बिहार की राजनीति हमेशा से नाटकीय रही है, लेकिन इस बार महागठबंधन ने जो तमाशा पेश किया है, उसने राजनीति को मज़ाक बना दिया है। 243 सीटों वाली विधानसभा में जब एक गठबंधन 254 उम्मीदवार उतार दे, तो समझ लीजिए यह कोई गठबंधन नहीं, सत्ता का आपसी दंगल है। राजद, कांग्रेस, वाम दल, वीआईपी और आईआईपी सब एक ही नाव में सवार हैं, लेकिन हर कोई चप्पू अलग दिशा में चल रहा है। परिणाम साफ़ है, अब यह नाव डूबने वाली है।
नीतीश कुमार और एनडीए को भले ही अलग-अलग मुद्दों पर घेरने की कोशिश हो रही हो, लेकिन असली नाटक महागठबंधन के भीतर चल रहा है। बिना सीट बंटवारे के ही मैदान में उतरना यह दिखाता है कि अब उनके बीच कोई भरोसा बाकी नहीं बचा है। हर पार्टी अपने लिए लड़ रही है, साथी दलों के खिलाफ भी। कहलगांव से लेकर चैनपुर तक, 11 सीटों पर खुलेआम फ्रेंडली फाइट के नाम पर असल में दुश्मनी की जंग छिड़ी हुई है।
कांग्रेस राजद से भिड़ रही है, वीआईपी राजद को काट रही है और भाकपा व सीपीआई जैसी पार्टियां अपने-अपने झंडे तानकर चल पड़ी हैं। यह कैसी एकता है? यह वो गठबंधन है जो जनता से वोट मांगते हुए आपस में ही वोट काटने की साजिश रच रहा है।
राजद ने तो अपने पुराने वफादारों को भी अपमानित करने में कोई कसर तक नहीं छोड़ी। रितु जायसवाल जैसी कार्यकर्ताओं को टिकट से वंचित कर निर्दलीय मैदान में उतरने पर मजबूर कर दिया गया। मतलब साफ है परिवारवाद और निष्ठा के बीच फिर से वही पुराना खेल, लालू परिवार का वर्चस्व और बाकी सब केवल मोहरे।
पप्पू यादव ने उजागर किया असली सच
इन सबके बीच अब पप्पू यादव की नाराज़गी ने इस एकता के भ्रम को पूरी तरह तोड़ दिया है। पप्पू यादव ने तो यहां तक कह दिया कि गठबंधन को तोड़ देना चाहिए। दरअसल महागठबंधन की यही हकीकत है। क्योंकि यह गठबंधन पहले ही टूट चुका है, बस इसका औपचारिक ऐलान बाकी है। जब एक गठबंधन अपने ही साथियों के खिलाफ उम्मीदवार उतारे, तो उसे गठबंधन नहीं, गठजोड़ की दुर्घटना कहा जाता है।
वहीं भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल ने बिल्कुल सटीक तंज कसा कि जो लोग आपस में सीटें नहीं बांट पा रहे, वो बिहार कैसे चलाएंगे? यह सवाल अब बिहार की सड़कों पर गूंज रहा है। जनता भी यही सोच रही है कि अगर चुनाव से पहले ये दल आपस में भिड़ रहे हैं, तो सत्ता में आने के बाद क्या करेंगे?
महागठबंधन का यह रूप असल में लालच, अहंकार और अवसरवाद की राजनीति का नतीजा है। यहां कोई विचारधारा नहीं, कोई विज़न नहीं, बस कुर्सी की भूख है। राजद का सपना है कि किसी भी तरह तेजस्वी को मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल जाए, कांग्रेस केवल साथ दिखने के लिए है, वाम दल खुद के अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं और वीआईपी जैसी पार्टियां इस गहमागहमी में मोलभाव का फायदा उठाने में लगी हैं।
यहां पर सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या जनता अब भी इन झूठे वादों के जाल में फंसेगी? बिहार का मतदाता अब भोला नहीं है। वह देख रहा है कि महागठबंधन के नेता आपस में एक-दूसरे की जड़ें खोद रहे हैं। ये वो लोग हैं जो सत्ता में आते ही एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार और विश्वासघात के आरोप लगाएंगे।
मैदान में हैं सत्ता के सौदागर
बिहार के चुनाव में यह गठबंधन नहीं, सत्ता के सौदागर मैदान में हैं। जिनके लिए जनता सिर्फ वोट बैंक है और गठबंधन सिर्फ कुर्सी तक पहुंचने का जरिया। लेकिन, इतिहास गवाह है बिहार की जनता हर बार उसी को नकारती है जो जनता की बुद्धिमत्ता को कम आंकता है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि आज महागठबंधन नाम की कोई चीज़ बची ही नहीं है। जो तस्वीर पेश की जा रही है, वह असल में एक लठबंधन की तस्वीर है। हर दल अपनी दुकान चला रहा है, हर नेता अपना झंडा गाड़ रहा है और हर सीट पर अपने ही साथी से जंग लड़ रहा है।एनडीए ने इसे बखूबी भांप लिया है। इसलिए उनके पोस्टरों में अब खुलकर लिखा जा सकता है कि जो अपने नहीं संभाल सके, वो बिहार क्या संभालेंगे?
महागठबंधन के नेताओं को यह समझ लेना चाहिए कि सत्ता के लिए बेमेल जोड़-तोड़ की राजनीति का अंत हमेशा अपमानजनक हार में ही होता है। इस बार भी वही होगा, क्योंकि जनता अब इस फ्रेंडली फाइट के ढकोसले के पीछे की गंदी राजनीति पहचान चुकी है। बिहार में महागठबंधन का सही मतलब यही है कि बिहार में ये महागठबंधन नहीं, सत्ता का महामुकाबला है, हर योद्ध अपने ही राजा से लड़ रहा है।