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बचपन में ही अनाथ हो गए थे उधम सिंह: कहानी उस क्रांतिकारी की, जिन्होंने 21 साल बाद जालियाँवाला नरसंहार का बदला लेकर पूरी की शपथ

माता-पिता की मौत के बाद उधम सिंह अनाथ हो गए, आखिरकार उन्हें अपने बड़े भाई साधु सिंह के साथ अमृतसर के एक अनाथालय में रहना पड़ा था।

khushbusingh1 द्वारा khushbusingh1
26 December 2024
in इतिहास
उधम सिंह स्वर्ण मंदिर गए और तालाब में स्नान करके शपथ ली कि जब तक जनरल डायर की हत्या नहीं करेंगे, तब तक उन्हें चैन नहीं आएगा

उधम सिंह स्वर्ण मंदिर गए और तालाब में स्नान करके शपथ ली कि जब तक जनरल डायर की हत्या नहीं करेंगे, तब तक उन्हें चैन नहीं आएगा

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भारत की इस धरती पर एक से बढ़कर एक वीर पैदा हुए। इन्हीं में से एक सरदार उधम सिंह थे। सरदार उधम सिंह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन क्रांतिकारियों में शामिल हैं, जिन्होंने इस देश के लिए अपनी आहुति दे दी। उधम सिंह अंग्रेज़ों के जालियाँवाला बाग कांड से इतने दुखी हुए कि उन्होंने जनरल डायर को मारने की कसम खा ली और 21 साल बाद ब्रिटेन जाकर उस कसम को निभाया भी। आखिरकार उन्हें ब्रिटेन में 31 जुलाई को फाँसी दे दी गई।

उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर ज़िले के सुनाम गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम सरदार तहल या टहल सिंह और माता का नाम नारायण कौर था। उधम सिंह का बचपन का नाम शेर सिंह था। उनका बचपन बेहद कठिनाइयों से गुज़रा था। उनके पिता एक फार्म हाउस में काम करते थे। सन 1901 में उधम सिंह की मां का निधन हो गया। उधम सिंह के पिताजी तहल सिंह रेलवे में सेवारत संगरुर के सरदार धन्ना सिंह ओवरसियर के यहाँ नौकरी कर रहे थे। बाद में धन्ना सिंह ने उन्हें एक रेलवे फाटक पर गेट कीपर की नौकरी लगवा दी। यह फाटक जंगलों से घिरा कहा था।

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कहा जाता है कि उधम सिंह बचपन से ही बहुत साहसी थे। जंगल से नज़दीक होने के कारण कई बार जंगली जानवर आवासीय इलाके में भी आ जाते थे। एक दिन एक बाघ उधम सिंह के घर आ धमका और उनके दूध पीने के लिए लाई गई बकरी पर हमला कर दिया। उधम सिंह ने अपने भाई के साथ मिलकर बाघ पर कुल्हाड़ी से हमला कर दिया। बाघ घायल हो गया। तब उधम सिंह के पिता भी आ गए। इस तरह बकरी को नुकसान पहुँचाए बिना बाघ भाग गया। बाद में तहल सिंह ने यह नौकरी छोड़ दी और अमृतसर की ओर चल पड़े। रास्ते में उनकी तबीयत बिगड़ गई और उनकी मौत हो गई। यह सन 1907 का समय था। माता-पिता की मौत के बाद उधम सिंह अनाथ हो गए। आखिरकार उन्हें अपने बड़े भाई साधु सिंह के साथ अमृतसर के एक अनाथालय में रहना पड़ा। वहाँ सन 1917 में उनके भाई की मौत हो गई। इस तरह वे दुनिया में पूरी तरह अकेल हो गए।

सन 1919 में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और इधर-उधर नौकरी की। आखिरकार वे देश में जारी आज़ादी की लड़ाई से प्रभावित हो गए। वे चंद्रशेखर आजाद को अपना गुरु मानते थे। हालाँकि, वे समाज में हिंदू-मुस्लिम विभाजन से बहुत दुखी रहते थे। इसके कारण उन्होंने अपना नाम शेर सिंह से बदल कर राम मोहम्मद सिंह आज़ाद रख लिया। हालाँकि, सन 1933 में उन्होंने एक बार फिर नाम बदला और पासपोर्ट बनवाने के लिए अपना नाम उधम सिंह नाम रख लिया था।

सन 1919 में रॉलेट एक्ट के विरोध में ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस के नेता सत्य पाल और सैफुद्दीन किचलू को गिरफ्तार कर लिया था। इसके विरोध में 13 अप्रैल 1919 को पंजाब के अमृतसर स्थित जालियाँवाला बाग में हज़ारों की संख्या में लोग जमा हुए थे। इन लोगों का मकसद गिरफ्तारी का शांतिपूर्ण विरोध था। ‘महान क्रांतिकारी उधम सिंह‘ नामक किताब में रामपाल सिंह और बिमला देवी लिखते हैं कि वहाँ उधम सिंह भी पहुँचे। गर्मियों का दिन था। इसलिए वह प्रदर्शन में शामिल लोगों को पानी पिलाने का काम करने लगे। उस समय उनकी अवस्था 20 साल की थी। उसी दौरान ब्रिटिश सेना आई और बिना चेतावनी के गोलियाँ बरसाने लगीं। जालियाँवाला बाग में जनरल रेजिनाल्ड डायर सेना के साथ पहुँचा था और वहाँ जमा हुए लोगों पर फायर करने का आदेश दे दिया था। इस हत्याकांड में सैकड़ों लोग मारे गए। मृतकों में मासूम बच्चों से लेकर महिलाएँ एवं वृद्ध तक शामिल थे। निहत्थे लोगों की लाशें गिरने लगीं। इसको देखकर उधम सिंह वहीं लेट गए। उधम सिंह ने 15 मिनट तक चलीं गोलियों से लोगों को मरते अपनी आँखों से से देखा। इससे उनका मन द्रवित हो उठा और ब्रिटिशों के प्रति मन में चिंगारी सुलग उठी।

उन्होंने देखा कि इस हत्याकांड के बाद भी अंग्रेज़ों द्वारा भारतीयों पर किया जा रहा उत्पीड़न नहीं रुक रहा था। किसी विरोध को रोकने के लिए अमृतसर, गुजरांवाला और लाहौर में मार्शल लॉ लगा दिया गया। लोगों को घरों से निकलने की बात तो दूर, अपनी घर की खिड़की से झाँकने पर गोली मार दी जाती। महिलाओं-बुजुर्गों को गली में रेंग कर चलना होता था। किसी मिल जाता तो उनसे उठक-बैठक कराई जाती। यह सब देखकर उधम सिंह के मन में उठी चिंगारी ज्वाला बन गई। अगले दिन उधम सिंह स्वर्ण मंदिर गए और तालाब में स्नान करके शपथ ली कि जब तक जनरल डायर की हत्या नहीं करेंगे, तब तक उन्हें चैन नहीं आएगा। उसके कुछ दिन बाद वे जलियांवाला बाग गए और वहाँ की मिट्टी हाथ में लेकर जनरल डायर और पंजाब के गवर्नर माइकल ओ डायर को मारने की प्रतिज्ञा ली। इसके बाद वे लाला लाजपत राय और एवं अन्य क्रांतिकारियों के संपर्क में आए। इसी दौरान उधम सिंह क्रांतिकारियों की गदर पार्टी के संपर्क में आए और उसका साहित्य पढ़ने लगे। वे गदर पार्टी के सदस्य बन गए और इसमें लोगों को शामिल करने लगे।

साल 1924 में अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ाई को और मजबूत बनाने के लिए वो दक्षिण अफ्रीका, ज़िम्बाव्बे, ब्राज़ील और अमेरिका की यात्रा पर चले गए। वहां जाकर उन्होंने धन इकट्ठा किया। वे कई देश होते हुए अमेरिका पहुँच गए। अमेरिका में भी कई भारतीय क्रांतिकारी थे। वहाँ पता लगा कि क्रांतिकारियों को हर तरह से, खासकर वित्तीय मदद करने वाले राजा महेंद्र प्रताप सिंह आने वाले हैं। सन 1924 में अमेरिका के कैलिफोर्निया में राजा महेंद्र प्रताप सिंह का एक राष्ट्रवादी भाषण हुआ। इससे क्रांतिकारियों के मन में उत्साह की एक नई लहर दौड़ गई। उस समय गदर पार्टी के सचिव भगवान सिंह राजा साहब के साथ थे। उनके कहने पर उधम सिंह 1927 में वापस भारत लौट आए। यहाँ उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ हथियार आदि जमा करना शुरु कर दिया। इसी बीच 30 अगस्त 1927 को उनके खिलाफ एक मुकदमा दर्ज हो गया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। यहाँ उनका नाम शेर सिंह उर्फ उदे सिंह था। उन्हें 23 जनवरी 1928 तक मुल्तान जेल में रहना पड़ा। फिर उन्हें दूसरी जेल में भेज दिया गया।

इसी बीच जनरल डायर की इंग्लैंड के ब्रिस्टल में लंबी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई। अपने जीवन के अंतिम क्षण में डायर ने जालियाँवाला बाग कांड को लेकर कहा, “कुछ लोग कहते हैं कि मैंने अच्छा किया, कुछ लोग कहते हैं कि मैंने गलत किया। अब मैं सिर्फ और सिर्फ मरना चाहूँगा। मैं ईश्वर से जानना चाहूँगा कि मैंने सही किया या गलत।” इसकी जानकारी जब उधम सिंह को लगी तो वे बहुत दुखी हुए। आखिर उनका मकसद जनरल डायर की हत्या करना था। इस दौरान उनके दोस्तों ने समझाया कि जिसकी मौत हुई है, वो ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड ई. एच. डायर था। उसने गोलियाँ चलवाईं थीं लेकिन गोली चलाने का आदेश देने वाला डायर अभी ज़िंदा है। उसका नाम लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ’डायर है। उसी ने गोली चलाने का आदेश दिया था। इसके बाद उधम सिंह अपने शपथ को जल्दी-से-जल्दी पूरा करने के लिए इंग्लैंड पहुँचना चाहते थे।

इसी बीच उन्हें पता चला कि भगत सिंह को बम फेंकने के आरोप में अपने साथियों राजगुरु और सुखदेव सिंह के साथ 23 मार्च 1931 को फाँसी पर लटका दिया गया। ये खबर सुनकर उनका क्रांतिकारी मन सुलग उठा। आखिरकार जेल में चार साल एक माह चौबीस दिन रहने के बाद उन्हें 23 अक्टूबर 1931 को रिहा कर दिया गया। जेल से आजाद होने के बाद उन्हें पता चला कि जालियाँवाला बाग कांड के आरोपित इंग्लैंड चले गए। बाहर आकर उन्होंने पासपोर्ट बनवाने की कोशिश की लेकिन नहीं बना तो वे कश्मीर चले गए गए और वहाँ से ब्रिटिश पासपोर्ट बनवाया। यह पासपोर्ट उन्हें 20 मार्च 1933 को मिला। ब्रिटिश पुलिस और खुफिया एजेंसियाँ उन्हें उदे सिंह या उदय सिंह, शेर सिंह और फ्रैंक ब्राज़ील के नाम से जानती थीं। अब पासपोर्ट में उनका नाम उधम सिंह था।इस फर्ज़ी ब्रिटिश पासपोर्ट का नंबर 52753 था।

पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में इतिहास के प्रोफेसर डॉ. नवतेज सिंह ने अपनी किताब ‘द लाइफ स्टोरी ऑफ शहीद उधम सिंह‘ में लिखा है कि 1934 में उधम सिंह ब्रिटेन पहुँचे। उधम सिंह सबसे पहले इटली पहुँचे। वहाँ से फ्रांस, स्विट्जरलैंड और ऑस्ट्रिया से गुज़रते हुए अंत में इंग्लैंड पहुँचे। सन 1936 और 1937 के बीच उधम सिंह ने रूस, पोलैंड, लातविया और एस्टोनिया की यात्रा की और 1937 में फिर से इंग्लैंड लौट आए। वहाँ वे विभिन्न कंपनियों में अपनी पुश्तैनी काम बढई का करते रहे और मौका तलाशते रहे।

अल्फ़्रेड ड्रेपर अपनी किताब ‘अमृतसर-द मैसेकर दैट एंडेड द राज‘ मे लिखते हैं, “12 मार्च 1940 को ऊधम सिंह ने अपने कई दोस्तों को खाने पर बुलाया। खाने के बाद सबको लड्डू खिलाया और अंत में कहा कि कल यानी अगले दिन लंदन में एक चमत्कार होने जा रहा है। इससे ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिल जाएँगीं। 13 मार्च 1940 को ऊधम सिंह ने सलेटी रंग का एक सूट पहना और अपने कोट की ऊपरी जेब में अपना परिचय पत्र रखा। उस पर लिखा हुआ था- मोहम्मद सिंह आज़ाद, 8 मौर्निंगटन टैरेस, रीजेंट पार्क, लंदन। कोट की जेब में उन्होंने स्मिथ एंड वेसेन मार्क 2 की रिवॉल्वर रखी और जेब में 8 गोलियाँ रखीं।

दरअसल, 13 मार्च 1940 को लंदन के कैक्सटन हॉल में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की एक बैठक चल रही थी। इसमें जनरल माइकल डायर भी आने वाला था। जब वे कैक्सटन हॉल पहुँचे तो वहाँ किसी ने उनकी तलाशी नहीं ली और ना ही पूछा कि इस आयोजन के लिए उनके पास टिकट है या नहीं। हॉल में जनरल डायर डायर का भाषण का जैसे ही भाषण खत्म हुआ, वे मुस्कारते हुए नजदीक पहुँचे और अपनी पिस्तौल निकाल कर गोली चला दी। डायर वहीं गिर गए। उन्हें दो गोलियाँ मारी। इसके बाद उधम सिंह ने मंच पर खड़े हुए सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट ऑफ़ इंडिया रहे लॉर्ड ज़ेटलैंड को निशाना साध कर गोली चला दी। जेटलैंड के शरीर के बायें हिस्से में दो गोलियाँ लगीं। वो अपने सीने को पकड़े हुए वहीं अपनी कुर्सी पर गिर गए। इसके बाद ऊधम सिंह ने अपना ध्यान बंबई के पूर्व गवर्नर लॉर्ड लैमिंग्टन और पंजाब के पूर्व लेफ़्टिनेंट गवर्नर सर सुई डेन की तरफ़ मोड़ा और उन पर गोली चला दी। हालाँकि, चार लोगों पर गोली चलाने के बावजूद एक की मौत हुई और वह जनरल डायर था। 21 साल बाद उधम सिंह ने अपनी शपथ पूरी कर ली थी।

गोली मारने के बाद उधम सिंह चिल्लाते हुए बाहर की ओर भागे। ‘ऊधम सिंह हीरो इन द कॉज़ ऑफ़ इंडियन फ़्रीडम‘ में राकेश कुमार लिखते हैं कि डायर को मारने के बाद ऊधम सिंह हॉल के पीछे की तरफ़ भागे। उसी समय वहाँ बैठी बर्था हेरिंग नाम की शक्तिशाली महिला ने उन्हें दबोच लिया। उधम सिंह जब बर्था से खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रहे थे, उसी समय क्लाउड रिचेज़ नाम का एक शख्स वहाँ आ गया और उन्हें जमीन पर गिरा दिया। इसके बाद वहाँ मौजूद सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें पकड़ लिया। पुलिसकर्मियों ने उधम सिंह से कहा कि उन्होंने चार गोलियाँ चलाई हैं तो उधम सिंह ने कहा कि नहीं, उन्होंने छह गोलियाँ चलाई हैं। उधम सिंह ने सार्जेंट जोंस के बॉस डिटेक्टिव इंस्पेक्टर डेटन से पूछा, “जैटलैंड मरे कि नहीं? मैंने उन्हें दो गोलियाँ मारी हैं।”

इस घटना के तुरंत बाद लंदन और लाहौर में ब्रिटिश झंडे को झुकाकर शोक मनाया गया। हाउस ऑफ कॉमंस में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने डायर की मौत पर उनके परिजनों के प्रति संवेदना व्यक्त की। वहीं, भारत में महात्मा गाँधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस हत्या की निंदा की। लंदन में भी भारतीय मूल के 200 लोगों ने इंडिया हाउस में एकत्रित हो कर इस हत्या की निंदा की। अगर इस हत्या का किसी ने स्वागत किया था तो वह था, जर्मनी। जर्मनी ने ऊधम सिंह को स्वतंत्रता सेनानी माना और उनके कार्य को देश के लिए बलिदान बताया।

डायर की हत्या और अन्य गणमान्य ब्रिटिश पर गोली चलाने के लिए उधम सिंह को जेल में डाल दिया गाय। जेल में उनके साथ क्रूरता की हदें पार की गईं। उन्हें हर तरह प्रताड़ित किया गया। उन पर मुकदमा चला। अल्फ़्रेड ड्रेपर अपनी किताब ‘अमृतसर: द मैसेकर दैट एंडेड द ब्रिटिश राज‘ में लिखते हैं कि जज ने उधम सिंह से पूछा कि वे ये बताएँ कि उन्हें फाँसी क्यों न दी जाए। इस पर उधम सिंह ने चिल्लाकर कहा, “मौत की सज़ा की मुझे कोई परवाह नहीं है। मुझे मौत से डर नहीं लगता। मैं एक उद्देश्य को पूरा करने के लिए मरुँगा। मैंने उसे इसलिए मारा, क्योंकि वो एक अपराधी था। वो हमारे लोगों के हौसले कुचलना चाहता था। इसलिए मैंने उसे कुचल दिया। मैंने बदला लेने के लिए पूरे 21 साल इंतज़ार किया। मैं बहुत ख़ुश हूँ कि मैंने अपना काम पूरा कर लिया। मैं अपने देश के लिए मर रहा हूँ।”

आखिरकार उधम सिंह को 4 जून 1940 को फाँसी की सजा सुना दी गई। 31 जुलाई 1940 को सुबह 9 बजे उन्हें पेंटनविले जेल में फाँसी दे दी गई। जिस समय उन्हें फाँसी दी गई, उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जर्मनी ब्रिटेन पर बमबारी कर रहा था। फाँसी के बाद उधम सिंह के शव को मदन लाल ढींगरा के शव के पास दफना दिया गया। आजादी के बाद भारत सरकार के प्रयास से 19 जुलाई 1974 को उनका पार्थिव शरीर उनकी क़ब्र से बाहर निकालकर चार्टर्ड विमान से भारत लाया गया। उस समय पंजाब के मुख्यमंत्री ज्ञानी ज़ैल सिंह ने उनकी चिता को मुखाग्नि दी। 2 अगस्त 1974 को उनकी अस्थियाँ इकट्ठा करके सात कलशों में रखा गया। इन अस्थियों में से एक को हरिद्वार, दूसरे को किरतपुर साहब गुरुद्वारा और तीसरे कलश को रउज़ा शरीफ़ भेजा गया। एक को जालियाँवाला बाग में डाला गया। इस तरह उनकी अस्थियाँ को अलग-अलग विसर्जित करके उन्हें श्रद्धांजलि दी गई।

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