हिमाचल प्रदेश की देवभूमि में स्थित मणिकर्ण घाटी का पिणी गांव एक ऐसी अनोखी परंपरा के लिए जाना जाता है, जो हर साल सावन के महीने में देशभर की जिज्ञासा का विषय बन जाती है। इस प्रथा के अनुसार, शादीशुदा महिलाएं पांच दिनों तक पारंपरिक वस्त्र नहीं पहनतीं, बल्कि अपने शरीर को केवल ऊन से बने एक हल्के पट्टू से ढकती हैं। इस दौरान गांव में पुरुषों के लिए भी कई कठोर नियम लागू होते हैं, जिससे यह परंपरा और भी रहस्यमय बन जाती है।
किंवदंती: राक्षस और देवता की कहानी
पिणी गांव की इस परंपरा के पीछे एक लोककथा है। कहा जाता है कि सदियों पहले इस गांव पर राक्षसों का आतंक था, जो विशेष रूप से सुंदर और सज-धजकर रहने वाली विवाहित महिलाओं को उठा ले जाते थे। जब गांव वाले पूरी तरह असहाय हो गए, तब ‘लाहुआ घोंड’ नामक एक स्थानीय देवता ने प्रकट होकर राक्षसों का वध किया और गांव को मुक्त कराया। इसके बाद, एक सामाजिक और धार्मिक संकल्प लिया गया कि सावन के इन पांच विशिष्ट दिनों में महिलाएं आकर्षक वस्त्र न पहनें, ताकि राक्षसों की स्मृति को शांत रखा जा सके और गांव पर कोई संकट न आए।
जहाँ पहले महिलाएं इन पांच दिनों में पूरी तरह निर्वस्त्र रहती थीं, अब अधिकतर महिलाएं पतले वस्त्र या पारंपरिक पट्टू पहनती हैं। कई महिलाएं इस अवधि में घर से बाहर नहीं निकलतीं और पुरुषों से दूरी बनाए रखती हैं। गांव की सीमा में बाहरी लोगों का प्रवेश भी पूरी तरह वर्जित होता है। यह पाबंदी परंपरा की पवित्रता और गोपनीयता बनाए रखने के लिए है।
पुरूषों को भी मानने पड़ते है नियम
इस परंपरा का पालन केवल महिलाओं तक सीमित नहीं है। पुरुषों के लिए भी इन पांच दिनों में शराब और मांसाहार पूरी तरह वर्जित होता है, पति-पत्नी आपस में बातचीत या हंसी-मजाक नहीं करते, एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराना तक वर्जित होता है।
यह सब कुछ देवता के प्रति श्रद्धा और धार्मिक अनुशासन के प्रतीक के रूप में किया जाता है।
एक शांत लेकिन आस्थामय त्योहार
हालाँकि इन दिनों कोई उत्सव या बाहरी समारोह नहीं होता, लेकिन पूरे गांव में एक अनूठी शांति, श्रद्धा और एकता का वातावरण होता है। यह परंपरा गांव के लोगों के लिए केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान और सामुदायिक विरासत है। आज की युवा पीढ़ी में इस परंपरा को लेकर विचारों में विविधता है। कुछ इसे आधुनिक संदर्भ में वैकल्पिक रूप से अपनाते हैं, जबकि बुजुर्ग महिलाएं अब भी इसे पूरी श्रद्धा से निभाती हैं।
पिणी गांव की यह परंपरा भले ही बाहरी लोगों को असामान्य या कठोर प्रतीत हो, लेकिन यह इस गांव की संस्कृति, आस्था और इतिहास की जीवंत झलक है। किसी भी लोक-परंपरा को समझने के लिए उसके सामाजिक, ऐतिहासिक और धार्मिक संदर्भ को जानना जरूरी है, न कि केवल आधुनिक दृष्टिकोण से मूल्यांकन करना।