पुस्तक का नाम: तानसेन का ताना-बाना
लेखक: राकेश शुक्ला
प्रकाशक: सुरुचि प्रकाशन दिल्ली
पृष्ठ: 115
एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि इतिहास लेखन और अध्ययन का क्या लाभ है? थोड़ा सा विचार करेंगे तो बड़ा सरल सा उत्तर मिलेगा कि ‘इससे अतीत में हुई गलतियों के बारे में पता चलता है’। इससे यह पता चलता है कि हमें ऐसी गलतियाँ नहीं करनी चाहिए। इसके साथ ही हमें उन युक्तियों या विधियों या तौर तरीकों का भी पता चलता है जिससे मनुष्य का जीवन देश काल परिस्थिति अनुसार सर्व सुख संपन्न हो सके। विद्वान जन इस प्रश्न का उत्तर बहुत विस्तार से देते हैं। इसी तरह दूसरा प्रश्न यह भी है कि इतिहास लेखन और अध्ययन न करने का नुकसान क्या है? अब उत्तर ढूंढने या विचार करने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि इसके अनेक प्रत्यक्ष प्रमाण भारत भूमि के वक्ष पर आज भी अकड के साथ खड़े हैं।
दिल्ली की क़ुतुब मीनार का वास्तविक इतिहास कितने लोग जानते हैं? हिन्दुओं के आराध्य देव महादेव की नगरी काशी में ‘ज्ञानवापी’ मस्जिद कैसे हो गयी? रामलला के जन्मस्थल के इतिहास पर लुटेरे आतंकी बाबर से जुड़े तुच्छ से बाबरी ढांचे का इतिहास लम्बे समय तक क्यों भारी पड़ा रहा? हिन्दू समाज पर इसका क्या प्रभाव पड़ा? श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर आज भी मस्जिदों की दीवारों से आधे-अधूरे ढके हुए और सीना ताने खड़े स्तंभ चीख-चीख कर क्या बोल रहे हैं? भोपाल की भोजशाला में आज भी विद्या देवी सरस्वती की पूजा करने में हिन्दू समाज को कठिनाई क्यों होती है? भारत को लूटने और लोगों का धर्म परिवर्तन करने आये विदेशी लुटेरों और आतंकियों का महिमामंडन इस देशी की संतति आज तक स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ने को विवश क्यों है? उपरोक्त दूसरे प्रश्न के उत्तर में ऐसे अनेक प्रमाण और प्रमाण रूपी प्रश्न आपके सामने आ सकते हैं।
एक और प्रश्न का उत्तर ढूँढना आवश्यक है कि इतिहास बदलने से क्या होता है? इसका उत्तर बड़ी आसानी से आपको बॉलीवुड की फिल्मों और गानों में मिल जाएगा। आप ध्यान देंगे तो पायेंगे कि हिंदी फिल्मों में उर्दू भाषा का कितना बोलबाला है? हिन्दू आस्था के प्रतीकों का अपमान आजकल शोभाचार बन गया है, लेकिन रेडिकल इस्लाम और ईसाईयत का अपमान करने की बॉलीवुड में कोई सोच भी नहीं सकता? इतिहास बदलने का कुकृत्य शाह रुख खान अभिनीत चक दे इंडिया में हुआ है, यह तथ्य अब सार्वजनिक है। ऐसे अनेक उदाहरण आपको मिल जायेंगे।
वास्तव में इतिहास हमारी मानसिकता का निर्माण करता है। हिन्दुओं के इतिहास को झूठा बताकर या फिर दबाकर हिन्दुओं की मानसिकता को हीन बनाने की सुनियोजित साजिश रची गयी है। इसी कारण आज भी हिन्दू अपने स्वर्णिम इतिहास को लेकर संशय में रहते हैं। लेकिन, दूसरी तरफ इतिहास के माध्यम से ऐसा महिमामंडन किया गया कि आज भी कूड़ा कचरा बिनने वाले, पंचर लगाने वाले, फल सब्जी का ठेला लगाने वाले, या फिर दर्जी नाई का काम करने वाले तथाकथित मुगल वंशज ताव में आकर बोलते रहते हैं कि हमने इस देश पर आठ सौ साल तक राज किया है!
ये है मानसिकता का अंतर और ये अंतर आया कैसे? तो उत्तर मिलेगा इतिहास के कारण। संगीत की बात कर लीजिये, आज भारत में पश्चिमी या इस्लामिक संगीतकारों या गायकों के बारे में जानकारी रखने वाले लोग बड़ी संख्या में मिल जायेंगे, बल्कि यह भी स्थापित सत्य है कि बॉलीवुड विदेशी फिल्मों और गानों की नकल करता है। ऐसा इसलिए क्योंकि बॉलीवुड के पटकथा लेखक या गीतकार उस स्तर का सोच ही नहीं पाते। इसके पीछे क्या कारण हो सकता है? आखिर हिंदी फिल्मों में अरबी भाषा के शब्दों का क्या तुक? अपने संगीत से बुझे दीपक जलाने की विधा रखने वाले महान संगीत सम्राट तानसेन की धरती पर ऐसा अकाल क्यों? इसका उत्तर आपको इतिहास में ही मिलेगा।
संगीत सम्राट तानसेन के जीवन का इतिहास लिखने में भी खेल किये गये है और इस बात को नकारा नहीं जा सकता। उनको अकबर के दरबार में ले जाना भी एक खेल ही था। क्या यह विचित्र या विचारणीय नहीं है कि आज भी तानसेन का नाम संगीत जगत में सूर्य के समान चमकता है, लेकिन किसी को उनके मूल जन्मस्थान के बारे में कोई जानकारी नहीं है या यूँ कहें प्रमाणिक जानकारी नहीं है? अकबर के बारे में सब ज्ञात है, उसके पहले के बादशाहों के बारे में सब ज्ञात है, लेकिन अकबर के दरबार में भी अपने राग और रागनियों के द्वारा हिन्दू देवी-देवताओं का गुणगान करने वाले तानसेन के बारे में धुंधली जानकारी उपलब्ध है। तानसेन से जुड़ा मुहावरा भले ही बन गया हो कि ‘क्या अपने आप को तानसेन समझता/समझती है’ या फिर ताना बन गया हो कि ‘क्या तानसेन की औलाद हो’, लेकिन तानसेन की जीवन यात्रा से जुड़ा प्रमाणिक इतिहास लेखन अभी राह में ही है। भारत की लोक स्मृति या जन श्रुति के कारण अभी भी तानसेन का जीवन विलुप्त नहीं हुआ है, लेकिन आखिर कब तक?
कहा जाता है निराशा में ही आशा छिपी होती है और यह बात चरितार्थ भी होती है। अभी हाल ही में एक पुस्तक का विमोचन हुआ, जिसका शीर्षक है ‘तानसेन का ताना-बाना’। ‘दिल्ली में हिन्दू राजवंश का स्वर्णिम काल’ नामक पुस्तक लिखने वाले और भारत को भारत की दृष्टि से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार और टीवी पैनलिस्ट राकेश शुक्ला इस पुस्तक के लेखक हैं और सुप्रसिद्ध सुरुचि प्रकाशन ने इसे प्रकाशित किया है। 10 अध्याय वाली इस छोटी सी पुस्तक में 116 पृष्ठ हैं। भले ही पुस्तक छोटी है, लेकिन लेखक ने रोचक शैली से गागर में सागर भरने का कार्य बड़ी कुशलता से किया हो। इस पुस्तक में इतिहास से सीख लेते हुए उपलब्ध साक्ष्यों अथवा प्रमाणों के आधार पर संगीत सम्राट कहलाने वाले नाद ब्रह्म के उपासक तानसेन के जीवन के उतार चढ़ाव का वर्णन किया गया है।
पुस्तक का प्राक्कथन पुरातत्वविद पद्मश्री के.के. मुहम्मद ने लिखा है। इससे यह सिद्ध होता है कि पुस्तक की विषयवस्तु प्रमाणिक है। यह प्राक्कथन पाठक को इस पुस्तक को एक ही बार में अंत तक पढ़ने की प्रेरणा देता है। के.के. मुहम्मद अपने प्राक्कथन में झकझोरने वाली बात लिखते हैं:
“….मुगल दरबार के अपने गुण-दोष हो सकते हैं। हम उसे नजरअंदाज भी कर दें तो भी समकालीन और आधुनिक इतिहास के वक्ता इस जवाबदेही से नहीं बच सकते कि ऐतिहासिक विमर्श में देश की सांस्कृतिक विरासत का सम्मान क्यों नहीं किया गया? क्या, महज इसलिए कि देश की संस्कृति सैकड़ों वर्ष के इस्लामिक आक्रमण के बाद भी अपना भारतीय चरित्र बरकरार रखने में सफल रही है। हमारा संगीत महाकाव्य, साहित्य से लेकर चित्रकला, वास्तुकला, स्थापत्य और हस्तशिल्प को सहेजे हुए है। कितना दुखःद है कि सदियों पुरानी भारतीय संस्कृति को नई पीढ़ी तक पहुंचाने के उत्तरदायित्व का कार्य न्यायपूर्वक नहीं किया गया। इसके सबसे बड़े उदाहरण तानसेन हैं। जिनके संगीत का रस खूब निचोड़ा गया। उसे इस तरह से परोसा गया जैसे मुगलों से पहले भारत में संगीत के कद्रदान ना के बराबर थे। संगीत और संगीतकारों की समझ मुगल शासनकाल में ही विकसित हुई। लेकिन इतिहास की वीथिका (मार्ग) कभी सदा के लिए बंद नहीं रहती। लोगों की जिज्ञासा और अन्वेषण एक ना एक दिन इतिहास के धुंधले पर्दे में ढंके गये सत्य को खोजकर समाज के सामने रख ही देता है। तानसेन का ताना-बाना पुस्तक इसकी बानगी है।”
के.के. मुहम्मद के प्राक्कथन का उपरोक्त अंश विषय की गंभीरता को समझने के लिए पर्याप्त है। अपने अभिमत में लेखक राकेश शुक्ला भी बड़ा गंभीर विषय उठाते हैं:
“भारत में एक परम्परा-सी स्थापित हो चुकी है कि एक बार जिन तथ्यों को स्वीकार कर लिया जाता है, उसे ही परम सत्य मान लिया जाता है और आगे उस पर तथ्यात्मक खोज या अनुसंधान की आवश्यकता ही नहीं समझी जाती। संगीत सम्राट तानसेन को लेकर भी ऐसा ही परिदृश्य रहा।”
रोचक बात यह है कि पुस्तक के लेखक न तो इतिहासकार हैं और न ही संगीत के जानकार, लेकिन उन्होंने इतिहास लेखन की गंभीरता को समझते हुए इस पुस्तक का लेखन कार्य किया है। वास्तव में यह एक आशा की किरण है और एक प्रेरणादायी सन्देश भी कि जब किसी विधा या क्षेत्र या विषय विशेष के लोग अपने कर्त्तव्य का पालन निष्ठा से नही कर रहे हों तो तब दूसरे लोगों को आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि कोई भी कार्य किसी की बपौती नहीं है।
पुस्तक का पहला अध्याय आपको हिन्दू समाज की उदासीनता के प्रति संकेत करेगा। इसमें एक चबूतरे का चित्र है जहाँ बैठकर तानसेन संगीत की साधना किया करते थे। इस चबूतरे की हालत देखकर शर्म शब्द भी छोटा लगता है। इस देश में लुटेरों आतंकियों के स्मारक हैं, मूर्तियाँ लगी हैं लेकिन तानसेन से जुड़ा ‘तन्नु का चबूतरा’ मिट्टी में मिला हुआ है और न जाने कब विलुप्त हो जायेगा।
पुस्तक का हर अध्याय पाठक को संगीत सम्राट के जीवन से जुड़ी अनेक तरह की जानकारियां देता है। दूसरे अध्याय में बॉलीवुड जिस सूफी संगीत और कल्चर के माध्यम से हिन्दू समाज में हर तरह का सामाजिक और मानसिक प्रदुषण घोलने में सफल रहा है, उन सूफी मुस्लिमों के बारे में ऐसे सत्य का अनावरण किया है जिसे वर्तमान और भविष्य की सुरक्षा की दृष्टि से आज जानना और समझना अत्यंत आवश्यक है। तीसरे अध्याय के चित्र भी पाठक को झकझोरेंगे। तानसेन का जबरदस्ती धर्म परिवर्तन कराने और अता अली खां नाम मिलने की कहानी इसी अध्याय में है। भले ही तानसेन के साथ धर्मपरिवर्तन का खेल हुआ हो, लेकिन उनकी हिन्दू आस्था जीवन भर अडिग रही। वे जीवन भर ‘प्रैक्टिसिंग’ हिन्दू रहे। उनकी रचनाओं में इसका प्रमाण प्रत्यक्ष दिखता है और यह जानकारी पाठक को अध्याय साथ में मिलेगी। इस पुस्तक में पाठक को अकबर के बारे में भी महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलेगी। उसका जन्म विंध्य क्षेत्र में हुआ था। यह पुस्तक आपको बताएगी कि तानसेन के जीवन पर भक्ति काल का कितना बड़ा प्रभाव था। देशभर में चलने वाले अधिकांश संगीत घरानों की जड़ें कहीं न कहीं तानसेन के साथ ही मिलती है, तानसेन के वंश वृक्ष से यही पता चलता है।
सार रूप में कहें तो यह पुस्तक पाठक को महान संगीत सम्राट तानसेन के जीवन में आये उतार-चढ़ाव के बारे में बताती है। इसके साथ ही उनका इस्लामीकरण किस तरह से किया गया और अपनी श्रेष्ठता के लिए अकबर द्वारा उनका अपहरण किस तरह किया गया यह भी बताती है। इस्लामीकरण के बाद भी उनके हिन्दू बने रहने के प्रमाण भी आपको इसमें मिलेंगे। यह पुस्तक संगीत सम्राट तानसेन को लेकर स्थापित धारणा को और अधिक स्पष्ट करने का सामर्थ्य रखती है। तानसेन के जीवन से जुड़े ऐसे अनेक अज्ञात पहलु इस पुस्तक में हैं जो इतिहास से या तो छिपे रह गये या फिर छिपा दिये गये थे।
ऐसा कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि भले ही ये पुस्तक छोटी सी है, लेकिन संगीत सम्राट तानसेन के जीवन को लेकर होने वाले शोधकार्यों के लिए एक संदर्भ पुस्तक हो सकती है।
यदि हमें अपने वर्तमान और भविष्य को सुखी और सुरक्षित बनाना है तो हमें अपने इतिहास और साहित्य का लेखन और अध्ययन कार्य भारत को भारत की दृष्टि से देखकर करना ही होगा और इस पुस्तक के रूप में लेखक ने यही अपरिहार्य कार्य किया है। पुस्तक सुरुचि प्रकाशन की वेबसाइट पर उपलब्ध है।
नारायणायेती समर्पयामि…..