंने ब्रिटिश शासन के शोषण, भारतीयों की गरीबी और देशभक्ति की भावना को अभिव्यक्त किया। चूँकि इस समय ब्रिटिश शासन ने भारतीयों को लूटने के लिए तरह–तरह के कर लगाए थे, भारत का सारा कच्चा माल बेहद सस्ते दामों पर बाहर भेज दिया जाता था। भारतेंदु इस स्थिति को कुछ इस तरह अपनी रचनाओं में लिखते हैं–
“अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी
पै धन विदेस चलि जात यह अति ख्वारी
ताहू पर महंगी काल रोग विस्तारी
दिन दिन दुख इस देत हा हा री
सब के ऊपर टिक्क्स की आफत आई
हा हा भारत दुर्दशा न देखी जाई।”
इतिहास के अध्ययन से भी हमें पता चलता है कि अंग्रेजों द्वारा बनाई गईं सभी नीतियाँ भारत के हित में बिल्कुल नहीं थीं बल्कि वे अंदर–ही–अंदर भारत को खोखला कर रही थीं। हालाँकि, उस समय अंग्रेजों की आलोचना करना बिल्कुल आसान नहीं था। अनेक पत्रिकाओं, पुस्तकों आदि को प्रतिबंधित कर दिया गया था किंतु भारतेंदु खुले शब्दों में अंग्रेजों की आलोचना करते हुए लिखते हैं–
“भीतर भीतर सब रस चूसै
बाहर से तन मन धन मूसै
जाहिर बातन में अति तेज
क्यों सखि साजन? नहीं अंगरेज।“
किसी भी राष्ट्र की उन्नति के लिए ‘स्व‘ बेहद आवश्यक है। भारतेन्दु भी स्वदेशी के समर्थक थे। यही वजह है उन्होंने स्वदेशी भाषा के उत्थान के लिए व्यापक कार्य किया। जहाँ एक ओर अंग्रेजों द्वारा हमारी भाषाओं को हीन बताकर अंग्रेजी को बढ़ावा दिया जा रहा था तो भारतेन्दु ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल‘ लिख रहे थे। हालाँकि अंग्रेजी के महत्व को भी वो समझते थे किंतु अंग्रेजी को निज भाषा के स्थान पर रखना उन्हें स्वीकार नहीं था–
“अंगरेजी पढ़िकै जदपि सब गुन होत प्रवीन।
वै निज भाषा ज्ञान बिनु, रहत हीन के हीन।”
इतना ही नहीं भारतेंदु ने ‘नीलदेवी‘ और ‘अंधेर नगरी‘ जैसे नाटकों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया। ‘अंधेर नगरी‘ में भ्रष्टाचार और न्याय प्रणाली की विफलता पर तीखा व्यंग्य किया गया है। इस नाटक का एक संवाद– “अंधेर नगरी, चौपट राजा। टके सेर भाजी, टके सेर खाजा।” तत्कालीन समाज की अनियमितताओं और शोषणकारी व्यवस्था को दर्शाता है।
तत्कालीन समय में अंग्रजों ने फूट डालो, राज करो की जो नीति अपनाई थी वह कामयाब भी हुई और वास्तव में ऐसी फूट पड़ी कि आजादी के इतने वर्षों तक भी उसके जख्मों को देखा जा सकता है। आज भी इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि ‘बंटेंगे तो कटेंगे‘। भारतेंदु ने भी इस बात को रेखांकित किया है कि जब भी भारत में फूट पड़ी है उसका परिणाम बेहद भयानक हुआ है–
“जग में घर की फूट बुरी,
घर की फूटहिं सों बिन साई सुबरन लंक पुरी,
फूटहिं सों सब कौरव नासै, भारत युद्ध भयो,
जाको घारो या भारत में अबलो नहिं पुज्यो,
फूटहिं सों जयचंद बुलायो, जबरन भारत धाम,
जाको फल अबलौं भोगता सब, आरज होई गुलाम।“
ये पंक्तियाँ भारतेंदु के समय में तो प्रासंगिक थीं, आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। अंतर इतना है उस समय अंग्रेज बाँट रहे थे और वर्तमान में चर्च प्रायोजित आतंकवाद, इस्लामी कट्टरपन तथा कई विदेशी शक्तियाँ भारत को बाँटने में लगी हुई हैं।
चूँकि भारतेंदु एक पत्रकार भी थे अतः उन्होंने पत्रकारिता में निडरता, निष्पक्षता जैसे मूल्यों को शामिल करते हुए बिना किसी भय के जनता की आवाज उठाई। भारतेंदु ने ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’, ‘कवि वचन सुधा’ और ‘बाल वोधिनी’ जैसी पत्रिकाओं के माध्यम से जनता को जागरूक किया। इन पत्रिकाओं ने भारतीय समाज के हर वर्ग को सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विषयों पर जागरूक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कुल मिलाकर देखा जाए तो भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपनी कविताओं, नाटकों और लेखों से लोगों को आत्मनिर्भरता, स्वतंत्रता और समाज सुधार की ओर प्रेरित किया। उनके साहित्य ने ना केवल तत्कालीन भारतीय समाज में नवजागरण की चेतना को जगाया, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक मार्गदर्शन प्रस्तुत किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने समय की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चुनौतियों को समझते हुए साहित्य को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। उन्होंने ना केवल भारतीय नवजागरण का मार्ग प्रशस्त किया, बल्कि भारतीय समाज को नई दिशा और दृष्टिकोण प्रदान किया। आजीवन राष्ट्र के प्रति सोचने वाले भारतेंदु ने 6 जनवरी 1885 को इस भौतिक संसार को छोड़ दिया। उनका जीवन और कृतित्व आज भी प्रेरणा का स्रोत है और उनके योगदान को हमेशा सम्मानपूर्वक स्मरण किया जाएगा।