भारतीय इतिहास लेखन में अपनी अलग पहचान बना चुकीं लेखिका और इतिहासकार डॉ. मीनाक्षी जैन को केंद्र सरकार ने राज्यसभा के लिए नामित किया है। अयोध्या, राम मंदिर और भारतीय परंपरा पर उनका लंबा शोध रखा है और आज उन्हें एक सफल लेखिका के तौर पर देखा जाता है। भारत की संस्कृति और इतिहास पर उनके द्वारा लिखित या संपादित करीब दर्जनभर किताबें छप चुकी हैं। लेकिन लेखन का उनका सफर इतना आसान नहीं थी और उन्हें अपनी पहली किताब प्रकाशित कराने के लिए प्रकाशक तक नहीं मिले थे। कुछ दिनों पहले TFI से खास बातचीत में उन्होंने अपनी लेखन की यात्रा के अनसुने पहलुओं को साझा किया था।
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कैसे इतिहास में जागी मीनाक्षी जैन की रुचि?
डॉ. मीनाक्षी जैन बताती हैं कि वे जब दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास की छात्रा थीं, तब उनके अधिकतर शिक्षक वामपंथी विचारधारा से प्रभावित थे। परीक्षा पास करने के लिए उन्होंने वही पढ़ाई जो पढ़ाई जाती थी लेकिन साथ ही उन्होंने स्वयं अलग-अलग स्रोतों से पढ़ना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे उन्हें एहसास हुआ कि जो इतिहास उन्हें पढ़ाया जा रहा है और जो वे खुद पढ़ रही हैं, उसके बीच में भारी अंतर है। डॉ जैन बताती हैं कि जब उन्होंने गार्गी कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया और सिलेबस देखा, तो यह साफ समझ में आया कि पाठ्यक्रम को बहुत चालाकी से एक खास दृष्टिकोण के अनुसार तैयार किया गया है।
उन्होंने कहा, “जैसे-जैसे मेरा अध्ययन बढ़ता चला गया तो मुझे यह महसूस होने लगा कि मैं अपने साथ, अपने देश के इतिहास के साथ और अपने विद्यार्थियों के साथ अन्याय कर रही हूं। इसलिए शुरुआत में मैंने यह किया कि सिलेबस के विषय पढ़ाने से पहले एक सामान्य व्याख्यान देती थी, जिसमें अपने विचार और अपने अध्ययन से मिले निष्कर्ष विद्यार्थियों के सामने रखती थी, और उसके बाद पाठ्यक्रम के अनुसार पढ़ाती थी। धीर-धीरे समझ आने लगा था कि हमारे इतिहास के साथ अन्याय किया गया है।” यह सब उनके लिए एक आत्मबोध की यात्रा थी, जिसमें उन्हें यह महसूस हुआ कि इतिहास को बहुत एकतरफा ढंग से पेश किया गया है और छात्रों से बहुत कुछ छुपाया गया है।
जब राम मंदिर के लिए हुआ पिता का बहिष्कार
डॉ. मीनाक्षी जैन का संबंध एक पत्रकार परिवार से था और उनके पिता गिरिलाल जैन देश के प्रतिष्ठित पत्रकार और लेखक थे। गिरिलाल जैन लंबे वक्त तक टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक रहे थे। मीनाक्षी जैन बताती हैं, “1980 में अयोध्या आंदोलन जब अपने चरम पर था, तब मेरे पिताजी देश के वरिष्ठ पत्रकारों में से एक हुआ करते थे। वे अपने करियर के शिखर पर थे और मेरे ख्याल से वे शायद पहले प्रसिद्ध पत्रकार थे जिन्होंने अयोध्या आंदोलन का खुलकर समर्थन किया था- सार्वजनिक रूप से लिखकर। उन्होंने लिखा था कि यह आंदोलन भारतीय सभ्यता और संस्कृति को उसके उचित स्थान पर लाने का एक प्रयास है।”

उन्होंने कहा, “उनका समाज में इतना सम्मान था कि देश-विदेश से आए लोग, सरकार में हों या बाहर, उनके विचारों को गंभीरता से लिया करते थे। लेकिन जब उन्होंने अयोध्या आंदोलन का समर्थन करना शुरू किया, तो ऐसा लगा जैसे किसी ने ऊंचे शिखर से उन्हें धक्का दे दिया हो। पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग, जो कभी उनका सम्मान करता था, पूरा लुटियंस समूह उनके खिलाफ खड़ा हो गया था।” उन्होंने आगे कहा, “पिताजी ने कई बार लिखा कि यह आंदोलन किसी समुदाय के विरुद्ध नहीं है। यह उस भारतीय सभ्यता को फिर से केंद्र में लाने का प्रयास है जिसे जानबूझकर हाशिये पर धकेल दिया गया था।”
मीनाक्षी बताती हैं, “यह मेरे पिताजी के लिए एक बड़ा झटका था, एकदम केंद्र से हटा कर उन्हें बाहरी बना दिया गया। हमारे पूरे परिवार के लिए यह समय बहुत कष्टकारी था। मैंने उनकी पीड़ा और संघर्ष को नजदीक से देखा, तभी मुझे मध्यकालीन इतिहास से परे जाकर यह जानने की रुचि जगी कि असल में हमारा इतिहास है क्या। और यही वह समय था जब मेरे पिताजी के निधन के बाद मैंने ‘राम और अयोध्या’ नामक पुस्तक लिखी।”

जब किताब छापने के लिए नहीं मिला कोई प्रकाशक
मीनाक्षी जैन ने हमसे बातचीत में बताया, “आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इस किताब को लिखने में मैंने कितना गहन शोध किया थी। शायद ही कोई स्रोत होगा जिसे मैंने छोड़ा हो। जब पुस्तक पूरी हुई, तो मुझे लगा कि यह बेस्टसेलर होगी। मुझे लगा कि प्रकाशक आगे आएंगे और कहेंगे कि हमें यह पुस्तक चाहिए। लेकिन हुआ इसके बिल्कुल उलट। एक के बाद एक प्रकाशक ने इस किताब को खारिज कर दिया।”
उन्होंने कहा, “मैं तब तक यही सोचती थी कि पुस्तकें अपनी गुणवत्ता के आधार पर स्वीकार या अस्वीकार की जाती हैं। मेरी किताब में ऐसा कोई तथ्य नहीं था जिसे कोई गलत कह सके। मुझे तब समझ में आया कि पब्लिशिंग हाउसेज़ में कौन सी पांडुलिपियां स्वीकार होंगी, ये निर्णय भी एक तरह के दबाव के तहत लिए जाते हैं। मैं स्तब्ध थी, एक के बाद एक प्रकाशक मना करते गए। मुझे लगा कि जितना समय मैंने इस पुस्तक को लिखने में नहीं लगाया, उससे ज्यादा इसे छपवाने में लग गया। क्योंकि एक बार आप पांडुलिपि भेजते हैं, फिर कोई जवाब नहीं आता, फिर अस्वीकृति मिलती है, फिर आप किसी और को भेजते हैं… और यह सिलसिला चलता रहता है।”
जैन ने कहा कि लेकिन आख़िर में हर अनुभव आपको कुछ न कुछ सिखाता है। मेरे लिए सबसे बड़ी सीख यही रही कि अकेले चलना ही मेरा एकमात्र रास्ता है। उन्होंने कहा, “मैं कभी किसी पर निर्भर नहीं रही। मेरी जितनी क्षमता थी, जो भी साधन मेरे पास थे, उनके अनुसार मैंने पूरी कोशिश की। जो कुछ भी मैंने किया, अपने बलबूते पर किया है।”
जब प्रकाशकों ने कहा- ‘कुछ भी छापने के लिए दे दो’
एक समय था जब प्रकाशकों ने उनकी किताब छापने से इनकार कर दिया था लेकिन फिर एक ऐसा दौर भी आया जब प्रकाशक उनका लिखा कुछ भी छापने के लिए तैयार थे। उन्होंने बताया, “जनवरी 2024, जब राम मंदिर का उद्घाटन होने वाला था तब बहुत से लोगों ने उन्होंने कहा कि आप कुछ भी (छापने के लिए) दे दीजिए। मैंने कहा जो मुझे लिखना था मैंने लिख दिया नहीं। मैंने कहा आप सोचिए 15 साल पहले कोई छापने के लिए तैयार नहीं था। मैं खुद को पीड़ित नहीं मानती। मैंने इस पूरी यात्रा का आनंद लिया। भगवान मुझ पर कृपालु रहे कि मुझे कभी आर्थिक मदद की सख्त जरूरत नहीं पड़ी। मुझे दो-एक फेलोशिप जरूर मिलीं लेकिन कुल मिलाकर मैंने अपनी रिसर्च अपने खर्चे पर ही की।”
उन्होंने आगे कहा, “इसने पूरी यात्रा ने मुझे एक बात और सिखाई- रिसर्च का महत्व। आप रिसर्च जल्दबाज़ी में नहीं कर सकते। अगर आप कोई नया दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रहे हैं, तो आपकी रिसर्च इतनी ठोस होनी चाहिए कि कोई उसमें खोट न निकाल सके। मैं अपनी पुस्तकों में कभी अपनी राय पाठकों पर नहीं थोपती। जो तथ्य मुझे मिलते हैं, मैं उन्हें उनके सामने रखती हूं और पाठक खुद तय करते हैं कि उनका निष्कर्ष क्या होना चाहिए।”
डॉ. मीनाक्षी जैन की प्रमुख किताबों में ‘Sati: Evangelicals, Baptist Missionaries, and the Changing Colonial Discourse’, ‘The Battle for Rama’, ‘Flight of Deities and Rebirth of Temples’, ‘Rama and Ayodhya’, ‘Vasudeva Krishna and Mathura’, ‘VISHWANATH RISES AND RISES: The Story of Eternal Kashi’ और ‘THE BRITISH MAKEOVER OF INDIA: Judicial and Other Indigenous Institutions Upturned’ शामिल हैं। इन पुस्तकों में उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों, पुरातात्विक साक्ष्यों और संस्कृत ग्रंथों के हवाले से भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं की रक्षा की है। वे पाठकों पर अपनी राय नहीं थोपतीं बल्कि तथ्यों के आधार पर उन्हें सोचने का अवसर देती हैं।
वर्ष 2020 में डॉ. मीनाक्षी जैन को पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वे दिल्ली विश्वविद्यालय के गार्गी कॉलेज में इतिहास की एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत रह चुकी हैं। इसके अतिरिक्त, उन्होंने नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी, भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (ICHR) और भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICSSR) जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं में वरिष्ठ पदों पर सेवाएं दी हैं। डॉ. जैन ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है।