कुंभ स्नान का इतिहास क्या है? हमारे ग्रन्थ क्या कहते हैं? प्रयागराज में महाकुंभ के आयोजन के बीच इन सवालों पर चर्चा ज़रूरी है। अतीत से लेकर आज तक विविध कालखंडों में भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता अपने सार्वभौमिक स्वरूप में निरंतर प्रवाहमान रही है। विश्व की विभिन्न संस्कृतियों के जन्म एवं उनके विघटन का जीवंत गवाह भारत की सांस्कृतिक चेतना सदियों से बनी रही है।
भारत की यह सांस्कृतिक चेतना भारत के अपने उत्सवधर्मिता, सर्वग्राह्यता एवं सामासिक भाव के परिणामस्वरूप जीवन्तता को प्राप्त है। इसी सांस्कृतिक चेतना का एक अध्याय कुंभ स्नान है। अलग-अलग धर्म एवं दासताओं के अनगिनत चक्र के बीच कुंभ की महत्ता एवं उसकी नसार्वभौमिता ने अतीत से आज तक सनातन से होते हुए आर्य एवं हिंदू संस्कृति की एकसूत्रता का मार्ग प्रशस्त किया है।
प्रयागराज में आयोजित होने वाला है कुंभ
जब-जब भारत के सामाजिक ताने-बाने को विदेशी आक्रांताओं द्वारा वर्ण, जाति एवं ऊंच- नीच, भेद- भाव के कुचक्रों में फंसाकर विखंडित करने का प्रयास किया जाता रहा है तब-तब महाकुंभ जैसे आयोजन इन सभी विखंडित मानसिकता के समक्ष सांस्कृतिक गौरव के लिए प्रथम पंक्ति में खड़े रहे हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देवासुर संग्राम में समुद्र मंथन के पश्चात् निकले अमृत की कुछ बूंदें छीना-झपटी के दौरान धरती के चार स्थानों पर गिरीं। अमृत की उस एक बूंद की चाह में अति प्राचीन काल से लेकर आज तक नदियों में स्नान की परंपरा से वैसे ये तो पता नहीं कि लोगों को अमृत की वह बूंद मिली या नहीं, परंतु संस्कृति की संपूर्णता, उसकी संप्रभुता एवं उसकी सार्वभौमिकता के लिए कुंभ आज भी वरदान सदृश है।
सनातन संस्कृति का एक ऐसा महान पर्व जो कर्मकांड के कुछ कुत्सित क्रियाकलापों, मंदिरों में विशेष वर्ग के प्रवेश निषेध संबंधी इत्यादि सभी निर्बल पक्ष को विसर्जित कर नदी की जलधारा में एक साथ स्नान कर करते हुए सनातन संस्कृति की सामाजिक एवं समरस अंतस् चेतना को प्रदर्शित करता है। कुंभ प्राचीन काल से मध्य, आधुनिक सहित आगत कल में भी सनातन और आर्य संस्कृति की एकसूत्रता का अमृत रूपी ऐसा प्रवाह है जो सदियों से बहता रहा है तथा शताब्दियों तक प्रवाहमान रहेगा।
कुंभ का वैदिक दृष्टांत व इतिहास
वेदों में “कुंभ” शब्द कई स्थानों पर आया है, और इसका संबंध जल-प्रवाह से जोड़ा गया है। एक संदर्भ में चार की संख्या भी निर्दिष्ट की गई है, लेकिन इसका संबंध अमृतमंथन कथा या हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक के कुंभ पर्वों से नहीं है। ऐसी स्थिति में इस शब्द के वास्तविक अर्थ और तात्पर्य को समझने की आवश्यकता है।
ऋग्वेद (10/89/7) के अनुसार,
जघानं वृत्रं स्वधितिर्वनेव रुरोज पूरो अरदत्र सिन्धून्।
विभेद गिरं नवमित्र कुम्भमा गा इन्द्रो अकृणुतस्व युग्भि:।।
इंद्र सूर्य या विद्युत मेघ को मारता है। जैसे कुठार जंगलों को काटता है, वैसे ही वह मेघों की नगरियों को ध्वस्त करता है और नदियों को जल से युक्त करता है। यह नये घड़े के समान मेघ का भेदन करता है और अपने सहयोगियों (मरुतों) के साथ वर्षा को अभिमुख करता है। दूसरी व्याख्या में इसे “कच्चे घड़े” के रूप में बताया गया है, लेकिन अर्थ वही है।
प्रयाग-कुंभ-रहस्य में इसे इस प्रकार समझाया गया है कि कुंभ पर्व में जाने वाला व्यक्ति दान, होम, और अन्य सत्कर्मों के माध्यम से अपने पापों को काटता है। जैसे गंगा नहर अपने तटों को नष्ट करते हुए प्रवाहित होती है, वैसे ही कुंभ पर्व व्यक्ति के पूर्व संचित पापों का नाश कर उसे नूतन और शुद्ध बनाता है।
शुक्ल यजुर्वेद (19/87) में
कुम्भे वानेष्ठुर्जनिता शचोभिर्यास्मित्रगे योन्यां गर्गो नन्त:।
प्लाशिर्व्यक्त शतधार उत्पन्त्ते दुबे च कुम्भी स्वधा पितृभ्य।।।
“कुंभ” और “कुंभी” शब्द का प्रयोग स्त्री-पुरुष के संयोग से संतति की उत्पत्ति के प्रतीक रूप में किया गया है। दयानंद सरस्वती के “भाषा-भाष्य” में इसे मानव को इहलोक में शारीरिक सुख और जन्मांतर में उत्कृष्ट सुख प्रदान करने वाले पर्व के रूप में व्याख्यायित किया गया है। हालांकि, यह आवश्यक है कि सत्य की खोज में निष्पक्षता बनाए रखें और किसी भी अर्थ को आरोपित न करें।
अथर्ववेद (19/53/3) में भी “कुंभ” शब्द आया है।
पूर्ण: कुम्भोधिकाल आहितस्तं वै,
पश्यामो बहुधा नु संनत:।
सइमा विश्वा भुवनानि प्रत्यइ,
काल समाहु परमेव्योमन्।।
क्षेमकरणदास त्रिवेदी के अनुसार, कुंभ का अर्थ समय के प्रयाग से है, जो धर्मात्मा लोगों को सद्मति और अनेक प्रकार की संपत्तियां प्रदान करता है। इसे महान आकाश में ग्रह-राशि के योग से संबंधित बताया गया है। शास्त्री जी ने इसे बारह वर्षों के अंतराल पर आने वाले कुंभ के रूप में व्याख्यायित किया है, जिसे महान आकाश में ग्रहों और राशियों के योग से देखा जा सकता है। हालांकि, 12 वर्षों के कुंभ का भाव स्वकल्पित और आरोपित प्रतीत होता है। यह व्याख्या आस्थामूलक है, लेकिन इसका वेदों के वास्तविक तात्पर्य से कोई ठोस संबंध नहीं दिखता।
कुंभ का ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व
कुंभ शब्द का शाब्दिक अर्थ है “द्वार,” “सुगम,” और “सुरक्षित स्थान।” यहाँ कुंभ से तात्पर्य अमृत के द्वार से है। वैदिक ग्रंथों में कुंभ शब्द का उल्लेख मिलता है। ‘मेला’ का अर्थ है समूह में लोगों का एकत्र होना, मिलना, या उत्सव मनाना। समग्र रूप से देखा जाए तो कुंभ मेले का अर्थ “एक ऐसा स्थान जहां अमृत जैसा दिव्य आयोजन हो” है।
7वीं शताब्दी में चीनी बौद्ध यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृतांत में हिंदू प्रथाओं और प्रयागराज में आयोजित कुंभ का उल्लेख किया था। उन्होंने प्रयाग की नदियों और इसे हिंदू तीर्थयात्रा का एक महत्वपूर्ण स्थल बताया।
प्रयागराज का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। मत्स्य पुराण के अध्याय 103-112 में प्रयागराज की नदियों और तीर्थयात्रा के महत्व का सबसे व्यापक वर्णन है। महाभारत में प्रयाग में स्नान को प्रायश्चित्त और अतीत के पापों से मुक्ति का साधन बताया गया है।
महाभारत के तीर्थयात्रा पर्व में कहा गया है:
“हे भरतश्रेष्ठ, जो व्यक्ति दृढ़ व्रत का पालन करता है और माघ मास के दौरान प्रयाग में स्नान करता है, वह पापों से मुक्त होकर स्वर्गलोक को प्राप्त करता है।”
महाभारत के अनुशासन पर्व में कुंभ को एक महत्वपूर्ण तीर्थ बताया गया है। इसमें उल्लेख है कि कुंभ स्नान से व्यक्ति सत्य, दान, आत्म-नियंत्रण, धैर्य, और अन्य आध्यात्मिक मूल्यों के साथ जीवन व्यतीत करता है।
कुछ विद्वानों का मानना है कि यह कुंभ मेले का सबसे पुराना ऐतिहासिक वर्णन है, जो 644 ईस्वी में प्रयाग में हुआ था। ह्वेन त्सांग के अनुसार, प्रयाग में हर पाँच साल में एक आयोजन होता था, जिसमें बुद्ध की मूर्ति और भिक्षा वितरण का प्रमुख स्थान था। इस आयोजन में लोग आत्मा की मुक्ति के लिए शामिल होते थे।
कुंभ पर्व के महत्व को प्राचीन ग्रंथों में कई स्थानों पर उजागर किया गया है। इन ग्रंथों के अनुसार, कुंभ में स्नान समस्त पापों का नाश करता है और अनंत पुण्य प्रदान करता है। स्कंद पुराण में कुंभ स्नान की महिमा इस प्रकार वर्णित है:
सहस्त्रम कार्तिके स्नानम, माघे स्नानशतानि च।
वैशाखे नर्मदा कोटि: कुम्भ्स्नाने ततफलम ॥
“कार्तिक मास में गंगा में एक हजार बार स्नान करने से, माघ मास में संगम पर सौ बार स्नान करने और वैशाख मास में नर्मदा में एक करोड़ बार स्नान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह महाकुंभ में एक बार स्नान करने से प्राप्त होता है।”
विष्णु पुराण में भी कुंभ स्नान की प्रशंसा की गई है:
अश्वमेध सहस्राणि वाजपेय शतानि च।
लक्षं प्रदक्षिणा भूमे: कुम्भस्नाने तत्फलम्।।
“हजार अश्वमेध यज्ञ, सौ वाजपेय यज्ञ, और लाख बार पृथ्वी की परिक्रमा करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह कुंभ में एक बार स्नान करने से मिल जाता है।”
इस प्रकार प्राचीन ग्रंथों और ऐतिहासिक उल्लेखों में कुंभ पर्व को एक अत्यंत पवित्र और पुण्यदायक उत्सव बताया गया है। यह पर्व केवल धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, परंपराओं और आध्यात्मिक मूल्यों का जीवंत प्रतीक है। कुंभ में स्नान का महत्व पापों से मुक्ति, आत्मा की शुद्धि और अनंत पुण्य की प्राप्ति के रूप में प्रतिष्ठित है।
(डा. आलोक कुमार द्विवेदी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दर्शनशास्ञ में पीएचडी हैं। वर्तमान में वह KSAS, लखनऊ में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं। यह संस्थान अमेरिका स्थित INADS, USA का भारत स्थित शोध केंद्र है। डा. आलोक की रुचि दर्शन, संस्कृति, समाज और राजनीति के विषयों में हैं।)