“मैं क्यों लिखता हूँ? यह प्रश्न बड़ा सरल जान पड़ता है पर बड़ा कठिन भी है। क्योंकि इसका सच्चा उत्तर लेखक के आंतरिक जीवन के स्तरों से संबंध रखता है। एक उत्तर तो यह है कि मैं इसीलिए लिखता हूँ कि स्वयं जानना चाहता हूँ कि क्यों लिखता हूँ—लिखे बिना इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल सकता है। वास्तव में सच्चा उत्तर यही है। लिखकर ही लेखक उस आभ्यंतर विवशता को पहचानता है जिसके कारण उसने लिखा—और लिखकर ही वह उससे मुक्त हो जाता है।”
ये शब्द उस लेखक के हैं जो खुद की लेखनी में खुद को तलाशने की कोशिश कर रहा है, ये शब्द खुद से किए गए सवाल और फिर उनमें जवाब मिलने की संतुष्टि हैं। ये शब्द हैं सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन के। जिन्हें उनके उपनाम ‘अज्ञेय’ से खूब पहचाना जाता है। आज अज्ञेय का जन्मदिन है, जयंती भी कह सकते हैं लेकिन कवि को लेकर धारणा है कि वो कभी समाप्त नहीं होता है, वो अपने शब्दों के ज़रिए लोगों को चेतनाओं को वर्षों, दशकों और सदियों तक प्रभावित करता रहता है। किसी लेखक या कवि के लिए उसके शब्द ही उसके होने का सबसे बड़ा प्रमाण हैं…जब तक शब्द हैं, विचार हैं, तब तक ‘अज्ञेय’ भी हैं। अपने शब्दों की जादूगरी से वो पाठकों की चेतनाओं को झकझोर रहे हैं और ऐसा लंबे वक्त तक होता रहेगा, उनके शब्दों में लोग ‘अज्ञेय’ को पाते रहेंगे।
‘सच्चा’ का बचपन
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ का जन्म 7 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के कसया (आधुनिक कुशीनगर) में हुआ था। यह वही जगह है जहां पर कभी बुद्ध को महापरिनिर्वाण की प्राप्ति हुई थी। उनके पिता हीरानंद शास्त्री आर्कियोलॉजिस्ट यानी पुरातत्वविद् थे और पुरातात्विक खुदाई के इंचार्ज पिता के अस्थाई बसेरे में बुद्ध के स्तूप के निकट ही उनका जन्म हुआ था। बचपन में प्यार से लोग उन्हें सच्चा कहते थे। पिता के नाम के चलते वे अलग-अलग जाते रहते थे और यायावरी ही सच्चा के जीवन का हिस्सा बन गई थी। अज्ञेय की औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षा लखनऊ, श्रीनगर, जम्मू, मद्रास, लाहौर, नालंदा, पटना आदि स्थानों पर हुई। उन्होंने संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी, बांग्ला आदि भाषाएं सीखीं ।
बम बनाने वाले सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन
1921 में मां के साथ पंजाब यात्रा में जलियांवाला बाग के दर्शन से उनके मन में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की चिंगारी जल उठी। लाहौर में पढ़ते समय उनका संपर्क क्रांतिकारियों से हुआ और वे ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी’ के सदस्य बन गए। पढ़ाई के दौरान ही उनका संपर्क क्रांतिकारी गतिविधियों से हो गया था और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष के दौरान 1930 में उन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया और 1930-36 की अवधि उन्होंने विभिन्न जेलों और नज़रबंदी में गुज़ारी।
भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना के दौरान अज्ञेय ने दिल्ली में ‘हिमालयन खादलेंटीन’ नामक उद्योग स्थापित किया था। इसकी आड़ में यहां बम बनाए जाते थे। यहीं पर बम परीक्षण के दौरान भगवती चरण बोहरा की मृत्यु हो गई जिसके बाद यह योजना छोड़नी पड़ी। पहले लाहौर और फिर दिल्ली जेल में यातनाएं भोगते हुए उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं। जेल के बाद उन्हें घर में ही नजरबंद रखा गया। इसके बाद उन्होंने लेखन और पत्रकारिता को आजीविका का साधन बनाया।
कैसे मिला अज्ञेय उपनाम?
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन के ‘अज्ञेय‘ उपनाम की कहानी भी उनकी जेल यात्राओं से ही जुड़ी हुई है। दिल्ली जेल में लिखी अपनी ‘साढ़े सात कहानियां’ उन्होंने प्रकाशन के उद्देश्य से जैनेंद कुमार को भिजवाई थी। जैनेंद्र कुमार द्वारा प्रेमचंद को भेजी गई इन कहानियों में से दो राजनीतिक कहानियां प्रेमचंद द्वारा स्वीकार कर ली गई। उस समय तक ‘अज्ञेय’ जेल में थे तो उनका नाम प्रकाशित करने का खतरा कोई नहीं उठना चाहता था और आखिर में तय हुआ कि लेखक की नाम की जगह ‘अज्ञेय'(अज्ञात) नाम का उपयोग किया जाए। अज्ञेय ने बाद में बताया था कि उन्हें यह नाम पसंद नहीं आया था लेकिन उन्होंने इसे स्वीकर कर लिया था। वह कविताओं और कहानियों जैसी रचित कृति का प्रकाशन ‘अज्ञेय’ नाम से कराते रहे। हालांकि, लेख, विचार, आलोचना आदि के प्रकाशन के लिए उन्होंने सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन का ही उपयोग किया है।
‘अज्ञेय के कई जीवन’
अक्षय मुकुल ने ‘अज्ञेय’ की एक लंबी शोधपरक जीवनी लिखी है, इसका शीर्षक है ‘लेखक, विद्रोही, सैनिक, प्रेमी: अज्ञेय के कई जीवन’, ऐसी ही अज्ञेय की ज़िंदगी भी रही। क्रांतिकारी थे जेल गए, लेखक बने, संपादन किया, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना में भी रहे थे। अज्ञेय का संपादन कार्य उतना ही विविध और स्वतंत्रता-प्रधान था जितना उनका लेखन। उन्होंने सैनिक, विशाल भारत, प्रतीक, दिनमान, नया प्रतीक, नवभारत टाइम्स, थॉट, वाक और ऐवरी मेन्स वीकली जैसी हिंदी और अंग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन और प्रकाशन किया। लेकिन उनकी स्वाभाविक स्वतंत्रता और अपनी शर्तों पर काम करने की प्रतिबद्धता ने उन्हें किसी एक पत्र से लंबे समय तक जुड़ने नहीं दिया।
अज्ञेय ने कविता, कहानी, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, डायरी, निबंध, नाटक और संस्मरण सहित सौ से अधिक पुस्तकों की रचना की। शेखर एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी (उपन्यास), अरे यायावर रहेगा याद, एक बूँद सहसा उछली (यात्रा-वृत्तांत), त्रिशंकु, आत्मने पद (निबंध), विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल और ये तेरे प्रतिरूप (कहानी संग्रह) आदि उनकी प्रमुख रचनाएं हैं। उनकी कविता में व्यक्ति की स्वतंत्रता का आग्रह है और बौद्धिकता का विस्तार भी है। उन्हें अनेक पुरस्कार मिले हैं, जिनमें साहित्य अकादमी पुरस्कार, भारत भारती सम्मान और भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार शामिल हैं। ‘आंगन के पार द्वार’ के लिए अज्ञेय को 1964 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार और ‘कितनी नावों में कितनी बार’ के लिए 1978 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
अंततः हर यात्रा का एक पड़ाव होता है। शब्द भी थकते हैं, विचार भी स्थिर होते हैं और प्रवाह भी कभी ठहरता है। 4 अप्रैल 1987 को ‘अज्ञेय’ का भौतिक अस्तित्व समाप्त हो गया लेकिन शब्द कभी नहीं मरते हैं। जब तक शब्द जीवित हैं, जब तक विचार बहते रहेंगे, तब तक ‘अज्ञेय’ भी बहता रहेंगे…अपने लेखन में, चेतना में और हर उस पाठक की सोच में, जो कभी इन शब्दों से टकराएगा।
अज्ञेय के कुछ शब्दों और आपसे, मुझसे और समाजसे कुछ सवालों के साथ आज की बात खत्म करते हैं…”हम ‘महान साहित्य’ और ‘महान लेखक’ की चर्चा तो बहुत करते हैं। पर क्या ‘महान पाठक’ भी होता है? या क्यों नहीं होता, या होना चाहिए? क्या जो समाज लेखक से ‘महान साहित्य’ की मांग करता है, उससे लेखक भी पलट कर यह नहीं पूछ सकता कि ‘क्या तुम महान समाज हो’?”