केरल हाईकोर्ट के जस्टिस वीजी अरुण ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा है कि जो बच्चे धर्म और जाति से अलग होकर पले और बढ़े हैं, वे अधिक विवेकपूर्ण होते हैं। उनकी प्रश्न करने की क्षमता अधिक होती है। उन्होंने कहा है कि ऐसे बच्चे ही समाज की आशा हैं।
जस्टिस वीजी अरुण केरल युक्तिवादी संगम द्वारा आयोजित एक स्मृति समारोह को संबोधित कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने उन अभिभावकों की सराहना की जो जानबूझकर अपने बच्चों पर धार्मिक या जातिगत पहचान नहीं थोपते। उन्होंने कहा कि ये ही बच्चे देश का भविष्य होते हैं। उन्होंने कहा कि ये वही बच्चे हैं, जो समाज के विरोध के बावजूद सही सवाल उठाने से नहीं चूकते। ऐसे बच्चे आगे चलकर देश के लिए महत्वपूर्ण राह बनाते हैं।
दो लेखकों की याद में हुआ कार्यक्रम
जानकारी हो कि इस कार्यक्रम का आयोजन प्रसिद्ध तर्कवादी लेखक पावनन की स्मृति में और लेखक वैषाखन को सम्मानित करने के लिए किया गया था। दोनों ही लेखक तर्कशीलता और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रबल समर्थक रहे हैं। इस मौके पर जस्टिस अरुण ने लेखकों को श्रद्धांजलि दी। उन्होंने कहा कि दोनों ने जाति पर आधारित उपनामों को छोड़कर कलम के नाम अपनाये, जो समानता और उनकी तर्क के लिए प्रतिबद्धता का प्रतीक हैं।अपने निजी अनुभव को साझा करते हुए जस्टिस अरुण ने अपने पिता टीकेजी नायर को याद किया-जो लेखक, राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता थे। वे लेखक पावनन से प्रभावित होकर अनिलन के नाम से लेखन करते थे। इस दौरान उन्होंने आज के समय में सोशल मीडिया पर हो रहीं बहसों के तीखेपन पर भी चिंता जताई, जो अक्सर तर्क और अन्य मानकों से हटकर होते हैं।
“इतना नीचे कैसे गिर सकता है मलयालयी”
जस्टिस अरुण ने कहा, “मैं ऐसे मामलों की सुनवाई करता हूं जिनमें सोशल मीडिया पोस्टों के आधार पर आपराधिक कार्यवाही रद्द करने की मांग की जाती है। उन्होंने कहा कि इन पोस्टों को पढ़ना भी काफी कष्टदायक होता है, जो मलयालम भाषा को दूषित करते हैं। उन्होंने कहा कि मैं अक्सर ऐसा सोचता हूं कि एक मलयालयी इतना नीचे कैसे गिर सकता है। यह तभी होता है जब समाज में पावनन और वैषाखन जैसे स्वर नहीं होते।
दे चुके हैं ऐसा फैसला भी
जानकारी हो कि जस्टिस अरुण के विचार उनके न्यायिक दृष्टिकोण के अनुरूप हैं। 2022 में दिए एक ऐतिहासिक फैसले में उन्होंने व्यक्तियों को आधिकारिक दस्तावेजों में स्वयं को अधार्मिक होने को मान्यता दी थी। जानकारी हो कि उनका यह निर्णय तब आया था जब 12वीं पास करने के बाद कुछ छात्रों ने खुद का नामांकन अधार्मिक श्रेणी में करने की मांग की थी। धर्मनिरपेक्ष पालन-पोषण का उत्सव मनाकर और सार्वजनिक जीवन में धार्मिक पहचान से मुक्ति का समर्थन करते हुए जस्टिस अरुण ने एक बार फिर भारतीय समाज की दिशा में एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म दिया है, जिसका उदृेश्य तक, समानता और मानवीय मूल्यों पर आधारित हो।