यह कहानी कोई आज नहीं शुरू होती है। ये राजीव गाँधी की सरकार वाले उस दौर में शुरू होती है जिनकी सरकारों के लिए अक्सर कहा जाता है कि राजीव गाँधी के बाद कभी कोई सरकार 400 सीट से अधिक के साथ लोकसभा में नहीं आई। सितम्बर 1988 में सलमान रुश्दी की किताब ‘द सैटनिक वर्सेज’ प्रकाशित होकर आई और इसके साथ ही विवाद शुरू हो गया। किताबें जलाने वालों को इस किताब से भी दिक्कत थी।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंसक विरोध और इस किताब को जलाने की बात शुरू हुई। मुस्लिम इस किताब को ‘कुफ्र’ घोषित कर रहे थे। विश्व की दूसरी जगहों की ही तरह भारत में भी इस पुस्तक का हिंसक विरोध मुस्लिम समुदायों ने करना शुरू कर दिया था। राजीव गाँधी सरकार फौरन घुटनों पर आ गयी और कस्टम के विभाग के ज़रिए 5 अक्टूबर 1988 में इस किताब के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इस तरह अपने छपने के एक महीने से भी कम वक्त में भारत में ये किताब प्रतिबंधित हो गई।
पहले ऐसे मामलों में क्या हुआ है?
महाशय राजपाल जी ने 1912 के दौर में ‘राजपाल एंड संस’ नाम से लाहौर में हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, और पंजाबी भाषाओं में प्रकाशन की शुरुआत की थी। इस प्रकाशन को परिवार नियोजन पर भारत की शुरुआती किताबों में से एक ‘संतान संख्या का सीमा बंधन’ जैसी प्रगतिशील विषयों की पुस्तकें छापने के लिए जाना जाता है। उनके काम शुरू करने के कुछ ही वर्ष बाद (1923 में) मुस्लिमों ने ‘कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी’ नाम से श्री कृष्ण और भगवद्गीता का विरोध करती और स्वामी दयानंद सरस्वती को नीचा दिखाती ‘उन्नीसवी सदी का महर्षि’ लिखी थी। एक अहमदिया मुस्लिम ने ये पुस्तकें लिखी थी। इनके विरोध में महाशय राजपाल जी के प्रकाशन से ‘रंगीला रसूल’ छपी। बस फिर क्या था! खुद क्या किया है जिसके विरोध में ये किताब आई, इसे भूलकर मुस्लिम महाशय राजपाल के खून के प्यासे हो गए।
आखिरकार एक बढ़ई इल्म-उद-दीन ने 6 अप्रैल 1929 को महाशय राजपाल पर आठ बार छुरे से वार किया और उनकी हत्या कर दी गई। 1923 से 1929 के दौर में महाशय राजपाल को लंबी मुकदमेबाज़ी भी झेलनी पड़ी थी। उस दौर तक धारा 295 (ए) अभी जैसी नहीं बनी थी और किताबों पर प्रतिबन्ध लगाना, उन्हें जलाने पर सजा होना इतना आसान नहीं था। लिहाजा मुकदमे धारा 153 (ए) यानी दो समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ाने की लगाई गई थीं। धारा 153 (ए) अलग-अलग मजहबों के पैगम्बरों की ऐतिहासिक पड़ताल को प्रतिबंधित नहीं करती क्योंकि फिर किसी के लिए भी इतिहास लिखना संभव ही नहीं रह जाएगा। इसलिए मुक़दमे से तो महाशय राजपाल साफ़ बरी हो गए लेकिन इस्लामिक हत्यारों ने आखिर उनकी जान ले ही ली। आज करीब सौ वर्षों बाद भी स्थितियों में कोई बहुत बदलाव नहीं आया है। ‘सर तन जुदा’ के नारे लगाती भीड़ सड़कों पर उतरती ही। जैसे उस समय अहमदिया मुस्लिम हिन्दुओं का आर्थिक बॉयकॉट करने के पोस्टर छपवा रहे थे, वैसे ही आज भी होता है।
सलमान रुश्दी का क्या हुआ?
ईरान के अयातुल्ला खोमेइनी ने सलमान रुश्दी की हत्या के लिए 1989 में फतवा जारी कर दिया। इसके बाद सलमान रुश्दी को 6 वर्षों के लिए भूमिगत होना पड़ा था। वर्षों छुपे रहने के बाद भी जब सलमान रुश्दी बाहर आए तो वो पूरी तरह सुरक्षित नहीं थे। ध्यान रहे कि वो भारत जैसे किसी मुस्लिम तुष्टिकरण वाले देश में नही थे, इसके बाद भी असुरक्षित थे। उन पर अगस्त 2022 में न्यूयॉर्क में एक लेक्चर के दौरान हमला हुआ और उसका नतीजा ये हुआ कि उनकी नज़र काफी हद तक जाती रही और एक हाथ भी बुरी तरह चोटिल हुआ था।
भारत में प्रतिबंध क्यों हुई ‘द सैटनिक वर्सेज’?
जब ‘द सैटनिक वर्सेज’ प्रकाशित हुई थी, वो दौर भारत में राजनीतिक उथल-पुथल का दौर भी था। मीडिया पर प्रतिबन्ध लगाने के आरोपों से राजीव गाँधी और कांग्रेस घिरी हुई थी। मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए शाहबानो मामले में अदालत के फैसले को पलटने के लिए संसद में बिल पास हो रहे थे। इसके अलावा अयोध्या राम जन्मभूमि मंदिर का मामला ज़ोर पकड़ने लगा था। राजा वीपी सिंह कांग्रेस से अलग होकर बोफोर्स घोटाले के लिए ‘मिस्टर क्लीन’ कहलाने वाले राजीव गाँधी के लिए ‘गली-गली में शोर है… चोर है’ का नारा दाग चुके थे। ऐसे दौर में जब केवल तुष्टीकरण के लिए एक किताब को प्रतिबंधित किया गया तो सलमान रुश्दी ने राजीव को एक खुली चिट्ठी भी लिखी थी। आज के इंटरनेट के दौर के हिसाब से बात करें तो किताब पर प्रतिबन्ध लगाने का कोई विशेष फायदा नहीं हुआ। सरकार ने किताब के केवल आयात पर प्रतिबन्ध लगाया था, किताब के अन्दर जो लिखा था, उसे प्रतिबंधित नहीं किया था। डाउनलोड करके पढ़ने वालों पर आज यह प्रतिबंध बिलकुल बेअसर है।
प्रतिबंध हटा कैसे?
वर्ष 2019 में इस किताब के आयात पर प्रतिबंध को अदालत में चुनौती दी गई और उसी मामले की सुनवाई में सरकार का वो नोटिफिकेशन मंगवाया गया, जिसमें आयात को प्रतिबंधित किया गया था। पता चला कि 1988 की वो अधिसूचना ही लापता हो चुकी है। किताब बची रह गयी और आदेश लापता हो गए! अंततः 5 नवंबर 2024 को दिल्ली हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि जब कोई आदेश है ही नहीं तो प्रतिबंध को बनाए रखने का कोई कारण नहीं बनता है। इस तरह संदीपन खान और उनके वकील उद्यम मुखर्जी के पक्ष में फैसला आया। पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर तस्वीरों में, किताबों की दुकानों में ‘लिमिटेड स्टॉक’ के लेबल के साथ भारतीय दुकानों में दिखाई दे रही है।
‘इंडियन एक्सप्रेस’ की खबरों के मुताबिक उस दौर के फैसले के बारे में पी चिदंबरम का कहना है कि ये फैसला एक गलती थी। करीब चार दशक बाद ये किताब फिर से उपलब्ध है और पाठकों में इस पुस्तक के लिए काफी उत्साह भी दिखाई दे रहा है। ये तो मानना ही पड़ेगा कि भारतीय लोग अब भीड़तंत्र से डर कर किताबें छुपा नहीं रहे, विचारों की लड़ाई खुले मैदान में आने लगी है।