पिछली लोकसभा की बात करें तो मुंबई के चुनावों में हर बार जैसे करीब 50% मतदाताओं ने ही अपने मताधिकार का प्रयोग किया। पिछले तीस वर्षों से मुंबई क्षेत्र में ये आंकड़ा 50% या उससे कम ही रहा है। इसकी तुलना में देखें तो राजनेता बिलकुल उल्टा व्यवहार करते हैं। कई वीडियो इन चुनावों के दौर के ऐसे दिखाई दिए जिसमें पत्रकार/यू-ट्यूबर एक समुदाय विशेष के लोगों से बातें कर रहे थे और वो खुलकर स्वीकार रहे थे कि उनकी पत्नी ने ‘लाडली बहना’ में पैसे लिए हैं, उन्हें व्यापार में लोन मिला है, मगर इसके बाद भी वो वोट सत्ताधारी दल (यानी भाजपा) को नहीं देने जा रहे थे।
कांग्रेस की बात करें तो हाल ही में चुनावों में वो महिलाओं को एक लाख नकद ट्रान्सफर का लोभ देती दिखी है। वार्षिक एक लाख का अर्थ हर महीने 8500 रुपये अकाउंट में आ जाना होता है। इसके अलावा किसानों के लिए सब्सिडी और एमएसपी के वादे रहे। दूसरी पार्टियाँ भी पीछे नहीं हैं, चाहे मुफ्त इलाज हो या मुफ्त शिक्षा, कर्ज माफ़ी से लेकर लैपटॉप/टेबलेट तक मुफ्त देने के वादे चुनावों में किये जाते रहे हैं। ऐसे में सवाल ये उठता है कि भारत में मतदाता हैं भी या केवल ग्राहक हैं? डिटर्जेंट के पैकेट पर साबुन फ्री, एक किलो चीनी पर चायपत्ती फ्री, कॉफ़ी पर मग फ्री, ऐसा तो ग्राहकों को लुभाने के लिए किया जाता है।
सरकारों का काम एक स्थायी सरकार देना होता है। इसमें सड़कें, बिजली, पानी, अस्पताल, स्कूल के भवन आदि मूलभूत सुविधाओं की बात हो सकती है। अगले पाँच या दस वर्षों के लिए शिक्षा की नीतियां क्या होंगी, कृषि सम्बन्धी कौन से सुधार होंगे, कानूनों में क्या बदलाव आने हैं, उनकी बात हो सकती है। नीतियां निर्धारित करना सरकार का काम है और जो सरकार बनाने निकला है उसे इन्हीं नीतियों पर बात करनी होगी। उदाहरण के तौर पर देखिये कि बैंकिंग से जुड़ा एक बड़ा बदलाव भारत में हुआ। भारत के अधिकांश लोगों के पास बैंक अकाउंट होते ही नहीं थे।
जब जनधन योजना के तहत लोगों के खाते खुलवाए गए और आगे भीम जैसे एप्प के जरिये ऑनलाइन लेन-देन की सुविधा मिली तो अधिकांश छोटे व्यापार भी ऑनलाइन भुगतान की सुविधा ग्राहकों को भी देनी शुरू की। ये एक बड़ा नीतिगत बदलाव था जिससे बैंक में लेन-देन की गिनती और रकम दोनों पर असर पड़ा होगा। जो काम नकद में होता था और आयकर के दायरे में लाना मुश्किल था, उसपर नजर बनाए रखने में भी इससे सुविधा हुई होगी। चुनावों के दौर में ऐसे नीतिगत बदलावों पर कोई बात नहीं होती। जिनपर चर्चा होती है, वो सिर्फ मुफ्त वाली योजनाएं होती हैं।
ऐसी योजनाओं का नुकसान दिखाई देना शुरू नहीं हुआ, ऐसा बिलकुल भी नहीं है। जब पड़ोसी देश श्रीलंका की अर्थव्यवस्था चौपट हुई और सरकार का तख्तापलट हो गया, उसी वक्त इनपर बात शुरू हो गयी थी। उसके बाद भी जब हिमाचल जैसे राज्यों में चुनाव हुए, तो मुद्दा वही मुफ्त योजनाएं रहीं। परिणाम ये हुआ कि हिमाचल सरकार अपने कर्मचारियों को पेंशन-सैलरी भी नहीं दे पा रही, इस स्थिति में पहुँचते राज्यों को हमने देखा। पश्चिम बंगाल में ऐसी ही स्थिति हो चली है, केंद्र से पैसे लेने के लिए केरल जैसे राज्य सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचे। इसमें एक अच्छी बात ये हुई कि सुप्रीम कोर्ट ने विधायिका के मामलों में हाथ डालने से साफ इनकार कर दिया और सर्वोच्च न्यायालय से राज्यों को अपनी मुफ्त बांटो योजनाएं जारी रखने में कोई छूट नहीं मिली। इससे चुनावी मुद्दों पर कोई असर पड़ा हो, ऐसा फिर भी दिखाई नहीं देता क्योंकि महाराष्ट्र जैसे संपन्न माने जाने वाले राज्यों में भी चुनाव ऐसी ही मुफ्त योजनाओं की घोषणाओं पर लड़े जा रहे हैं।
इस पूरे दौर में एक बदलाव ये भी हुआ है कि स्वतंत्रता के समय आम भारतीय लोगों की शिक्षा का जो स्तर था, वो बहुत कम था। शिक्षित लोगों की दर आज के भारत में 70 प्रतिशत के लगभग पहुँचने लगी है। इसके बाद भी शिक्षित मतदाता पुराने दौर के मतदाता से अधिक जागरूक हुआ है क्या? लोग बचत अपनी अगली पीढ़ियों के लिए करते हैं, मकान आने वाली पीढ़ियों के लिए बनवाते हैं, लेकिन जो नीतियां आने वाली पीढ़ियों पर असर डालेगी, उनकी बात नहीं करते। उदाहरण के तौर पर जब ऐसी सभी योजनाओं के साथ टैक्स नहीं बढ़ाया जाएगा, जो कि एक विपक्षी पार्टी का चुनावी वादा है, तो क्रेडिट मार्केट पर इसका असर होगा और इंटरेस्ट रेट बढ़ जाएगा। जब अर्थव्यवस्था धीमी गति से बढ़ रही हो और कर्ज का स्तर पहले ही जीडीपी के 81 प्रतिशत पर पहुँच रहा हो, उस समय ऐसी योजनाएं क्या असर करेंगी, ये सोचना मुश्किल नहीं है।
इनके अलावा अर्थव्यवस्था और देश पर जो एक और असर होगा (या हो रहा है) उसपर भी विचार करना होगा। सोचिये कि एक व्यक्ति को घर पीएम आवास योजना के तहत मिल जाता है। स्वच्छ भारत मिशन के तहत उसके घर में शौचालय बनवा दिया जाता है। परिवार को सरकार से मुफ्त राशन मिल रहा है और दिन का खाना उसके बच्चे मिड-डे मील योजना में स्कूल में खा रहे हैं, जहाँ शिक्षा के अलावा पोशाक आदि भी सरकार ही दे रही है। उसकी पत्नी को भी लाडली बहन से लेकर अन्य योजनाओं में लाभ मिल रहा है। सौ दिन का काम उसे मनरेगा योजना में मिल जाता है। ऐसे में वो कौशल विकास योजनाओं का लाभ लेकर काम सीखेगा? उसे ज़रूरत क्या है काम करने की? ग्रामीण क्षत्रों में आपको किसान आराम से ये कहते मिल जायेंगे कि उन्हें मजदूर इसलिए नहीं मिलते क्योंकि सरकार सबको मुफ्त में सब दे रही है तो किसी को काम करने की ज़रूरत ही नहीं है। मोदी सरकार ही 80 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन दे रही है।
स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे बुनियादी मुद्दे चुनावों का विषय होने चाहिए थे। मुफ्त पाने के लोभ ने मतदाता को ऐसा उपभोक्ता बना दिया है कि वो स्कूल-कॉलेज की व्यवस्थाएं सुधरने की बातें चुनावी भाषणों में अपने नेताओं से सुनना ही नहीं चाहता। एक तरफ सरकार किसानों की आय दोगुना करने की बात कर रही है, और दूसरी तरफ उसे कर्ज माफी से लेकर भारी सब्सिडी भी दे रही है, तो ऐसे में आय दोगुना करने का न कोई प्रेरक तत्व बचा, न ही कोई लाभ।
जब उसे कर्ज वापस देना ही नहीं है तो आय पहले जितनी थी, या दोगुनी हो गयी क्या फर्क पड़ता है? भारत को बदलना है तो इस रेवड़ी संस्कृति से मुक्ति तो पानी होगी। उसके बिना 2047 में विकसित देश हो जाने का सपना एक सपना भर है। फिलहाल जैसा माहौल है, उसमें तो बस मध्यम-वर्गीय लोगों की गाढ़ी कमाई से वसूले गए टैक्स से सब्सिडी देने की सरकारी योजनाएं देखिये, और बदलावों का इन्तजार कीजिये।