वो ब्रिटिश दौर में हुआ था, इसलिए जलियांवाला बाग गोलीकांड इतिहास की पुस्तकों में दर्ज है। फिर एक तथ्य ये भी है कि पंजाब दिल्ली के पास है और झारखण्ड के जनजातियों के लिए ‘दिल्ली दूर है’। संभवतः इसी लिए जब निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर पुलिस द्वारा गोलियां चलवाने की बात होती है, शासन के दमन की बात होती है तो खरसावाँ (आज के झारखण्ड) में हुए गोलीकांड की बात नहीं होती।
कांग्रेस की सरकार आने से 1947 में बस इतना बदला था कि गोरे साहबों के बदले भूरे साहबों को सत्ता मिल गयी थी। पुलिस वही थी, अफसर वही थे और सत्ता का नशा भी वैसा ही था। इनमें से कुछ भी झारखंड के जनजातियों के लिए नहीं बदला था। खरसावाँ में आज भी नए साल पर एक जनवरी को कोई उत्सव का सा माहौल नहीं होता क्योंकि 1 जनवरी 1948 उनके लिए खरसावाँ गोलीकांड की यादें ताजा कर देने का दिन होता है।
गोलीकांड के पीछे की कहानी?
स्वतंत्र भारत में देशी रियासतों को शामिल करने के लिए सरदार वल्लभभाई पटेल ने रियासतों को तीन श्रेणियों में (आकार-आर्थिक स्थिति आदि के आधार पर) ‘ए’, ‘बी’ और ‘सी’ में बांटा था। इस बंटवारे में छोटी रियासत खरसावाँ ‘सी’ श्रेणी में आती थी। उस समय तक ओडिशा (1912 में) बंगाल से अलग और बिहार भी अलग हो चुका था। इस क्षेत्र के ओड़िया भाषी लोगों को देखते हुए मयूरभंज के साथ-साथ सरायकेला और खरसावाँ का भी ओडिशा में विलय का समझौता (केंद्र के दबाव में) हुआ। स्थानीय खरसावाँ और सरायकेला के आदिवासी ओडिशा में नहीं जाना चाहते थे, उन्हें अपने लिए अलग राज्य झारखण्ड में रहना था। चंद्रपुर जोजोडीह में नदी किनारे एक सभा 25 दिसम्बर 1947 को आयोजित हुई थी इसमें तय किया गया कि सिंहभूम को ओडिशा में ना मिलाया जाए बल्कि झारखण्ड एक अलग राज्य बने।
इस आयोजन में 1 जनवरी 1948 को जयपाल सिंह मुंडा (बड़े जनजातीय नेता और हॉकी टीम के पूर्व कप्तान) को भी आना था लेकिन किन्हीं कारणों से वे पहुँच नहीं पाए। रांची, जमशेदपुर, खूंटी, चाईबासा जैसे दूर के क्षेत्रों से भी परंपरागत हथियारों से लैस आदिवासी उस दिन सभा में पहुंचे थे। खरसावाँ हाट उस दिन ओडिशा मिलिट्री पुलिस से भरा पड़ा था। ओडिशा मिलिट्री पुलिस ने जनजातीय लोगों की भीड़ पर मशीनगन से फायरिंग की।
घटना के दिन नहीं पहुँच पाने के कारण बच गए जयपाल सिंह मुंडा ने 11 जनवरी को अपने भाषण में बताया कि जब फायरिंग रुकी तो खरसावाँ बाजार में खून ही खून दिख रहा था। लाशें बिछी थीं, घायल तड़प रहे थे, पानी मांग रहे थे लेकिन ओड़िसा प्रशासन ने ना तो बाजार के अन्दर किसी को जाने दिया और ना ही किसी को बाजार से निकलने दिया। रात में 6 ट्रकों में भरकर शव जंगलों में पशुओं के खाने के लिए फेंक दिए गए और नदियों में बहा दिए गए। घायलों को रात भर खुले मैदान में तड़पने और मृत्यु की प्रतीक्षा करने के लिए छोड़ दिया गया।
कैसे हुआ था गोलीकांड?
इस दौर में ओड़िया नेता विजय पाणी थे जो अपनी तरफ से साजिशें रच रहे थे। ओडिशा राज्य ने मुख्य मार्गों के बदले दूसरे रास्तों से होकर पुलिस को उनके ही आदेश पर 18 दिसम्बर 1947 को खरसावाँ भेज दिया था। ऐसा माना जाता है कि इसी वजह से आदिवासी ‘झारखंड आबुव उड़ीसा जारी क्बुव’ के साथ ‘रोटी पकौड़ी तेल में, विजय पाणी जेल में’ का नारा लगा रहे थे। आन्दोलनकारी जनजातियों को कोई अनुमान नहीं था कि उनका सामना ओडिशा मिलिट्री पुलिस की तीन कंपनियों से होने वाला है।
जनजातीय नेता खरसावाँ के महल में जाकर राजा से मिले और अपनी मांग बताई। राजा ने भी भारत सरकार से बात करेंगे, ऐसा कहा। दो से चार बजे तक आदिवासियों की सभा हुई और फिर लोग लौटने लगे। आधे घंटे बाद बिना चेतावनी के पुलिस ने गोलियां चलानी शुरू की और आधे घंटे तक गोलियां चलती रही। स्त्री-पुरुष और बच्चे तो क्या गाय-बकरियां और घोड़े भी इस गोलीबारी में बच नहीं पाए।
बिहार में उस समय श्रीकृष्ण सिंह मुख्यमंत्री थे। बिहार सरकार ने घायलों के उपचार के लिए चिकित्सा दल और सेवा दल भेजा मगर ओडिशा की सरकार ने उन्हें वापस भेज दिया। श्री बाबु ने फिर सरदार पटेल को चिट्ठी लिखकर घटना से अवगत करवाया। पत्रकारों को इस जगह जाने की अनुमति नहीं थी। मतय हेम्ब्रम, हरी सरदार और मडकी सोया जैसे 30-35 लोग जो इस गोलीकांड में मारे गए उनके नाम तो मिल जाते हैं लेकिन कांग्रेसी सरकारों ने पूरी तरह से इस घटना को जनता के स्मरण से उतार देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आधुनिक भारत के इतिहास को किन्हीं प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए पढ़ रहे छात्र-छात्राओं को छोड़ दें तो 50,000 की भीड़ पर मशीनगन से चली गोलियों की ये कहानी किसी को याद नहीं।
खरसावाँ हाट का एक हिस्सा आज इस घटना का स्मारक बना हुआ है। इसी में एक पार्क भी बना दिया गया है। आदिवासियों की रीति से यहाँ फूल, चावल की रस्सी और तेल चढ़ाकर पूजा भी की जाती है। इसे 2017 में कुछ समय के लिए ये पार्क बंद भी रहा था। प्रभात खबर झारखंड के कार्यकारी संपादक अनुज कुमार सिन्हा की किताब ‘झारखंड आंदोलन के दस्तावेज़: शोषण, संघर्ष और शहादत’ में इस गोलीकांड पर एक अलग से अध्याय है। इस किताब में पूर्व सांसद और महाराजा पीके देव की किताब ‘मेमोयर ऑफ ए बायगॉन एरा’ का जिक्र है, जिसके मुताबिक इस घटना में 2,000 लोग मारे गए थे। तब के कलकत्ता से प्रकाशित अंग्रेजी अखबार द स्टेट्समैन ने घटना के तीसरे दिन अपने तीन जनवरी के अंक में इस घटना से संबंधित एक खबर छापी, जिसका शीर्षक था- ’35 आदिवासी किल्ड इन खरसावाँ’।
झारखण्ड के गठन को आज करीब दो दशक बीतने को हैं। इसके बाद भी झारखण्ड को एक अलग राज्य बनाने के आंदोलनों में जिन वीरों ने अपने प्राणों का बलिदान किया, उन्हें वोट बैंक से अधिक कुछ समझकर याद नहीं किया जाता। ना तो उन्हें शहीदों के तौर पर कोई सम्मान मिला है, ना ही उनके परिवारों को कोई मुआवजा या आश्रितों को कोई मदद देने के कोई प्रयास कभी हुए। झारखंड के जालियांवाला बाग– खरसावाँ गोलीकांड के शहीद अब भी प्रतीक्षा कर ही रहे हैं।