Shri Martandrao Jog Story: भारत का इतिहास ऐसे नायकों से भरा है जिन्होंने न देशभक्ति की मिसाल कायम की है। न केवल देशभक्ति उन्होंने समाज को एकजुट करने का रास्ता भी दिखाया। ऐसा ही एक नाम है श्री मार्तंडराव जोग जिन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रारंभिक दिनों में अपनी अनूठी भूमिका निभाई। नागपुर के ‘जोगबाड़ा’ के इस हिंदुत्वप्रेमी उद्योगपति ने संघ, कांग्रेस, और हिंदू महासभा के बीच सेतु बनकर एक असाधारण जीवन जिया। मार्तंडराव जोग संघ के पहले और एकमात्र सरसेनापति थे। आइये जानें उनके जीवन की कहानी कि कैसे उन्होंने देश और समाज को नई दिशा देने के लिए काम किया।
1899 में जन्मे जोग नागपुर के शुक्रवार पेठ में ‘जोगबाड़ा’ के मशहूर उद्योगपति थे। प्रथम विश्वयुद्ध में हिस्सा ले चुके जोग ने कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी को अपने दृढ़ संकल्प से हराया था। लोग उन्हें ‘डॉक्टर ऑफ कैंसर’ कहते, लेकिन जोग इसका श्रेय अपने बाड़े के प्राचीन पीपल वृक्ष और मारुति मंदिर को देते थे।
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‘डॉक्टर ऑफ द कैंसर’
नागपुर के शुक्रवार पेठ स्थित ‘जोगबाड़ा’ में 1899 में एक संपन्न उद्योगपति परिवार में जन्मे मार्तंडराव जोग एक असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी थे। प्रथम विश्वयुद्ध में उन्होंने अपनी वीरता का परिचय दिया था। एक ऐसी बीमारी, कैंसर, जिसे सुनकर ही लोग हिम्मत हार जाते हैं, उसे उन्होंने अपने प्रबल मनोबल से पराजित कर दिया था। यही कारण था कि लोग उन्हें स्नेह से ‘डॉक्टर ऑफ द कैंसर’ भी कहते थे। हालांकि, श्री जोग इस अद्भुत जीवटता का श्रेय अपने बाड़े के विशाल पीपल के वृक्ष और हनुमान मंदिर को देते थे, जिनकी छाया और आशीर्वाद में उन्हें शक्ति मिलती थी।
- श्री मार्तंडराव जोग का जन्म 1899 में एक उद्योगपति परिवार में हुआ था।
- नागपुर के शुक्रवार पेठ स्थित ‘जोगबाड़ा’ में उनका निवास था।
- प्रथम विश्व युद्ध में भाग लिया था।
- कैंसर जैसे रोग को मनोबल से परास्त किया।
- लोग उन्हें “डॉक्टर ऑफ दि कैंसर” कहते थे।
- स्वास्थ्य का श्रेय पीपल के वृक्ष और बाड़े के मारुति मंदिर को देते थे।
RSS के एकमात्र सरसेनापति थे मार्तंडराव जोग
नागपुर के डोके मठ में 9-10 नवम्बर, 1929 की वह बैठक भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय का सूत्रपात करने वाली थी। इसी मंथन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की भावी दिशा तय हुई और संगठन के पहले प्रमुख पदाधिकारियों का चयन हुआ। डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार को आद्य सरसंघचालक, श्री बालासाहब हुद्दार को सरकार्यवाह और जिस व्यक्ति की कहानी आज हम कह रहे हैं, श्री मार्तंडराव जोग को सरसेनापति जैसे महत्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित किया गया।
- संघ का पहला और एकमात्र सरसेनापति नियुक्त किया गया।
- 9-10 नवम्बर, 1929 को डोके मठ, नागपुर में उन्हें सरसेनापति बने।
- डॉ. हेडगेवार के साथ गहरी मित्रता थी।
- संघ की स्थापना बैठक में उपस्थित नहीं रह सके लेकिन बाद में समर्थन दिया।
- आजीवन संघ कार्य में सक्रिय रहे।
- शाखा के लिए घर-घर जाकर युवाओं को जुटाया।
- संघ शिक्षा वर्ग की व्यवस्था में योगदान दिया।
संघ और कांग्रेस का संगम
मार्तंडराव जोग का जीवन दो ध्रुवों को जोड़ने का अनूठा उदाहरण था। वे एक ओर संघ के प्रति समर्पित थे, तो दूसरी ओर कांग्रेस सेवा दल (Martandrao Jog Relation With Congress) के प्रमुख के रूप में सक्रिय। यह एक दिलचस्प विरोधाभास था। उस दौर के हिन्दू महासभा (Martandrao Jog Relation With Hindu Mahasabha) और कांग्रेस के सभी बड़े नेता उनके पास सलाह और मार्गदर्शन के लिए आते रहते थे। 1930 में उन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए कारावास भी भोगा था। उनकी वेशभूषा भी उनके विचारों का अद्भुत संगम थी। कांग्रेस के कार्यक्रमों में वे सफेद खादी की गांधी टोपी पहनते थे, वहीं संघ के कार्यक्रमों में वे गर्व से गणवेश की काली टोपी और भगवा पगड़ी धारण करते थे। उनकी भगवा पगड़ी और काली टोपी संघ की शाखाओं में गर्व का प्रतीक थी, तो खादी की गांधी टोपी कांग्रेस के मंचों पर उनकी पहचान।
- वे कांग्रेस सेवा दल, नागपुर के प्रमुख भी थे।
- हिन्दू महासभा और कांग्रेस के बड़े नेता उनसे परामर्श करते थे।
- 1930 में जेल भी गए।
- कांग्रेस कार्यक्रमों में गांधी टोपी और संघ में काली टोपी पहनते थे।
- हिन्दुत्व भावना से ओतप्रोत रहते थे।
संघ की स्थापना को पूर्ण समर्थन
एक प्रखर हिन्दुत्व प्रेमी होने के कारण श्री जोग की डॉ. हेडगेवार से गहरी मित्रता थी। संघ की स्थापना वाली ऐतिहासिक बैठक में वे किसी कारण से उपस्थित नहीं हो सके थे, लेकिन अगले ही दिन उन्होंने डॉ. जी से मिलकर इस नवजात संगठन को अपना पूर्ण समर्थन और सहयोग देने का वचन दिया। डॉ. हेडगेवार उनसे संघ के कार्यों में और अधिक सक्रियता की अपेक्षा रखते थे, लेकिन श्री जोग अपने पारिवारिक व्यवसाय और अन्य सामाजिक कार्यों में भी पूरी निष्ठा से लगे रहते थे।
- विजयादशमी पथ संचलन में घोड़े पर सवार होकर तलवार और भगवा ध्वज के साथ भाग लेते थे।
- नागपुर के सार्वजनिक गणेशोत्सव में उनके परिवार की बड़ी भूमिका थी।
- श्री गुरुजी और श्री बालासाहब देवरस भी उनसे परामर्श करते थे।
- संघ शिक्षा वर्ग के अंत में सभी शिक्षार्थियों को उनके घर भोजन पर बुलाया जाता था।
आजीवन डॉ. हेडगेवार के निष्ठावान अनुयायी बने रहे। वे डॉ. जी के साथ घर-घर जाकर शाखा के लिए बालकों और युवाओं को जुटाने में अथक प्रयास करते थे। संघ शिक्षा वर्ग की व्यवस्था में भी उनकी सक्रिय भागीदारी हमेशा बनी रहती थी। उनकी निष्ठा कांग्रेस के प्रति अटूट थी, लेकिन वे एक गर्वीले हिन्दू भी थे। यही कारण था कि नागपुर के विजयादशमी पथ संचलन में वे पूरे रौब के साथ घोड़े पर सवार होकर चलते थे, एक हाथ में तलवार और दूसरे में हिन्दू धर्म का प्रतीक भगवा ध्वज लहराता था। नागपुर के सार्वजनिक गणेशोत्सव में भी उनके परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी।
कांग्रेसियों ने जला दिया था कारखाना
1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद नागपुर में हिंसक माहौल बन गया। कुछ उपद्रवियों ने जोग के गुब्बारे के कारखाने को जला दिया। आग उनके घर तक पहुंचने वाली थी, लेकिन आजाद हिंद सेना के मेजर जोशी ने इसे रोका। जब दोबारा हमला हुआ तो जोग स्वयं बंदूक लेकर सामने आए, और हमलावर भाग खड़े हुए। यह घटना उनके साहस को उजागर करती है।
- 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद, उनका गुब्बारा कारखाना जलाया गया।
- आजाद हिन्द सेना के मेजर जोशी ने पहले षड्यंत्र को विफल किया।
- दूसरी बार जब हमला हुआ, तो श्री जोग खुद बंदूक लेकर सामने आ गए।
हेडगेवार की समाधि बचाई
जोग के बाड़े में गाय, भैंस, कुत्तों के साथ एक चीते का बच्चा भी पलता था। उनका विशाल पुस्तकालय साहित्य प्रेमियों के लिए मंदिर जैसा था। कृषि विशेषज्ञ के रूप में भी उनकी ख्याति थी। 1975 के आपातकाल में जब संघ के कार्यकर्ता जेल में थे तो डॉ. हेडगेवार की समाधि की उपेक्षा होने लगी। जोग ने विनोबा भावे और तत्कालीन मुख्यमंत्री से मिलकर इसकी देखभाल सुनिश्चित की।
4 मई 1981 को अनेक प्रतिभाओं के धनी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पहले और एकमात्र सरसेनापति श्री मार्तंडराव जोग ने इस दुनिया से विदा ली। उनका जीवन एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसने अपनी निष्ठा, साहस और समन्वय की भावना से समाज और संगठन दोनों में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनका जीवन एक प्रेरणा है कि कैसे एक व्यक्ति विभिन्न विचारधाराओं को अपनाते हुए भी अपने सिद्धांतों पर अडिग रह सकता है। उनकी गाथा आज भी संघ के स्वयंसेवकों और राष्ट्रप्रेमियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई है।